मति मलिन है
सूर्य को भी चंद्र कहने पर तुले हैं,
दृष्टि में है दोष, या फिर मति मलिन है।।
शत्रुओं के सामने घुटनों चले जो।
राष्ट्रहित को बेचकर फूले-फले जो।
देखकर चट्टान जैसे दृढ़ इरादे,
हो रहे हैं अब सरासर बावले जो।
झूठ के बाज़ार के हैं वे खिलाड़ी,
सत्य को स्वीकारना बेहद कठिन है।।
हर विजय-अभियान पर शंका जताते।
सैनिकों के शौर्य को ठोकर लगाते।
देश ने देखा उन्हें भ्रमजाल बुनते,
हर समय अपना अलग खटराग गाते।
किंतु जनता की समझ में आ चुका है,
बेसुरों का ताकधिन धिनताकधिन है।।
वास्तविक परिदृश्य झुठलाने लगे हैं।
कल्पना से चित्त बहलाने लगे हैं।
बौखलाहट साफ़ दिखती चेहरे पर,
मानसिक रोगी नज़र आने लगे हैं।
दर्द में डूबी महत्वाकांक्षाएँ,
रात रिसता घाव है, अवसाद दिन है।।
— बृज राज किशोर ‘राहगीर’