विविध

बच्चों का खेल नहीं है बाल साहित्य

‘बाल साहित्य कैसा हो?’ यह प्रश्न आज भी नया है। यह प्रश्न बीते कल तक भी नया-सा था। बाल साहित्य कैसा होना चाहिए? यह प्रश्न आने वाले समय में भी नया ही रहेगा। इस प्रश्न का उत्तर न तो कल एक था, न ही आज है। दरअसल यह  प्रश्न  विविध उत्तर की मांग करता है। कारण सीधा-सा है। कल के बच्चों का समय अलग था। आज के बच्चों का समय अलग है। आने वाले कल के बच्चों का समय तो और भी विषिश्ट होगा। पहले एक पीढ़ी का बदलाव काफी अंतराल का हुआ करता था। फिर माना गया कि दस साल बाद के बच्चों को दूसरी पीढ़ी का माना जाए। आज यह कहा जाए कि पाँच साल में दूसरी पीढ़ी बदल जाती है, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। यह सब दुनिया में आ रहे बदलाव और बदलती जीवन शैली का भी परिणाम है।

जाहिर है कि विषम स्थिति और परिस्थिति में कोई भी सार्वभौमिक नहीं हो सकता। फिर बाल मन तो बेहद चंचल होता है। बेहद तीव्रता से बदलाव, नयापन और अनोखापन चाहता है। बीते समय में तो न साधन थे न सुविधाएँ। बाल मन को बहलाने के अवसर भी सीमित थे। लेकिन आज तो साधन भी हैं और सुविधाएँ भी हैं। आज बाल मन को बहलाने के लिए और भी काल्पनिकता, रचनात्मकता, नवीनता, रोचकता, विविधता चाहिए। साथ ही धैर्य भी और बाल मनोविज्ञान की जानकारी भी।
आज बाल साहित्य और भी मुष्किल मांग करता है। किसी भी क्षेत्र के पत्र हों या पत्रिकाएँ। सभी विविधता से परिपूर्ण हैं, लेकिन बाल मन को स्थान देने वाले पत्र और पत्रिकाओं को अंगुलियों में गिना जा सकता है। कोई भी युग हो या क्षेत्र। देश क्या और विदेश क्या। बालमन की दृष्टि में आशातीत व्यापकता ही आई है। हर नई पीढ़ी पिछली पीढ़ी से दो कदम आगे जाने का हौसला लेकर बढ़ी होती है। यह सार्वभौमिक सत्य है। आज जो नया है कल पुराना हो जाएगा। आज जो पूरा है, उसे कल अधूरा माना जाएगा। कल जिसे स्वर्णिम समझा गया, आज उससे अधिक सुनहरा और उजला प्रस्तुत है। कल क्या पता अनंत का भी अंत घोषित कर दिया जाए तो कोई हैरत की बात नहीं मानी जाएगी।

बाल साहित्य का समग्र मूल्यांकन भी इस दृष्टि से संभव नहीं है। कौन सा बेहतर है, श्रेष्ठ है और सौ फीसदी स्वीकार्य है। यह कहना तो संभव ही नहीं है। बाल मनोभावों की विविधता इतनी है कि कोई भी साहित्य समग्रता से आनंददायी और पसंदीदा नहीं हो सकता। यह आवश्यक नहीं कि पहाड़ से संबंधित साहित्य हर क्षेत्र के बच्चे को पसंद ही आएगा। यह जरूरी नहीं कि परी आधारित या फंतासी रचना हर बच्चे को पसंद आएगी। कारण हर बच्चे की कल्पना की थाह नहीं पाई जा सकती। हाँ यह भी सही है कि वह रचना ज्यादा सशक्त मानी जाती है जिसे आँचलिक बच्चे ही नहीं प्रदेश-देश-विदेश के बच्चे भी पसंद करें। बाल साहित्य में हमारे प्राचीन ग्रन्थ ही नहीं विदेशी साहित्य भी अनमोल भूमिका आज तक निभाते आ रहे हैं। ऐसा बाल साहित्य जिसने भाषा और देश की सरहद को भी अड़चन नहीं माना। वह सराहनीय तो रहेंगे ही। एक चर्चा यह भी महत्वपूर्ण है कि यह कहना कि बच्चे पढ़ ही नहीं रहे हैं। यह गलत है। यह वह कह रहे हैं, जो खुद बाल साहित्य से दूर हैं। जिनका बच्चों से सीधा संवाद नहीं है। यह जरूर है कि बहुत से बच्चों को अवसर ही नहीं दिये जा रहे हैं। लेकिन जहां अवसर हैं, जहां संसाधन हैं, वहां बच्चे पढ़ भी रहे हैं और क्षमतानुसार अपनी बात पत्र-पत्रिकाओं में पहुंचा भी रहे हैं।

