कवितायेँ
हमने जोडा था रिश्ता इबादत के तौर पर
उसने समझा इसे शरारत के तौर पर
उसको होना ही था हो गया मायूस बहुत
दिल से खेला था वो तिजारत के तौर पर
परिंदों ने छुआ है गगन उडकर
मैंने सीखा है जीना धरा से जुडकर
वक्त यूं तो देता नही मौके बार बार
खुद से मिलते रहना राह में मुडकर
न करते हैं उफ ना करते हैं गिला किसी से
खुद में सिमट गया मैं फिर ना मिला किसी से
सितम किए मुझपर कांप गयी रूह उसकी
वफा से मिला उसकी बेवफाई का सिला किसी से
अच्छे मुक्तक !
शुक्रिया.. विजय कुमार सिंघल जी
बहुत खूब मिश्रा जी .
शुक्रिया.. गुरमेल सिंह भमरा लंदन जी