आत्मकथा

आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 22)

28 दिसम्बर को समय पर मैं बैंक पहुँच गया और वहाँ उपप्रबंधक (ईडीपी) का कार्यभार ग्रहण कर लिया। मेरे पास एक दस्तावेज कम था, शायद प्रशंसापत्र या चरित्र प्रमाणपत्र। वह मैंने अगले दिन जमा कर दिया। मेरे साथ एक अन्य नये अधिकारी ने भी उसी पद पर कार्यभार ग्रहण किया था। वे थे श्री गया प्रसाद गौड़। उनसे मेरी अच्छी निभती थी। वे अनुसूचित जाति से सम्बंधित हैं, लेकिन उनका व्यवहार बहुत सौम्य और गरिमामय था।

जब मैंने इलाहाबाद बैंक में सेवा प्रारम्भ की थी, उस समय लखनऊ का मंडलीय कार्यालय राजनीति का अखाड़ा बना हुआ था। हमारे सहायक महा प्रबंधक थे श्री राधे रमण शर्मा। वे केवल अपने चमचे अधिकारियों से प्रसन्न रहते थे और एवार्ड स्टाफ अर्थात् लिपिकों का लगभग सारा वर्ग उन्हें घृणा की हद तक नापसन्द करता था। इसका कारण यह था कि वे अकारण ही कर्मचारियों का उत्पीड़न करते रहते थे और बैंक के नियमों के विरुद्ध दूर-दूर की शाखाओं में उनका मनमाना स्थानांतरण कर देते थे। इसके परिणामस्वरूप उन्हें प्रायः रोज ही कर्मचारी नेताओं के कोप का भाजन बनना पड़ता था तथा नारेबाजी व गाली-गलौज से दो-चार होना पड़ता था। कई अधिकारियों को उन्होंने अपनी कठपुतली बना रखा था और उनसे मनमाने आदेश जारी करा देते थे।

उस समय हमारे मुख्य प्रबंधक थे श्री मोहन चन्द्र जोशी। सहायक महा प्रबंधक के विपरीत वे बहुत सज्जन प्रकृति के थे और राजनीति से अलिप्त रहने का प्रयास करते थे। मेरी आदत क्योंकि किसी की मक्खनबाजी करने की नहीं है, इसलिए श्री राधे रमण शर्मा मुझसे प्रारम्भ से ही असंतुष्ट रहे। इसमें काफी बड़ा हाथ मेरे विभाग के एक अधिकारी श्री अरुण तलवार का था, जो मेरे बारे में उनसे न जाने क्या-क्या बोल आते थे। वास्तव में बैंकों के अधिकांश बड़े अधिकारी अपने से वरिष्ठों की चमचागीरी और चापलूसी करके ही ऊँचे पद पर पहुँचे होते हैं। इसलिए वे भी अपने कनिष्ठ अधिकारियों से चापलूसी की आशा और अपेक्षा करते हैं। जो अधिकारी ऐसा नहीं करते उनसे वे स्वाभाविक रूप से रुष्ट रहते हैं। श्री शर्मा इस श्रेणी के जीव थे।

उन दिनों बैंक में हमारे पास कोई विशेष कार्य नहीं था। कुछ तो इसलिए कि वहाँ कई कार्यों का कम्प्यूटरीकरण पहले ही हो चुका था और यह स्पष्ट नहीं था कि आगे किन-किन कार्यों का कम्प्यूटरीकरण किया जाएगा। दूसरे इसलिए भी कि मैं एच.ए.एल. में जिस कोबाॅल भाषा में कार्य करता था, उसका बैंक में कोई विशेष उपयोग नहीं था। वहाँ के कम्प्यूटर और साॅफ्टवेयर सभी अलग थे, जो मेरे लिए बिल्कुल नये थे और मुझे सीखने भी थे। इसलिए मैं प्रारम्भ के एक-दो माह वहाँ कोई विशेष कार्य नहीं कर सका। इसका श्री शर्मा पर यह प्रभाव पड़ा कि यह कुछ करना नहीं चाहता।