बाल साहित्य पर चर्चा हो और यह प्रश्न न उठे कि बाल साहित्य अलग से क्यों लिखा जाए? संभव नहीं है। आज भी अधिकतर शिक्षक, माता-पिता, अभिभावक भी यह मानते हैं कि बच्चे चित्रकारी कर लें, कुछ कविताएं गुनगुना लें। बड़ों से कहानियां सुन लें, यही बहुत है। इसके अलावा बच्चे तो बस और बस पढ़ाई करें। ऐसे में पाठक क्या और समाज का बड़ा हिस्सा क्या। ये भी मान सकता है कि बच्चों का साहित्य से क्या लेना-देना। जब बच्चे बड़े हो जाएंगे तो खुद-ब-खुद ही साहित्य के संपर्क में आ जाएंगे। आज जो किताबों का और पत्र-पत्रिकाओं का कम होना या कम पढ़ा जाना चर्चा में है, उसके मूल कारणों में एक कारण यह भी है कि जब बचपन में ही साहित्य के पढ़ने की आदत नहीं डली तो भला, बड़ा होकर खाक पड़ेगी। एक तो यह कारण भी मुख्य है कि बच्चों को साहित्य से दूर न रखा जाए। दूसरा बाल मन बेहद चंचल होता है। नटखट होता है। उल्लास, मस्ती, चुलबुलापन, सीखने की तीव्र ललक, हर बार कुछ नया करने का मन, तितली की तरह मन का चलायमान आदि-आदि। कई मूलगत स्वभाव हैं जो हम बड़ों में नहीं होते। यह भी प्रमुख कारण है कि बाल मन के अनुरूप ही बाल साहित्य हो। आज भी एक बड़ा वर्ग बच्चों को पुरानी मान्यताओं के आधार पर ही देखता है। मसलन-‘बच्चा तो मिट्टी का लोंदा है।’ ‘बच्चा कच्चा घड़ा है।’ ‘बच्चा कोरी स्लेट है।’ ‘बच्चा कोरा कागज है।’

ये सारी मान्यताएं आज के संदर्भ में निराधार हैं। बच्चे को कोरा मान लेना ही सबसे बड़ी भूल है। बच्चा तो बच्चा होता है। लेकिन उसका अपना वजूद होता है। यह मान लेना कि उसे जैसा ढालेंगे, वो ढल जाएगा। संभव नहीं है। यदि ऐसा होता तो हर माँ का हर बेटा ‘महात्मा गांधी’, ‘टैगोर’ या और भी अंगुली में गिने जाने वाले व्यक्तित्व के क्यों नहीं हो जाते। यह मान लेना कि बच्चे को जो सिखाया जाता है, वो वही सीखता है। तो राजा का बेटा राजा ही बनता। ईमानदार माता-पिता का बच्चा आतंकवादी न बनता। कई शोध साबित करते हैं कि बच्चे को जबरन कुछ नहीं सिखाया जा सकता। बच्चे खुद भी अपने वय वर्ग में और इस समाज से स्वतः ही बहुत कुछ सीखते हैं। वह वो सब भी सीख लेते हैं जो हम बड़े उन्हें नहीं सीखने देना चाहते। यह भी कि बच्चा वह भी सीख ही लेता है जो हम उसे नहीं सिखाते।

