हास्य व्यंग्य

बापू का चश्मा

चोरी करना अपराध ही नहीं पाप भी है। चोरी, एक ऐसा कुकृत्य है जिसके बिना सभ्य समाज का काम नहीं चलता। इतिहास साक्षी है कि मानव सभ्यता का आरंभ ही ‘चोरी’ से हुआ था। न आदम पेड़ पर लटका फल चुराता और न आज देश में अंतर्राष्ट्रीयस्तर के चोर पैदा होते। हम माखनचोर, चितचोर श्रीकृश्ण के देश मेें रहते हैं। आज देश के बड़े-बड़े मंत्री और संतरी, अधिकारी और चपरासी चोरी कर रहे हैं। क्या बुरा कर रहे हैं! थोड़ा-सा अंतर है। अब लोकतांत्रिक देश में जो चोरी की जाती है उसे शिष्ट और संवैधानिक भाषा में ‘घोटाला’ कहा जाता है। जब कोई अनपढ़-निर्धन किसी का सस्ता सामान जबरन, अनाधिकार रख लेता है तो वह ‘चोरी’ कहलाती है, जबकि वही काम लाखों-करोड़ों की हेराफेरी में यदि कोई सभ्य-शिक्षित-संपन्न पदाधिकारी करता है तो वह ‘घोटाला’ कहलाता है। चोरी करना मामूली कार्य है और घोटाला करनेवाले की एक राष्ट्रीय छबि होती है। ‘छोटे लोग’ चोरी जैसा घृणित काम करते हैं, ‘बड़े लोग’-घोटाला। कविवर रहीम ने तक कहा है- बड़े काम छोटे करे तो न बड़ाई होय, ज्यों रहीम हनुमंत को गिरधर कहे न कोय।

पिछले दिनों देश में फिर एक अंतर्राष्ट्रीयस्तर का हादसा हो गया। मैं तय नहीं कर पा रहा हूँ कि इसे चोरी कहूँ या घोटाला। आप मेरी मदद कीजिए। विश्व के एक बड़े और महान व्यक्ति की छोटी-सी चीज़ गायब हो गई। जी हाँ, मैं गाँधी जी के चश्मे की ही बात कर रहा हूँ। पुलिसवालों की नज़र में यह चोरी है। क्योंकि चश्मे की कीमत मामूली थी-दो सौ रुपये। लेकिन महात्मा गाँधी की इस व्यक्तिगत संपत्ति को सार्वजनिक रूप से नीलाम किया जाता तो लाखों रुपये मिलते। मेरा मन इसे चोरी मानता है, क्योंकि यह कार्य किसी अत्यंत मामूली तुच्छ जीव का है। मंत्री, नेता अधिकारी या कोई पूंजीपति चोरी नहीं करता, वह घोटाला करता है। पर एक मामूली चश्मे का इन लोगों के लिए क्या महत्व। न उसे पहन सकते और न हीं बता सकते कि चश्मा बापू का है। देश के इन महापुरुषों की नज़र इस चश्में पर न पड़ी वरना एक और घोटाला हो सकता था-चश्मा घोटाला।

बापू ने अपनी आत्मकथा में स्वीकारा है कि बचपन में बीड़ी पीने की आदत लग जाने पर उन्होंने अपने सोते हुए रिश्तेदार के हाथ से सोने का कड़ा चुरा कर बीड़ी खरीदी थी। वे अपने इस कार्य को चोरी कहते थे। उन्होंने इसे निर्विवाद मन से अपने इस बाल सुलभ अपराध को अपने पिता के समक्ष स्वीकार लिया था। बिना किसी लोकपाल के। हमारे गाँधीवादी नेताओं में वह सामथ्र्य कहाँ? शायद गाँधी और गाँधीवादी होने में यही बुनियादी अंतर है।

मुझे लगता है बापू को चश्मे का प्रयोग नहीं करना चाहिए था। वे ही तो कहा करते थे-‘बुरा मत देखो।’ अब जब दिख ही नहीं रहा तो चश्मा लगा कर क्या देखने की कोशिश कर रहे थे? चारो ओर बुराई ही बुराई बिखरी पड़ी है तो चश्मे से कौन-सी अच्छाई दिखती? बापू नहीं जानते थे कि उनका चश्मा आनेवाली सरकार के लिए कितनी समस्या खड़ी कर देगा। बिल्कुल ही दूरदर्शिता से काम नहीं लिया बापू ने। बापू चश्मा नहीं पहनते तो क्या बिगड़ता उनका। न रहता बाँस, बजती बाँसुरी! अब हो गयी न आफत!! आप बताइए सरकार किसे पकड़े? यहाँ बड़े-बड़े मगरमच्छों को फाँसने के लिए लोकपाल का जाल बुना जा रहा है। अब चश्मा चुरानेवाली मामूली मछली को पकड़ने के लिए कौन घंटा भर काँटा डालकर बैठेगा? और वैसे भी अब देश को गाँधी के चश्मे की ज़रूरत कहाँ रही! अब बापू का यहाँ कोई काम नहीं। अब तो आयातित गाँधी का युग है। हमें विदेशी माल का चस्का लग गया है। बापू की तरह ‘बापू का चश्मा’ भी अब आउटडेटेड हो गया है। बापू के तीन बंदरों का तो पता नहीं। पर उनके नाम के फल खानेवाली वानर सेना सेवाग्राम ही नहीं पहुँच पायी। संसद भवन में पक्ष और प्रतिपक्ष सब बापू का चीरहरण कर रहे हैं। सब मिलकर भजन गा रहे हैं-अब ‘गाँधी’ के देश में बापू का क्या काम-रघुपति राघव राजाराम।

बापू की शहादत के बाद इस देश ने बहुत से उतार-चढ़ाव देखे। नेता और नैतिकता को पाताल की गहराई में उतरते देखा और महँगाई को आसमान की ऊँचाई छूते देखा। बापू ने गरीबों की भलाई के लिए अपने कपड़ों का त्याग कर दिया। आज महँगाई ने उनके कपड़े ही उतार डाले। लाखो गरीब अपना जीवननिर्वाह बीस रुपये में कर रहे हैं। बापू ऐसे में आप क्या करते? आज बापू का चश्मा गायब हुआ। अगर बापू की बकरी होती तो उसे भी लोग मार डालते। और मारने के बाद उसके चमड़े को ढोल बजाते- ढम, ढम, ढम। मुझे लगता है इस कमर तोड़ महँगाई और भूख ने ही बापू का चश्मा चुराया होगा। वरना आम आदमी वह मामूली दो सौ रुपये का चश्मा लेकर क्या करेगा? काश इस देश के घोटालेबाज पूंजीपति-अधिकारी-मंत्री-नौकरशाह और नेता यह समझ पाते!

मुझे राजेन्द्र नेमा ‘क्षितिज’ की पंक्तियाँ प्रासंगिक लगती हैं-
वो ज़रूरत बहुत बड़ी होगी,
जो उसूलों से लड़ पड़ी होगी,
चोरी भूखे ने कर ली मंदिर में,
भूख, भगवान से बड़ी होगी!

 

3 thoughts on “बापू का चश्मा

  • अंशु प्रधान

    तीखा व्यंग्य

  • विजय कुमार सिंघल

    करारा व्यंग्य ! गाँधी के नाम को भुनाने वालों पर अच्छी चुटकी ली है आपने.

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    हा हा , खूबसूरत विअंघ .

Comments are closed.