आत्मकथा

आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 4)

फैक्टरी होने के कारण एच.ए.एल. में शिफ्टों में काम होता है। वैसे सभी प्रशासनिक कार्यालय केवल एक शिफ्ट में चलते हैं, जिसे जनरल शिफ्ट या जी शिफ्ट कहा जाता है। हमारा सेक्शन भी मुख्य रूप से जनरल शिफ्ट में ही चलता था, जिसका समय प्रातः 8 बजे से 4.30 बजे तक था। बीच में दोपहर 12.30 बजे से 1 बजे तक भोजन अवकाश होता था।

जिन विभागों में उत्पादन कार्य होता था, वहाँ आवश्यकता के अनुसार 2 या 3 शिफ्ट चलती थीं। इनके नाम थे ए, बी तथा सी शिफ्ट। ए शिफ्ट का समय प्रातः 6 बजे से दोपहर 2.30 बजे तक, बी शिफ्ट का दोपहर 2.30 से रात्रि 10.30 बजे तक और सी शिफ्ट का समय रात्रि 10.30 से प्रातः 6 बजे तक था। इन सभी शिफ्टों में कार्य करने वालों के लिए भोजन का अलग-अलग समय निर्धारित था तथा उनके लिए 2 बार चाय भी आती थी।

हमारे कम्प्यूटर सेक्शन में आॅपरेटरों की संख्या अधिक होने तथा डाटा प्रविष्टि मशीनों की संख्या कम होने के कारण 2 शिफ्टों में कार्य होता था। इसलिए आधे आॅपरेटरों को ए शिफ्ट में तथा शेष को बी शिफ्ट में बुलाया जाता था। महिलाओं को केवल जी शिफ्ट में बुलाया जाता था। इसी प्रकार अधिकारियों को भी आवश्यकता के अनुसार ए या बी शिफ्ट में बुला लिया जाता था, हालांकि अधिकांश अधिकारी जी शिफ्ट में आते थे। प्रारम्भ में जब कम्प्यूटर नया था और उसे एक माह तक बिना रुके चलाना था, तो दो-तीन आॅपरेटर तथा अधिकारी सी शिफ्ट में भी बुलाये जाते थे। मैंने भी कई बार सी शिफ्ट में कार्य किया था। सी शिफ्ट वाले अधिकारियों को रात्रि ड्यूटी के 5 रु. प्रतिदिन अधिक मिलते थे। यदि कभी किसी अधिकारी को उसकी शिफ्ट के बाद भी रोका जाता था, तो उन्हें एक दिन की अतिरिक्त छुट्टी दी जाती थी। मैंने ऐसी छुट्टी कई बार ली थी।

एच.ए.एल. में, जैसा कि होना ही चाहिए, सुरक्षा का कड़ा प्रबंध था। फैक्टरी के दोनों गेटों और कालोनी के सभी गेटों पर सुरक्षा कर्मियों का पहरा रहता था, जिसके कारण फालतू आदमी अन्दर नहीं आ पाते थे। फैक्टरी के दोनों गेटों पर ही नहीं बीच के कई गेटों पर भी सुरक्षा कर्मी खड़े रहते थे और आने-जाने वालों पर नजर रखते थे। उस समय एच.ए.एल. में कोई वर्दी तय नहीं थी, इसलिए सबको आते-जाते समय अपना बिल्ला (बैज) लगाकर रखना होता था। अगर बैज नहीं होता था, तो सुरक्षाकर्मी देखने के लिए माँग सकते थे। वैसे दो-चार महीने में ही अधिकांश सुरक्षाकर्मी मुझे जानने लगे थे, इसलिए बैज माँगने के बजाय नमस्ते करते थे।

दूसरी बात, वहाँ गेटों से अन्दर आने और बाहर जाने के समय शिफ्ट के अनुसार निर्धारित होते थे। उस समय के अलावा आने-जाने पर गेट पर रजिस्टर में लिखना पड़ता था। परन्तु हम कम्प्यूटर वालों को इससे प्रायः छूट रहती थी, क्योंकि हम यह कह देते थे कि हमें विशेष काम के लिए बुलाया गया है। अधिकांश कर्मचारी डिस्पेंसरी जाने के बहाने फैक्टरी से बाहर निकल जाते थे और दो-दो घंटे बाद लौटते थे।

एच.ए.एल. में अधिकारियों और कर्मचारियों में भेदभाव बहुत किया जाता था। दोनों के अन्दर जाने के गेट भी अलग-अलग होते थे। ऐसा शायद अधिकारियों को भीड़भाड़ से बचाने के लिए होता था, क्योंकि जब कोई शिफ्ट खत्म होती थी, तो एक साथ हजारों कर्मचारियों की भीड़ बाहर निकलती थी। लेकिन महिला कर्मचारियों को अधिकारियों के गेट से आने-जाने की इजाजत थी।

