हास्य व्यंग्य

राष्ट्रीय मौसम

कई बार मैं बड़ी दुविधा में पड़ जाता हूँ कि पढ़ाते समय बच्चों को अपने देश में मौसमों की कितनी संख्या बताऊँ? बचपन से अब एक सामान्य भारतीय की तरह मेरा ज्ञान कहता है कि इस देश में तीन मुख्य ऋतुएँ- ग्रीष्म, शीत और वर्षा तथा छः उपऋतुएँ-वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत और शिशिर होती है। दो दशक पूर्व एक लोकप्रिय गीत ने मुझे नया ज्ञान दिया कि मौसम पाँच होते हैं-‘एक बरस के मौसम चार, पाँचवाँ मौसम प्यार का।’ ये पाँचवाँ मौसम यानी प्यार का मौसम, बारहमासी होता है। शेष तो उपऋतुओं के समान आते-जाते रहते हैं। प्यार का मौसम बगीचों, मंदिरो, तालाबों, नदियों-सागर के तटों अर्थात् यत्र-तत्र-सर्वत्र-सदैव हिलोरें मारता रहता है। जिस पर कंट्रा्ल करने के लिए ‘मौसम-विभाग’ नहीं ‘पुलिस-विभाग’ की आवश्कता पड़ती है।

खैर, इस देश में आज़ादी के बाद एक मौसम स्थायी रूप से प्रति वर्ष आता है। इसके आने की न अवधि निश्चित है, ना तारीख। ये मौसम है-महँगाई का मौसम। हमारे देश की जनता की विशेषता है कि एक मौसम की अतिरेकता के पश्चात् वह अगले मौसम की प्रतीक्षा करने लगती है। किन्तु महँगाई का मौसम जाए तो कभी लौटकर ना आए, यह सबकी हार्दिक इच्छा होती है। लेकिन साब किसके बाप में दम है जो इस मौसम को रोक सके। ये हर बार नये रूप में पूरी तैयारी से आती है, और पिछली बार से ज्यादा धूम से आती है। कोई हीटर, कोई अलाव, कोई बरसाती, कोई छाता इसकी तीव्रता और प्रखरता में कमी नहीं कर सकता।

महँगाई क्या है? वस्तुकी कीमतों का बढ़ना। जी नहीं जनाब! हमारे सवा सौ करोड़ से अधिक आबादीवाले देश में महँगाई को इतने कम शब्दों में पारिभाषित करना महँगाई का अपमान है। इस पर तो पूरी चालीसा होनी चाहिए। हमारे देश में महँगाई एक ‘दर्शन’ है। जो प्रधानमंत्री से लेकर भिखारी, गृहस्थ से संन्यासी, बुद्धिजीवी से बुद्धिहीन, उत्पादक से उपभोक्ता, पोते से दादा, प्रेमिका से पत्नी और प्रेमी से पति तक सभी को दार्शनिक बना देती है। प्रधानमंत्री का हर साल गुजर जाता है। पर बेचारा संसद भवन में अपनी मंडली के साथ तय नहीं कर पाता कि-‘क्या करूँ कि कीमत कम हो और लोगों का गुजारा हो!’ भिखमंगा सोचता है कि ‘कुछ अधिक मिले’ तो मेरा गुजारा हो!! संन्यासी, गृहस्थ को भगवद् प्राप्ति का शाॅर्टकट दिखाना चाहता है मगर महँगाई गृहस्थ को ‘लक्ष्मी’ प्राप्ति के शाॅर्टकट खोजने को प्रेरित करती है। बुद्धिमान और बुद्धिहीन दोनों महँगाई के मुद्दे पर एकमत होकर अपनी प्रतिभा पर भ्रमित हो जाते हैं। पत्नियाँ और प्रेमिका इस बार पिछली बार से अधिक महँगा उपहार लेने के मूड में होेती हैं लेकिन महँगाई, पति और प्रेमी को उसकी औकात दिखा जाती है। पोते के सामने दादा जी की दादागिरी तब धराशायी हो जाती है जब दादा जी एक रूपयेवाली टाॅफी दिलाना चाहते और पोता पचास रूपयेवाली चाॅकलेट पसंद कर लेता है।

लोग महँगाई का संबंध अर्थशास्त्र से जोड़ते हैं। मूर्ख हैं! महँगाई तो भारतीयों को दार्शनिक बना देती है। उसका संबंध दर्शनशास्त्र से होना चाहिए। वह भारतवासी को आध्यात्मिक बना देती है। मेरा तो दावा है यदि महँगाई ना हो तो देशवासी भगवान को भी याद करना छोड़ दें। कहा भी है- ‘दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोई।’ दुख यानी क्या?- इस कलयुग में महँगाई से बड़ा दुख भला कोई हो सकता है? महँगाई इस देश को सर्वधर्म समभाव का संदेश देती है। हमारे देश में अनेक पंथ, धर्म, संप्रदाय, जातियाँ हैं जो सदियों से अपने-अपने विचारों को लेकर लड़ते रहते हैं और अपने अनुयायियों को भड़काते, उकसाते और बहकाते रहते हैं। किन्तु महँगाई सबके मतभेेेेदों और मनभेदों को मिटाकर ‘एकमत’ कर देती है। तभी तो कहा भी है कि-‘भेद बढ़ाते मंदिर-मस्ज़िद, बात समझ में ना आई! सब लोगों को साथ मे लाती,एक कराती महँगाई।’

