चिंगारी
प्यार की राह के अंतिम छोर तक हम आ गये हैं
पर्वत की चोटियों सा आकाश तक हम आ गये हैं
तन से मन ,मन से रूह तक का यह सफ़र अच्छा रहा
हमारे साथ रहने कहीं कोहरा कही शबनम आ गये हैं
राख के ढेर में छुपी रहती है इश्क की जलती चिंगारी
उन्हें फिर से सुलगाने बहारों के कई मौसम आ गये हैं
हर अहसास को मिल जाता है उसका आशिक
रूठे प्रेमी को मनाने देखो उनके सनम आ गये हैं
बिना परीक्षा दिए होता नही कुछ भी हासिल
प्रेम पर ज़ुल्म ढाने देखो सितम आ गये हैं
किशोर कुमार खोरेंद्र
बढ़िया !
अच्छी कविता .