अब एक प्रश्न यह भी उठता है कि यदि ऐसा ही है तो बाल साहित्य बच्चे के लिए लिखा ही क्यों जाए? जब हम उसे जो कुछ भी सिखाना चाहते हैं, वो वह सब नहीं सीखता तो बाल साहित्य के बहाने भी हम बच्चों को कुछ सिखाने की कोशिश तो नहीं कर रहे? नहीं। आज ऐसा साहित्य उसे देने की आवश्यकता नहीं है कि वह उसे पढ़े और उसे उपदेशात्मक लगे। वह पढ़े और उसे ऐसा लगे कि उसे भी ऐसा ही करना है। वह भी ऐसा ही करे। ऐसा ही बने। सीखपरक और संदेशात्मक साहित्य से अच्छा है हम उसे सही-गलत, सच-झूठ, अच्छा-बुरा, यथार्थ-मिथक की समझ विकसित करने वाला साहित्य दें। अप्रत्यक्ष रूप से घटनाओं-पात्रों के माध्यम से हम साहित्य दें, उसे अपने ढंग से उसका विष्लेशण करने दें।

‘तुम भी ऐसे बन जाओ।’ ‘अच्छे बच्चे जल्दी उठते।’ से अच्छा है कि बचपन में लोग कैसे-कैसे थे और क्या से क्या बन गए। यह बताया जाए। जल्दी उठने से क्या लाभ होते हैं और देर से उठने वाले क्या-क्या खो देते हैं? यह बताया जाए। बच्चा अपने आप को तथ्यों के साथ, स्थितियों के साथ जोड़ लेगा। आज भी ऐसी कथाओं व कविताओं की भरमार है, जो बच्चांे को आज्ञात्मक शैली में सीख देने की कोशिश करती हैं। सारे नैतिक वचन और उपदेश से लेकर संदेश और दिशा-निर्देश बच्चांे को ठूंस-ठूंस कर देने की परम्परा छूटी नहीं। क्या बच्चों को हम बोलना सिखाते हैं? चलना सिखाते हैं? नहीं। हम बच्चों को बोलने और चलने में सहायक बनते हैं। बोलना-चलना-खाना उसकी खुद की कोशिश से ही आता है।

इसी तरह पढ़ाई-लिखाई का मसला है। हम सुगमकर्ता होते हैं। सुविधा जुटाते हैं। सहयोग करते हैं। बाकी तो बच्चा अपने आप सीखता है। उसकी लगन, ध्येय, ललक और सीखने की इच्छा ही उसे मदद करती है। यही बाल साहित्य में होना चाहिए। हम अपने तजुर्बों से समझ से बच्चे के सामने कथा-कहानी रखें। न कि निष्कर्ष भी स्वयं दें। कथा-कहानी-कविता उद्देश्य के साथ समाप्त तो होगी ही। लेकिन ठूंस कर -जानबूझकर अपनी और से रखा जाने वाला निष्कर्ष सभी को कभी भी ग्राह्य नहीं होगा। यह तय है।

हर बच्चा अपने स्कूल के पहले दिन अपने साथ औसतन पांच हजार शब्द और उनके अपने अनुभव से समझे गए अर्थ लेकर जाता है। वह कोरा नहीं होता। उसकी अपनी भाषा में आम बोलचाल के अधिकतर शब्दों और वाक्यों की ठीक-ठाक समझ होती है। वह अपनी दुनिया को अपने नजरिए से देखना-समझना जानता है। फिर स्कूल वह किसलिए भेजा जा रहा है? स्कूल में सबसे पहले तो वह अपनी बात को लिखना सीख सके। दूसरा दूसरों की लिखी हुई बातों को पढ़ सके। पढ़ना-लिखना आ जाने से वे किताबों की दुनिया से और अधिक इस दुनिया को और दुनियादारी को समझ ले। बस। यहीं से बाल साहित्य का काम शुरू होता है। बाल साहित्य वह सब कुछ दे सकता है, जो बच्चों को किताबों में नहीं मिल रहा। अपने आस-पास नहीं मिल रहा। अपने आस-पास की गहनता से जानकारी भी बाल साहित्य दे सकता है।

