कविता

…. क्राँति अलख : खौलता खून

क्या कभी खून नहीँ खौलता तुम्हारा,
जब देखते हो गरीबोँ का लहू पानी सा बहते,
कि मानव को पीड़ा हो किसी मानव के रहते।
क्योँ तुम उठते नहीँ क्राँति को,
क्योँ बेवजह थोप रहे हो शांति को।
तुम सरफिरोँ से क्योँ नहीँ हो?
पर सोचो क्या चुपचाप ही सहीँ हो??
कैसे देख लेते हो मरते किसी बेजान को,
नाजुक सी बच्ची की लुटती हुयी आन को।
क्या सचमुच तुम जी रहे हो?
क्योँ विष जीवन का पी रहे हो?
क्या सुख, क्या सुविधा, क्या आनंद माँगते हो?
क्योँ हिस्सा अपना अपना खंड माँगते हो?
टूट जाओ बिखर जाओ मिट जाओ।
या बनकर माला ही छोटी डट जाओ।
तुम ही तो अटल हो निश्चय लेकर चलो तुम,
भावनाएँ नहीँ केवल समर्पण देकर चलो तुम।
मानव से मानव को जोडना क्या धर्म नहीँ?
क्या कटते पिटते इन्हे देख आती शर्म नहीँ?
क्योँ तुम हारकर बैठ गये हो पुरोधा बनकर जागो।
या दौड जाओ निर्माण पथ पर क्राँति मशाल लेकर भागो।।
टूटो बिखरो नहीँ बस जोडते ही चलो,
अधर्म के बीज से उगे पेड तोडते ही चलो।
मिटो नहीँ झुको नहीँ लक्ष्य को पाकर रहो,
गीत विजय के ऊँचे स्वरोँ से गाकर रहो।
शिव बनकर नाश कर दो तम का हे सनातनी,
तुम ही राम कृष्ण परशुराम की प्रेरणाओँ के धनी।
नीरस जीवन झेलने मेँ सुख नहीँ अब,
त्याग दो स्वार्थ को जिसका दुख नहीँ अब।
बनकर चलो मशाल विश्व भारती प्रकाशित करो,
नित निरंतर शक्ति से अधर्म मिटाकर शांति को जीवित करो।
तुम नर बनकर नहीँ केवल आए हो जीवंत शक्ति बनकर,
तुम असहाय, पीडितोँ की पीडाओँ की आए मुक्ति बनकर।
उठो जागो आगे बढो, विवेकानंद का स्वप्न पूरा करो,
जो डालते हैँ बुरी नजरेँ तुमपर उन्हे भी अब घूरा करो।
तोड दो वो हाथ जो पाप का प्रचार करने लगे,
खीँच दो जुबान वो जो शब्दोँ से अंधकार करने लगे।
तुम वीर हो भारती के पूत अर्जुन भीम तुम,
मर्ज है कोई राष्ट्र को तो उसके हो हकीम तुम।
तुम शक्ति हो, क्राँति हो, तुम ही विजेता,
योद्धा तुम्ही और तुम सब प्रकार के ही ज्ञेता।
जीत लो हर जंग जिसमे तुम लडो,
वीर बनकर बढो, पाप का विध्वंस तुम करो।
जीवन उसी का है जिसने रण मेँ विजय पायी है,
वीरोँ की गाथा धरती ने बार बार ये गायी है।
तुम श्रेष्ठ भारत के श्रेष्ठ पुत्र तुम्ही रणवीर हो,
तुम हारने ना कभी वाले वीरोँ के भी वीर हो।
उठो आगे बढो, साहस पराक्रम से चलो,
दिनबनकर तुम चढो पर शाम बनकर ना ढलो,
तुम विजयी… तुम विजयी… तुम विजयी..

-सौरभ कुमार दुबे

सौरभ कुमार दुबे

सह सम्पादक- जय विजय!!! मैं, स्वयं का परिचय कैसे दूँ? संसार में स्वयं को जान लेना ही जीवन की सबसे बड़ी क्रांति है, किन्तु भौतिक जगत में मुझे सौरभ कुमार दुबे के नाम से जाना जाता है, कवितायें लिखता हूँ, बचपन की खट्टी मीठी यादों के साथ शब्दों का सफ़र शुरू हुआ जो अबतक निरंतर जारी है, भावना के आँचल में संवेदना की ठंडी हवाओं के बीच शब्दों के पंखों को समेटे से कविता के घोसले में रहना मेरे लिए स्वार्गिक आनंद है, जय विजय पत्रिका वह घरौंदा है जिसने मुझ जैसे चूजे को एक आयाम दिया, लोगों से जुड़ने का, जीवन को और गहराई से समझने का, न केवल साहित्य बल्कि जीवन के हर पहलु पर अपार कोष है जय विजय पत्रिका! मैं एल एल बी का छात्र हूँ, वक्ता हूँ, वाद विवाद प्रतियोगिताओं में स्वयम को परख चुका हूँ, राजनीति विज्ञान की भी पढाई कर रहा हूँ, इसके अतिरिक्त योग पर शोध कर एक "सरल योग दिनचर्या" ई बुक का विमोचन करवा चुका हूँ, साथ ही साथ मेरा ई बुक कविता संग्रह "कांपते अक्षर" भी वर्ष २०१३ में आ चुका है! इसके अतिरिक्त एक शून्य हूँ, शून्य के ही ध्यान में लगा हुआ, रमा हुआ और जीवन के अनुभवों को शब्दों में समेटने का साहस करता मैं... सौरभ कुमार!

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