गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

बनकर के आग तन-बदन में समाने के लिए
मचल उठा है वो मेरे अंजुमन में आने के लिए

रास आने लगी आरिज ओ गेसू की मस्तियाँ
बढ़ने लगी तड़प ख़्वाब हकीकत बनाने के लिए

महक उठा है मन का आँगन कुछ इस तरह
बेताब है गुंचा ए गुल गुलदान सजाने के लिए

चमकते हैं चाँद ओ सितारे आसमां में इस तरह
भेजा है किसी ने उन्हें ये दिल बहलाने के लिए

दिल के तार मचलकर यूँ बह उठते हैं हरसू
ज्यों परिंदा उड़ता है गगन का होजाने के लिए

बैठ साहिल पर करते रहे लहरों संग शोखियाँ
वही पकड़के हाथ चले मझधार डुबाने के लिए

लो चल पड़े नाखुदा संग खुदको लुटाने के लिए
बिखरे हैं रेजा रेजा किस्मत को मनाने के लिए

…..अंजना

2 thoughts on “ग़ज़ल

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    ग़ज़ल बहुत अच्छी लगी .

  • विजय कुमार सिंघल

    अति उत्तम ग़ज़ल !

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