कविता

धन्य घासें हो रही हैं…

 

आज आँचल पर्वतों का मानो जैसे खिल गया है
जंगलों को नया यौवन स्वतः जैसे मिल गया है

पुष्प सहसा महकते हैं, पंछी सहसा चहकते हैं
नदी का जल बहे कल कल, कहीं झरना बजे छल छल

दूर तक फैला है नभ भी जैसे खुलकर तन गया है
और धरती पर ये पतझड़ आज सावन बन गया है

पत्थरों में फूल मुझको नजर सहसा आ रहे हैं
गीत पंछी मधुर कोई आज जैसे गा रहे हैं

पत्तियां जो सो रही थीं एकदम से जागती हैं
रुकी सी जो पवन थी, चूम धरती भागती है

क्या हुआ है क्यों हुआ है देखते सब रह गए हैं
और जिनके नयन देखें अश्रु में वो बह गए हैं

उधर देखो मन वो दोनों युवकों का तेज कैसा
है दमकता दिव्य जो वो सैंकड़ों सूरज के जैसा

देखो जिनके मध्य दुर्गा स्वयं लक्ष्मी चल रही है
छवि उनकी ही है महि को जैसे माया छल रही है

धरा ये आनंद ले ले नित प्रफ्फुलित हो रही हैं
राम जी के चरण चूमें धन्य घासें हो रही हैं

— सौरभ कुमार दुबे

सौरभ कुमार दुबे

सह सम्पादक- जय विजय!!! मैं, स्वयं का परिचय कैसे दूँ? संसार में स्वयं को जान लेना ही जीवन की सबसे बड़ी क्रांति है, किन्तु भौतिक जगत में मुझे सौरभ कुमार दुबे के नाम से जाना जाता है, कवितायें लिखता हूँ, बचपन की खट्टी मीठी यादों के साथ शब्दों का सफ़र शुरू हुआ जो अबतक निरंतर जारी है, भावना के आँचल में संवेदना की ठंडी हवाओं के बीच शब्दों के पंखों को समेटे से कविता के घोसले में रहना मेरे लिए स्वार्गिक आनंद है, जय विजय पत्रिका वह घरौंदा है जिसने मुझ जैसे चूजे को एक आयाम दिया, लोगों से जुड़ने का, जीवन को और गहराई से समझने का, न केवल साहित्य बल्कि जीवन के हर पहलु पर अपार कोष है जय विजय पत्रिका! मैं एल एल बी का छात्र हूँ, वक्ता हूँ, वाद विवाद प्रतियोगिताओं में स्वयम को परख चुका हूँ, राजनीति विज्ञान की भी पढाई कर रहा हूँ, इसके अतिरिक्त योग पर शोध कर एक "सरल योग दिनचर्या" ई बुक का विमोचन करवा चुका हूँ, साथ ही साथ मेरा ई बुक कविता संग्रह "कांपते अक्षर" भी वर्ष २०१३ में आ चुका है! इसके अतिरिक्त एक शून्य हूँ, शून्य के ही ध्यान में लगा हुआ, रमा हुआ और जीवन के अनुभवों को शब्दों में समेटने का साहस करता मैं... सौरभ कुमार!

2 thoughts on “धन्य घासें हो रही हैं…

  • सुधीर मलिक

    अत्यन्त खूबसूरत रचना

  • विजय कुमार सिंघल

    रहस्यमयी कविता !

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