कविता

वंदना

अंबर सुनहरा लगे, शशि जहाँ ठहरा लगे,krishna

ऐसे मनभावन मेँ लगता न मन है।

झूमती हैँ झूलती हैँ झुकती हैँ फूलती हैँ,

पुष्प की बेलोँ को नित छू रही पवन है।।

और गंध माल की ये चली आयी ऐसे

जैसे कृष्ण पटल पर महके चंदन है।

ब्रजरसराज आज, तुमही सँवारो काज,

तुमको हमारा नित नित ही वंदन है।।

 

चेतना की धूरी से ये मन अंधकार जाए,

ऐसी आस लिए आए आपकी शरण हैँ।

सुंदर ये जग लगे, रस भरा मग लगे

ध्यान मेँ सदा ही नाथ आपके चरण हैँ।।

चंद्र चंद्रिका का जैसे, सूर्य किरणोँ का कैसे

करतेँ हैँ हरि नित सदा ही वरण हैँ।

माखन की चोरी जैसे करते हैँ छिप छिप,

ऐँसे ही किये है नाथ मन का हरण हैँ।।

 

___सौरभ कुमार 

 

सौरभ कुमार दुबे

सह सम्पादक- जय विजय!!! मैं, स्वयं का परिचय कैसे दूँ? संसार में स्वयं को जान लेना ही जीवन की सबसे बड़ी क्रांति है, किन्तु भौतिक जगत में मुझे सौरभ कुमार दुबे के नाम से जाना जाता है, कवितायें लिखता हूँ, बचपन की खट्टी मीठी यादों के साथ शब्दों का सफ़र शुरू हुआ जो अबतक निरंतर जारी है, भावना के आँचल में संवेदना की ठंडी हवाओं के बीच शब्दों के पंखों को समेटे से कविता के घोसले में रहना मेरे लिए स्वार्गिक आनंद है, जय विजय पत्रिका वह घरौंदा है जिसने मुझ जैसे चूजे को एक आयाम दिया, लोगों से जुड़ने का, जीवन को और गहराई से समझने का, न केवल साहित्य बल्कि जीवन के हर पहलु पर अपार कोष है जय विजय पत्रिका! मैं एल एल बी का छात्र हूँ, वक्ता हूँ, वाद विवाद प्रतियोगिताओं में स्वयम को परख चुका हूँ, राजनीति विज्ञान की भी पढाई कर रहा हूँ, इसके अतिरिक्त योग पर शोध कर एक "सरल योग दिनचर्या" ई बुक का विमोचन करवा चुका हूँ, साथ ही साथ मेरा ई बुक कविता संग्रह "कांपते अक्षर" भी वर्ष २०१३ में आ चुका है! इसके अतिरिक्त एक शून्य हूँ, शून्य के ही ध्यान में लगा हुआ, रमा हुआ और जीवन के अनुभवों को शब्दों में समेटने का साहस करता मैं... सौरभ कुमार!

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