बाल साहित्य का धर्म बेहद बड़ा है। बाल साहित्य बहुत कुछ कर सकता है। इतना तो कर ही सकता है कि बच्चा जितना कुछ अपने अनुभव से जानता है। उसकी पड़ताल कराये। बच्चे ने समाज में, स्कूल में, सहपाठियों से, घर से जो कुछ भी सीखा है, सुना है, जाना है और परखा है, उसे प्रचलित मूल्यों की कसौटी पर कस कर राह दिखाये। चलना तो बच्चे को ही है। राह दिखाना और अंगुली पकड़कर चलाते रहना में अंतर है। बांये चलो। बस चलो। अरे! क्यों चलो। ये तो बताना चाहिए न। ठीक इसी तरह बाल साहित्य में यह ध्यान दिया जाना बेहद जरूरी है कि कोई रास्ता कहां जाता है, इस पर इंगित कर दिया जाये। चलना तो राहगीर को है। रास्ते पर चलते वक्त क्या-क्या मुश्किलें आएंगी ये तो राहगीर जब चलेगा, तब न पता चलेगा। बाल साहित्य मंजिल तक पहुंचाने का माध्यम नहीं हो सकता। वह तो मंजिल का रास्ता बताने का धर्म निभाए। कबीर तो कभी स्कूल नहीं गए। लेकिन दुनियादारी की समझ क्या उनके बालमन से नहीं शुरू हुई होगी?

बाल साहित्य आज ही लिखा जा रहा हो। ऐसा नहीं है। हम सब जानते हैं कि बाल साहित्य तो लेखन कला के विकसित होने से पहले भी था। यही नहीं जब मानव की भाषा समृद्ध नहीं थी,तब भी बाल साहित्य था। हां वह संकेतों में, अनुभव में, वाचिक परंपरा के रूप में ही था। लेकिन तब बाल साहित्य मूल्यों पर आधारित था। सीख पर आधारित था। संदेशपरक भी था। यहां यह कहने का आशय नहीं हैं कि साहित्य मूल्य न दे। लेकिन मूल्य थोपे न जाएं। साहित्य इस तरह से मूल्यों को प्रतिस्थापित करे कि पाठक मूल्यों को तरजीह दे। लेकिन हम ये कहें की झूठ बोलना पाप है। सदा सत्य बोलो। तो बाल मन अपने चारों ओर देखता ही है कि झूठा बोलने से कोई पाप कहां लगता है। हमेशा सत्य कहां बोला जाता है। हां हम झूठ और झूठ बोलने वाले को महिमामंडित न करें और आचरण और सत्य को सम्मानित बनाएं तो चलेगा।

साहित्य समाज का दर्पण होता हैं। ठीक बात है। लेकिन समाज में आज अनाचार, पाप, अपराध बढ़ रहा है। भ्रष्टाचार को मानो हर किसी ने आत्मसात कर लिया है। तो क्या साहित्य भी इसे आत्मसात करना जैसा दिखाये। इस स्थापति करे? नहीं। कदापि नहीं। लेकिन यह कहना भी उचित होगा कि समाज में जो असल में हो रहा है उसे छिपाना भी साहित्य का काम नहीं है। उसे दिखाया जाए। लेकिन किस रूप में उसका बालमन पर क्या प्रभाव पड़ेगा। ये महत्वपूर्ण है। नकारात्मक से सकारात्मक की ओर ले जाना ही सबसे बड़ी चुनौती है।

ये ओर बात है कि आज बाल साहित्य से अपेक्षा की जा रही है कि वह यथार्थ से भी परिचय कराये। यह ठीक भी है। मानव समाज जैसे-जैसे विकसित होता जा रहा है, वैसे ही बाल मन की थाह पाना जटिल होता जा रहा है। हर नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी से और आगे जाने का हौसला लेकर पलती-बढ़ती है। यह सही है। लेकिन पुरानी पीढ़ी का अनुभव नई पीढ़ी के लिए प्रकाश पुंज का काम तो करता ही है।