वैसे एच.ए.एल. में अधिकारियों की सुविधाओं का बहुत ध्यान रखा जाता था। वहाँ एक अच्छी कैंटीन थी, जिसमें मात्र 1 रु. 30 पैसे में एक थाली भोजन मिलता था। हालांकि भोजन की गुणवत्ता बहुत अच्छी नहीं होती थी, फिर भी बाजार के खाने से तो अच्छी ही होती थी। प्रारम्भ में मैं रोज दोपहर का भोजन वहीं करता था। वहाँ बाकी सब तो ठीक था, परन्तु रोटियाँ तन्दूर में पकाई जाती थीं, जिससे कुछ भारी हो जाती थीं। लगभग 2-3 महीने तक ऐसा भोजन करते रहने से मेरा पेट खराब रहने लगा था, जिससे बाध्य होकर मैंने अपना भोजन स्वयं बनाना प्रारम्भ कर दिया। वैसे कभी-कभी मैं कैंटीन में खा लेता था।

भोजन के अतिरिक्त वहाँ हर विभाग में दिन में 5-6 बार निर्धारित समय पर चाय भी आती थी। चाय का मूल्य था मात्र 12 पैसे। इनके साथ कभी समोसा, कभी पापड़ी, कभी पकौड़े, कभी कोफ्ता, कभी बड़े आदि स्नैक आया करते थे। इनमें से प्रत्येक की कीमत थी मात्र 10 पैसे। ये सभी चीजें कूपन देने पर मिलती थीं। कूपन कैंटीन के काउंटर से खरीदे जा सकते थे। बताने की आवश्यकता नहीं कि सब लोग इसका पूरा फायदा उठाते थे। कई बार हम मात्र चाय-समोसे पर दिन भर कार्य करते रहते थे। वैसे स्पेशल चाय कैंटीन से कभी भी मँगवायी जा सकती थी, जिसका मूल्य था मात्र 25 पैसे।

इनके अलावा एच.ए.एल. में कई अन्य सुविधाएँ भी थीं, जैसे आॅफिसर्स क्लब, जहाँ पुस्तकालय, स्विमिंग पूल आदि सुविधाएँ मामूली शुल्क पर उपलब्ध थीं। एक बार मैंने उस स्विमिंग पूल में तैराकी भी सीखी थी। मैं करीब 10-15 दिन गया था। इतने समय में मैं इतना सीख गया था कि खुद को पानी के ऊपर रख सकता था और थोड़ी दूर तक तैर भी सकता था। एक दिन जब मैं तैरने के लिए कूदा, तो मुझे अचानक चक्कर आ गया और मुझे लगा कि मैं डूब जाऊँगा। लेकिन फिर मैं हिम्मत करके सँभल गया और बाहर निकल आया। उसके बाद मम्मी ने मुझे तैरने के लिए नहीं जाने दिया। वैसे आजकल मैं इतनी तैराकी जनता हूँ कि पानी के ऊपर रहकर अपनी जान बचा सकता हूँ और थोडा बहुत तैर भी सकता हूँ।

वहाँ हर साल दीपावली और नये वर्ष पर आतिशबाजी होती थी, होली पर ठंडाई वगैरह का कार्यक्रम होता था। ऐसी ही सुविधाएँ कर्मचारियों के क्लब में भी थीं। वहाँ हर साल रामलीला भी खेली जाती थी और दशहरे वाले दिन रावण का पुतला जलाया जाता था। ऐसे कार्यक्रमों में आम जनता भारी संख्या में भाग लेती थी।

एच.ए.एल. में एक डिस्पेंसरी भी थी, जहाँ अनेक विशेषज्ञ डाक्टर थे और सारी दवाएँ मुफ्त मिलती थीं। कई लोग इस सुविधा का मनमाना फायदा उठाते थे और ढेर सारी दवाएँ लिखवाकर ले लेते थे। फिर उन्हें बाजार में बेच देते थे।

एच.ए.एल. में कर्मचारियों, छोटे अधिकारियों और बड़े अधिकारियों के लिए अलग-अलग क्वार्टर बने हुए हैं। अधिकांश अधिकारियों को वहीं मकान मिल जाता है। शेष बाहर रहते हैं। मुझे भी वहाँ मकान मिल सकता था, कोशिश करने पर मैं अपने बीमारी के आधार पर सरलता से क्वार्टर ले सकता था, परन्तु मैंने नहीं लिया। क्यों नहीं लिया, यह आगे बताऊँगा।