परन्तु उनकी धारणा बिल्कुल गलत थी, क्योंकि एक बार जब हमारा कम्प्यूटर बिल्कुल खराब हो गया था, तो उन्होंने मुझ सहित कम्प्यूटर विभाग के कई अधिकारियों को दूसरे विभागों में कार्य करने के लिए भेज दिया था। मुझे भविष्य निधि विभाग में लगाया गया। वहाँ मेरा काम था कर्मचारियों के भविष्य निधि खाते का वर्ष भर का विवरण बनाना। वहाँ मैंने 15-20 दिनों में ही इतना काम कर दिया था, जितना वहाँ के कर्मचारी 2-3 महीनों में भी नहीं कर पाते थे। फिर जब हमारा कम्प्यूटर ठीक हो गया, तो मैं वापस अपने विभाग में आ गया। तब भविष्य निधि विभाग के मैनेजर बीच-बीच में मुझसे पूछा करते थे कि ‘अब आपका कम्प्यूटर कब खराब होगा? क्या उसके लिए कोई पूजा-पाठ कराया जाये?’ मेरी कर्मठता की ऐसी छवि दूसरे विभागों पर बन गयी थी।

लेकिन हमारे सहायक महा प्रबंधक महोदय पर इसका एकदम उल्टा प्रभाव हुआ। शायद उनके लिए कर्मठता की कसौटी केवल मक्खनबाजी करना था और इसी ‘कार्य’ में मैं सबसे अधिक फिसड्डी था। इसलिए अकारण ही उन्होंने मुझे मेरे अधिकारों से वंचित करने का प्रयास किया। बैंक अधिकारी होने के नाते यह मेरा अधिकार था कि मैं अपने लिए पर्सनल लीज पर निर्धारित सीमा तक किराये का कोई भी मकान ले सकता था, जिसके किराये का भुगतान बैंक द्वारा किया जाना था। जब मैंने इसके लिए आवेदन किया, तो मेरा आवेदन इस बहाने से हमारे प्रधान कार्यालय कोलकाता अग्रसारित कर दिया गया कि मैं अभी प्रोबेशन पर हूँ। यह स्पष्ट रूप से मुझे मेरे अधिकार से वंचित करने का षड्यंत्र था। उस आवेदन को कोलकाता भेजने की कोई आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि हमारे ही कार्यालय में ऐसे एक से अधिक उदाहरण उपलब्ध थे, जिनमें प्रोबेशन वाले अधिकारियों को लीज पर मकान लेने की अनुमति दी गयी थी।

मैंने इसका विरोध किया, क्योंकि अन्याय सहना मुझे बिल्कुल पसन्द नहीं है। इस पर उन्होंने यह राय दी कि मैं चाहूँ तो अपने जोखिम पर मकान किराये पर ले सकता हूँ और जब प्रधान कार्यालय से अनुमति आ जायेगी, तो बकाया किराये का भुगतान कर दिया जाएगा। इस पर मैंने मार्च 1989 से अपने एक मित्र का मकान लीज पर ले लिया। परन्तु बैंक ने मई 1989 से ही उसका किराया देना शुरू किया।

तभी अचानक मई के अन्त में मेरा स्थानांतरण वाराणसी कर दिया गया। इतना ही नहीं मुझे ठीक उसी दिन शाम को कार्यमुक्त कर दिया गया, जिस दिन मुझे स्थानांतरण का पत्र मिला था। यह स्थानांतरण भी स्पष्ट रूप से मेरे साथ घोर अन्यायपूर्ण था, क्योंकि मेरी कानों की बीमारी को ध्यान में रखते हुए मेरे गृह नगर आगरा से इतनी दूर स्थानांतरण नहीं होना चाहिए था। परन्तु मैंने इसे चुनौती नहीं दी, क्योंकि मैं वहाँ के राजनीतिक वातावरण से दूर जाना चाहता था। कई बार तो मैं सोचता था कि इससे तो अच्छा था कि एच.ए.एल. में ही रहता। फिर भी मैं वाराणसी चला गया। 2 जून 1989 को मैं वाराणसी पहुँचा। वहाँ मेरा कोई परिचित या मित्र नहीं था, इसलिए मैं पहले संघ कार्यालय गोदौलिया में ठहरा और लगभग एक माह बाद मकान किराये पर लिया।