हर समाज में पीढ़ी-दर-पीढ़ी साहित्य का वाचिक हस्तांतरण होता रहा है। फिर मुद्रण कला के विकसित होने के बाद तो छपाई का महत्व बढ़ गया। आज सूचना तकनीक ने इस हस्तांतरण को और सरल कर दिया है। आज बाल साहित्य को उन छोटी-छोटी बातों में मशक्कत करने की जरूरत नहीं है जो पिछले तीन-चार दशक पूर्व के साहित्य ने की है। आज बच्चा चाहे ग्रामीण पृष्ठभूमि में ही पल-बढ़ रहा हो। समाज में व्याप्त सूचना और ज्ञान के विस्फोट से वो भी अछूता नहीं है। यह सूचना और ज्ञान हवा में तो है नहीं। कहीं न कहीं उसका वजूद है। ये तो तय है कि ये कहा जाना कि बाल साहित्य नहीं लिखा जा रहा है। गलत होगा।

बाल साहित्य स्तरहीन हो गया है। यह कहना भी गलत है। ये ओर बात है कि बहुत कुछ ऐसा है जो बालोपयोगी नहीं है। ठूंसे जाने जैसा है। बच्चों के लिए कुछ लिखना है ये सोच कर लिखा गया है। लेकिन ऐसा बाल साहित्य भी है जो अद्भुत है। यहां किसी पुस्तक और किसी बाल साहित्यकार का नाम देना ठीक भी नहीं है और तर्क संगत भी नहीं है। जैसा पहले कहा गया है कि कम से कम बाल साहित्य में कोई कविता-कहानी या अन्य विधा सभी को भा ही जाए, संभव ही नहीं है। लेकिन यह तो तय है कि बहुत कुछ सार्थक भी लिखा जा रहा है। बाल मनोविज्ञान को ध्यान में रखते हुए लिखा जा रहा है। बाल मन की मुश्किलों को ध्यान में रखकर लिखा जा रहा है। बाल मन बड़े से बड़े मुद्दों को सहजता से भी लेता है और बड़े भोलेपन से उसका विश्लेषण कर अपना मन बनाता है। यह रेखांकित करती हुई कई कहानियां और कविताएं आए दिन पढ़ने को मिलती है।

इन दिनों कहा जा रहा है कि फंतासी का जमाना गया। परी कथाओं, पशु-पक्षिओं और राजा-रानी की कथाओं के दिन गए। यह कहना ठीक नहीं है। हम चांद पर पहुंच जाएं, लेकिन मूल रूप से धरतीवासी ही कहलाए जाएंगे। आखिर क्यों हम अपनी पुराने संदर्भों को नए रूप में लिख नहीं सकते। राजा-रानी के पात्रों के माध्यम से हम बाल साहित्य में दूरदर्शिता, न्याय, शिक्षा, समानता, समभाव के भाव रेखांकित क्यों नहीं कर सकते हैं। हम परी रानी के माध्यम से सकारात्मक मुद्दे भी तो बाल साहित्य में शामिल कर सकते हैं। यह किसने कहा कि हमा सांता क्लाज और परियों से जादू-टोना और बिना मेहनत के मिलने वाले उपहार सरीखी सी ही कहानियां बच्चों को दिलाते रहें। पशु-पक्षियों के माध्यम से आज भी नैतिक मूल्यों को आसानी से दर्शाया जा सकता है। नैतिक मूल्यों को एक सिरे से खारिज करना भी तर्कसंगत है ही नहीं।