एच.ए.एल. में जब मैं पहली बार इंटरव्यू देने गया था, तब वहाँ के स्कूटर स्टैंड पर हजारों स्कूटर देखकर आश्चर्य में पड़ गया था। मैंने समझा था कि आज यहाँ कोई मीटिंग है। परन्तु बाद में पता चला कि यहाँ अधिकारियों की बड़ी संख्या के कारण ऐसा दृश्य रोज ही दिखाई देता है। उस समय वहाँ लगभग 1500 अधिकारी और 5000 कर्मचारी कार्य करते थे। वहाँ नीति के तौर पर एक तिहाई कर्मचारी और अधिकारी हमेशा अतिरिक्त रखे जाते हैं, ताकि युद्ध के समय आवश्यकता होने पर पुर्जों का उत्पादन तुरन्त बढ़ाया जा सके। ज्यादातर लोगों के पास वहाँ पर्याप्त काम नहीं था।

कुल मिलाकर एच.ए.एल. का वातावरण ऐसा था कि कोई भी व्यक्ति पूरे संतोष के साथ वहाँ जीवनभर सेवा करता हुआ आनन्द से रह सकता है। वास्तव में अधिकांश कर्मचारी और अधिकारी वहाँ पर सेवा प्रारम्भ करते हैं और धीरे-धीरे प्रोमोशन पाते हुए वहीं से रिटायर हो जाते हैं। वहाँ स्थानांतरण आदि बहुत कम होते हैं।

लेकिन यह बात नहीं है कि एच.ए.एल. में समस्याएँ नहीं थीं। वहाँ सबसे बड़ी समस्या तो कम वेतन की थी। अधिकारियों के वेतन में ग्रेड के अनुसार बहुत कम अन्तर होता था और सरकारी कर्मचारियों की तुलना में वेतन कम था, क्योंकि वहाँ उस समय निश्चित महँगाई भत्ता मिलता था। अब तो वहाँ भी बैंक वालों के बराबर महँगाई भत्ता मिलता है और एक प्रकार से उनका वेतन बैंक वालों से भी अधिक हो गया है।

दूसरी बात उसका कार्य का समय बड़ा विचित्र था। हमें प्रातः 8 बजे पहुँचना होता था, जिससे हम लोग फुरसत से नाश्ता भी नहीं कर पाते थे और प्रायः बिना नाश्ता किये ही भागते थे। वैसे बार-बार आने वाली चाय-समोसा या पकौड़ों से नाश्ता हो जाता था। वहाँ कार्य का कुल समय साढ़े आठ घंटे था, जो बहुत ज्यादा था और पर्याप्त काम न होने पर लोग बैठे-बैठे बोर हो जाते थे।

(जारी…)

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: jayvijaymail@gmail.com, प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- vijayks@rediffmail.com, vijaysinghal27@gmail.com

8 thoughts on “आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 4)

    • विजय कुमार सिंघल

      यह सही है, किशोर जी. एचएएल में बहुत से कर्मचारियों को अधिकारीयों से अधिक वेतन मिलता था और इंसेंटिव योजना में भी वे अतिरिक्त कमाई कर लेते थे. अधिकारियों के वेतन में ग्रेड की तुलना में बहुत कम अंतर था. अब यह स्थिति बदल गयी है, क्योंकि अब मूल वेतन के अनुसार मंहगाई भत्ता मिलता है.

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई , एच ए एल मुझे तो इस में काम कम लगा , हौलिडे कैम्प ज़िआदा लगा. अवश्य ही यह दिन अछे रहे होंगे.

    • विजय कुमार सिंघल

      यह बात नहीं है, भाई साहब। काम भी बहुत होता था। पर कर्मचारी बहुत संख्या में थे।

  • मोहन सेठी 'इंतज़ार', सिडनी

    लखनऊ की सैर भी हो गई…. मगर चाय समोसों की बात सुन कर मुहँ में पानी आ गया ! क्या मजे थे हाल में …..रोचक वर्णन

    • विजय कुमार सिंघल

      धन्यवाद, बंधु. सही कहा आपने. नाम मात्र के मूल्य के चाय समोसों का आनंद ही कुछ और होता था.

  • Man Mohan Kumar Arya

    आज की किश्त से नाना प्रकार की जानकारिया मिली। ऐसा ही कुछ हमारे सेवा काल के दिनों में भी घटा है। सारा विवरण जानकारी के साथ कुछ अपनी यादों को स्मृति पटल पर लाने वाला है। पूरा विवरण पढ़कर आनंद आया। लेख के लिए धन्यवाद।

    • विजय कुमार सिंघल

      आभार, मान्यवर !

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