कविता

आधा संग्राम

जश्न मनाओ कि हमने दुश्मन को धूल चटाई है
जश्न मनाओ आतंकी सेना ने मुँह की खाई है
जश्न मनाओ अब तक हमने टेके न घुटने अपने
जश्न मनाओ आतंकी न छीन सके सपने अपने
गर्व करो कि झेली हमने गोली अपने सीनों पर
गर्व करो कि झुके नहीं गोलों-बम-संगीनों पर
गर्व करो कि रणवीरों ने शान न अपनी घटने दी
भारत-माँ की आन तिरंगे की इज्जत न लुटने दी
लेकिन मेरे देशवासियों अब भी जंग ज़रूरी है
एक लड़ाई आरपार की लड़नी बहुत ज़रूरी है
जब तक गद्दारों का बच्चा जिंदा एक भी बाकी है
आधा है संग्राम युद्ध भी तब तक आधा बाकी है।

आओ तुमको आज मिलाऊँ आतंकी गद्दारों से
पूछ रहा हूँ प्रश्न एक मैं देश के पहरेदारों से
क्या आतंकी वही सिर्फ जो सीमा पर से आते हैं
क्या आतंकी वही जो गोली हम सब पर बरसाते हैं
क्या आतंकी नहीं जो वो लड़वा दे जो भाषावालों को
क्या आतंकी नहीं जो कटवा दे जो भोले-भालों को
क्या आतंकी नहीं जो बँटवा दे भारत को भागों में
क्या आतंकी नहीं जो डस ले छिपकर काले नागों में
जो रिश्वत की पत्तल चाटे क्या हैं वो गद्दार नहीं?
जो हिंसा की आग लगाए क्या उनका अपकार नहीं?
दबा रहे जो अन्न देश का किन गद्दारों से कम है?
करते जो कालाबाज़ारी क्या उनको कोई ग़म है?
देशद्रोहियों की सूरत ये गद्दारों की झाँकी है
आधा है संग्राम युद्ध भी तब तक आधा बाकी है।

आज भेड़िए छिपकर बैठे कुछ भेड़ों की खालों में
पग में घुुघरू बांध के मटके बाज मोर की चालों में
रखते खूनी पंजे जिसमें दिखते हैं नाखून नहीं
आदमखोरों के जबड़ों से कभी टपकता खून नहीं
इनके हाथों में बंदूकें, बम हैं न तलवार कहीं
रूप-रूप में ये मिल जाएं इनका तो अवतार नही
अफ़जल तो है एक मगर पर इनकी पूरी सेना है
इन मक्कारों को भारत से लेना है न देना है
आतंकी दुश्मन है संभव कल हमको मिल जाएंगे
जिनको चैराहों पर जिंदा मिलकर सभी जलाएंगे
लेकिन जयचंदी पोतों को ढूँढ़ कहाँ तुम पाओगे
ढूँढ़ सको तो अपने भीतर छिपा हुआ ही पाओगे
है दुश्मन ये घर के अंदर बंगला है न पाकी है
आधा है संग्राम युद्ध भी तब तक आधा बाकी है।

बुद्धभूमि ही नहीं मात्र ये युद्धभूमि भी वीरों की
राम-शिवा से रणधीरों और अर्जुन-से रणवीरों की
जब-जब वक्त पड़ेगा बेटे कभी नहीं घबराएँगे
मातृभूमि की बलिवेदी पर अपना शीश चढाएँगे
आँसू घड़ियाली आँखों में कभी नहीं सच्चे लगते
हंसों की टोली में बगुले कभी नहीं अच्छे लगते
मात्र सुमन-श्द्धा अर्पण ये तब तक सब बेमानी है
जब तक लोगों के अंतर में भरी हुई बेईमानी है
दश्मन आतंकी ही होगा भूल बड़ी नादानी है
आस्तीन के साँपों की न होती कोई निशानी है
पहले इस विषधर को कुचलो माँग ये भारत माँ की है
आधा है संग्राम युद्ध भी तब तक आधा बाकी है।

2 thoughts on “आधा संग्राम

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    शरद जी कविता में गुस्सा रोष और आग है , हर भारती के दिमाग में बस यही है , यही है , बस यही है .

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छी कविता, शरद जी.

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