काल्पनिकता और यथार्थ के मध्य सामंजस्य बनाना आज की मांग है। कितनी आसानी से कहा जा रहा है कि चंदामामा, बादल, तितली, परी के दिन गए। क्यों चले जाएंगे भई। हां उनमें नयापन आए। नई स्थितियां आए। नया परिवेश, नए हालात लेकर बढ़ रही दुष्वारियों को लेकर सांताक्लाज आता है तो आए। क्या फर्क पड़ता है। बच्चों की काल्पनिक दुनिया में नन्हें से जीव का वजूद बड़े के सामने बड़ा करके दिखाया जा रहा है तो उद्देश्य बड़े को छोटा बताना नहीं है। छोटे को सम्मानजनक स्थान दिलाना है। हां झूठ को स्थापित करना और असामाजिकता को बढ़ावा देना और बुराइयों का हिंसा का अधिकाधिक प्रयोग से बचा जाना भी जरूरी होगा।

बस ध्यान तो यही रखना है कि बालमन के किसी भी कोने में वह सब अमिट रूप से स्थापित न हो जो समाज के लिए, बड़ो-बूढ़ो के लिए, इस धरती के लिए, मानवता के लिए क्या सम्पूर्ण सजीव के लिए घातक हो।

-मनोहर चमोली ‘मनु’

मनोहर चमोली 'मनु'

मनोहर चमोली ‘मनु’ पौड़ी गढ़वाल में रहते हैं। अनेक पत्र-पत्रिकाआंे में कहानी, कविता, नाटक और व्यंग्य प्रकाशित। प्रमुख कृतियाँ -‘हास्य-व्यंग्य कथाएं’, ‘उत्तराखण्ड की लोक कथाएं’, ‘किलकारी’, ‘यमलोक का यात्री’, ‘ऐसे बदला खानपुर’, ‘बदल गया मालवा’, ‘बिगड़ी बात बनी’, ‘खुशी’, ‘अब बजाओ ताली,’ ‘बोडा की बातें’, ‘सवाल दस रुपए का’, ‘ऐसे बदली नाक की नथ’ और ‘पूछेरी’। बाल कहानियों का एक संग्रह ‘व्यवहारज्ञान’ मराठी में अनुदित। उत्तराखण्ड विद्यालयी शिक्षा में कक्षा 5 के बच्चे ‘हंसी-खुशी’ पाठ्य पुस्तक में इनकी कहानी ‘फूलों वाले बाबा’ पढ़ रहे हैं। विद्यालयी शिक्षा, उत्तराखण्ड की शिक्षक संदर्शिकाओं और पाठ्य पुस्तकों ‘भाषा रश्मि’, ‘बुरांश’ और ‘हंसी-खुशी’ में लेखन और संपादन भी किया। कहानी सुनना और सुनाना इनका शौक है। घूमने के शौकीन। पैदाइश उत्तराखण्ड के जनपद टिहरी के गाँव पलाम की है। पहले पत्रकारिता की फिर वकालत। फिलहाल बच्चों को पढ़ाते हैं। बच्चों के साथ अधिक समय बिताते हैं। पिछले एक दशक से बच्चों के लिए लिखते हैं। भितांई, पोस्ट बाॅक्स-23,पौड़ी,पौड़ी गढ़वाल। पिन-246001.उत्तराखण्ड. मोबाइल-09412158688.

6 thoughts on “बच्चों का खेल नहीं है बाल साहित्य

  • विजय कुमार सिंघल

    आपने बाल साहित्य पर बहुत अच्छा लेख लिखा है. लेकिन इसमें प्रूफ कि अशुद्धियाँ बहुत हैं. ‘श’ और ‘ष’ के बीच घालमेल हो गया है. किसी पाठ्य को यूनिकोड में बदलने से पहले उसे कृति देव 010 में ठीक कर लेना चाहिए. फिर यूनिकोड में बदलना चाहिए. इससे अशुद्धियाँ ख़त्म हो जाएगी.

    • मनोहर चमोली 'मनु'

      ji shukriya.

  • मनोहर चमोली 'मनु'

    ji shukriya aapka.

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    लेख अच्छा लगा .

    • मनोहर चमोली 'मनु'

      ji shukriya

    • मनोहर चमोली 'मनु'

      thanks..ji shukriya

Comments are closed.