सौभाग्य से वाराणसी का वातावरण लखनऊ के एकदम विपरीत था। वहाँ राजनीति का नामोनिशान भी नहीं था। वहाँ के सहायक महा प्रबंधक श्री नरेन्द्र कुमार सूद बहुत सज्जन थे और मेरे कम्प्यूटर विभाग के अधिकारी भी बहुत सहयोगात्मक थे। इसलिए मैं वहाँ प्रसन्न था, भले ही आगरा से थोड़ा अधिक दूर हो गया था।

यहाँ वाराणसी के बारे में संक्षेप में लिख देना उचित समझता हूँ। यह शायद भारत की सबसे प्राचीन नगरी है। यह वरुणा और असी इन दो नदियों के बीच गंगाजी के बायें किनारे पर बसी हुई है। यहाँ गंगाजी उत्तरवाहिनी हैं, इससे इसका महत्व बढ़ गया है। वाराणसी को ‘काशी’ भी कहा जाता है और बोलचाल में इसे ‘बनारस’ कहते हैं। इसकी मुख्य विशेषता हैं यहाँ के घाट और मंदिर। यहाँ जैसे घाट दुनिया में कहीं नहीं हैं- अयोध्या, मथुरा, इलाहाबाद और हरिद्वार में भी नहीं। कहा जाता है कि यहाँ 108 प्रमुख घाट हैं। एक बार मैंने हरिश्चन्द्र घाट से प्रारम्भ करके सभी घाटों के नाम लिखने का कार्य किया। करीब दो घंटों में मैं मणिकर्णिका घाट तक ही 50 घाटों के नाम लिख सका। मणिकर्णिका घाट से आगे राजघाट तक घाटों की अटूट शृंखला है। मणिकर्णिका घाट को महाश्मशान कहा जाता है। बताया जाता है कि हजारों वर्षों से यहाँ चिताओं की आग कभी बुझी नहीं है अर्थात् कोई न कोई चिता हमेशा जलती रहती है। दूर-दूर से मुर्दे यहाँ लाये जाते हैं, क्योंकि ऐसी मान्यता है कि मणिकर्णिका घाट पर अन्येष्टि होने से स्वर्ग मिलता है।

वाराणसी के मन्दिर भी बहुत प्रसिद्ध हैं। इनमें सबसे प्रमुख है- बाबा विश्वनाथ का मंदिर, जो बारह प्रमुख ज्योतिर्लिंगों में से एक है। उसी के पास में ज्ञानवापी है, जहाँ विश्वनाथ का मूल मन्दिर था, जिसे औरंगजेब ने तोड़ा था। अब उस मंदिर के ढाँचे पर मसजिदनुमा इमारत बनी हुई है, जिसको हिन्दू हटा देना चाहते हैं। वर्तमान विश्वनाथ मंदिर अहिल्या बाई होल्कर ने बनवाया था। अधिकतर यात्री इन दोनों मन्दिरों को देखने आते हैं। इनके अलावा संकटमोचन मन्दिर, मानस मन्दिर, दुर्गा कुंड का दुर्गा मन्दिर तथा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के अन्दर बना हुआ विश्वनाथ मंदिर (बिड़ला मंदिर) मुख्य रूप से प्रसिद्ध हैं। वैसे वाराणसी में हजारों मन्दिर हैं। यहाँ पर नवरात्रों में पूजी जाने वाली सभी नौ देवियों के अलग-अलग बड़े-बड़े मन्दिर बने हुए हैं, जिनमें नवरात्र के दिनों में भारी भीड़ रहती है।