महँगाई हमारे देश की एकता की कड़ी है। ये हमारी राष्ट्रीय एकता और अस्मिता का प्रतीक है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक और थार के रेगिस्तान से अरुणाचल की वादियों तक हमारी भाषाएँ, भूषा, आचार-विचार, आहार-संस्कार, शिक्षा, तीज-त्यौहार, प्रथा-परंपरा भिन्न-भिन्न हो सकते हैं किन्तु महँगाई, महँगाई पर कोई विवाद नहीं। वह एक है। इस महँगाई को आतंकवाद, नक्सलवाद, जातिवाद, भाषावाद, प्रांतवाद के अलगाववादी युग में किसी वाद से कोई खतरा नहीं। अपितु इसने इन वादों को एकता के सूत्र में पिरो रखा है। यहाँ तक कि एक-दूजे का परस्पर मुँह ना देखनेवाले कट्टर विरोधी राजनैतिक दल भी एक होकर समकालीन सरकार की टाँग खीचने लगते हैें। महँगाई राजनैतिक विचारों को जोड़नेवाली मज़बूत कड़ी है।

महँगाई, हमारे देश की आत्मा है और आत्मा अमर है, इतना तो हम जानते हैं। इसलिए वह न सूखती है, न गीली होती है और न ही जलती है। बल्कि देश के सूखने, गीले होने और जलने पर इस आत्मा का और रूप निखर जाता है। वह अपना दिव्यत्व प्राप्त कर लेती है। सोचिए, यदि महँगाई इस देश से निकल गई तो भारत निष्प्राण हो जाएगा। फिर हम किसके बारे में चिंतन करेंगे? महँगाई ही है जो हमें पेट भरने के लिए विवश करती है। यदि पेट भरने की चिंता न होगी तो कोई क्यों काम करेगा? महँगाई, जनता को ऊर्जा प्रदान करती है और देश को ऊर्जावान बनाती है। हमारे देश का ऊर्जा सूर्य से नहीं, महँगाई से मिलती है। महँगाई देश को विकास के लिए प्रेरित करती है कि ‘आओ, हिम्मत है तो मुझे हराओ।’ ये हमेशा विकासशील रहती है, कभी विकसित नहीं होती। इसलिए भारत शताब्दियोें से एक विकासशील राष्ट्र है।

महँगाई, हमारे देश को विश्व में अस्मिता और पहचान प्रदान करती है। विश्व के विकसित देशों के लिए, हम इसलिए तो पूजित हैं। वे ‘लक्ष्मी जी’ की पूजा नहीं करते। वे हमारे देश की पूजा करते हैं। हमारे कारण ही तो इन देशों का अस्तित्व है। हमारे कारण ही तो इन देशों का चूल्हा जलता है। इन्हें तो हमारे देश की महँगाई का अहसानमंद होना चाहिए। महँगाई ना होती तो इनके डाॅलर, पाउण्ड, येन, लीरा सब मुँह तकते रह जाते।

मैंने मौसम से बात आरंभ की थी। महँगाई का मौसम आते ही लाल टमाटर आग का गोला लगने लगते हैं। प्याज के कारण लोग आँखों से आँसू बरसाने लगते हैं। डीजल, पेट्रोेल और गैस के दाम खून जमाने लगते हैं। एक महँगाई एक बार में सारे मौसमों का मज़ा दे जाती है। इसे तो सरकार को ‘राष्ट्रीय मौसम’ घोषित कर देना चाहिए। महँगाई का अर्थ जो भी हो लेकिन वह अनर्थ कर देती है। ये ईमानदारों को बेईमान बना देती है। गरीबों को अपनी लाज का सौदा करने देने को विवश कर देती है। कभी जीवन का आधार छीन लेती है तो कभी तलवारों से धार छीन लेती है। इतना ही नहीं वह इंसान से भगवान तक छीन लेती है-

वह ज़रुरत बहुत बड़ी होगी, जो उसूलों से लड़ पड़ी होगी
चोरी, भूखे ने कर ली मंदिर में, भूख भगवान से बड़ी होगी

3 thoughts on “राष्ट्रीय मौसम

  • वह ज़रुरत बहुत बड़ी होगी, जो उसूलों से लड़ पड़ी होगी
    चोरी, भूखे ने कर ली मंदिर में, भूख भगवान से बड़ी होगी,,,,,,,,ati uttam

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छा व्यंग्य लेख है. विचार करने के लिए भी बाध्य करता है.

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