(जारी…)

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: jayvijaymail@gmail.com, प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- vijayks@rediffmail.com, vijaysinghal27@gmail.com

4 thoughts on “आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 22)

  • विजय भाई , जैसे जैसे पड़ता जाता हूँ आप की कहानी दिलचस्प होती जा रही है . जो आप ने चमचागिरी चाप्लुसिया का लिखा इस से हैरानी होती है कि इंसान कितने सैल्फिश हो गए हैं . किसी को दुःख पौह्न्चाना परेशान करना जलन रखना कुछ लोगों की फितरत ही कह सकते हैं . वाराणसी के बारे में लिखा , वरुणा और असी नदिओं के बीच वासी हुई है , मुझे पहली दफा पता चला . और जो औरंगजेब ने मंदिर ढाए थे उन की गिनती भी हो नहीं सकती , अब इन को दुबारा उसी जगह बनाने की जरुरत है यहाँ वोह पहले हुआ करते थे .

    • विजय कुमार सिंघल

      प्रणाम, भाई साहब. आभार !
      आपने सही कहा. औरंगजेब तथा दूसरे मुस्लिम बादशाहों ने भारत में अनगिनत मंदिर तोड़े थे और उनकी जगह उनके ही मलबे से मस्जिदें बनवा दी थीं. विश्व हिन्दू परिषद् ने ऐसे तीन हज़ार स्थानों की पक्की पहचान की है. लेकिन अब इन सबको तो फिर से बनवाना जरूरी और संभव नहीं है, लेकिन उसमें से तीन प्रमुख स्थान हम मांग रहे हैं- अयोध्या, मथुरा और काशी के. अब अयोध्या में तो मस्जिद तोड़ दी गयी है, मथुरा का कृष्ण जन्म स्थान तथा काशी का यह मंदिर हम वापस चाहते हैं. अगर मुसलमान ख़ुशी से ये तीन स्थान हिन्दुओं को दे देते हैं, तो आपसी सद्भाव बहुत बढ़ जायेगा. नहीं तो वैमनस्य बना रहेगा.

  • Man Mohan Kumar Arya

    एक साथ सारा विवरण पढ़ गया। आपकी लेखनी के चमत्कार के कारण आगामी विवरण को जानने की उत्सकता बनी रहती है। मैंने भी लगभग २० वर्ष पूर्व वाराणसी के प्रसिद्ध पाणिनि कन्या महाविद्यालय के वार्षिकोत्सव में भाग लिया था। तब विश्वनाथ मंदिर, वहां के कुछ घाट, मानस मंदिर, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय का द्वार आदि स्थानो को देखा था। दूसरी बार परिवार सहित वहां अपने एक मित्र श्री अग्रवाल जी से मिलने गया था जो देहरादून में मेरे साथ काम करते थे। तब वहां दुर्गाकुण्ड का वह प्रसिद्ध स्थान भी देखा था जहाँ नवंबर १८६९ में स्वामी दयानंद का काशी के लगभग ३० से अधिक शीर्ष विद्वानो से मूर्तिपूजा पर विश्वविख्यात शास्त्रार्थ हुआ था। आपकी तरह मेरा भी स्वभाव इस प्रकार का रहा कि मैंने कभी किसी की चापलूसी या गलत जी-हजूरी नहीं की और अपने कार्य वा व्यव्हार से सभी को संतुष्ट रखने का प्रयास किया और मैं इसमें अधिकांशतः सफल भी रहा। आपकी आत्मकथा प्रेरणादायक होने से उपयोगी एवं प्रशंसनीय है। हार्दिक धन्यवाद।

    • विजय कुमार सिंघल

      बहुत बहुत आभार, मान्यवर !

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