संस्मरण

मेरी कहानी-13

कौन सी घटना, किस कक्षा के समय में  हुई यह तो पूरा याद नहीं, लेकिन बहुत घटनाएं हुई जो हर एक के बचपन में होती हैं। एक नई बात यह हुई कि उन दिनों चर्मकारों के बच्चों को पढ़ने की इजाजत नहीं होती थी क्योंकि उन को कोई छूता भी नहीं था, और पहला चर्मकारों का लड़का हमारी क्लास में दाखिल हुआ जिस का नाम था बचना। बचने को क्लास के आखिर में बैठना पड़ता था और मेरे नज़दीक ही वोह बैठता था। बचना रंग का गोरा, शरीर का तगड़ा और शरारती था। उस की इन शरारतभरी अदाओं ने किसी को मेहसूस नहीं होने दिया कि वोह चर्मकारों का लड़का है। जल्दी ही वोह घुल मिल गिया। उस की हरकतें ऐसी होती थी कि सभी उस पर हँसते रहते थे। बचने के पिता जी का नाम बेली था और बेली चर्मकारों में आर्थिक तौर पर पैसे वाला था। इस का कारण वोह गाये भैंसों का विओपारी  था जिस से उस ने खूब पैसा बना लिया था और इसी कारण उन का घर चर्मकारों की बस्ती में  पक्का बड़ा और दोमंजला था. बचने का बड़ा भाई कर्म चंद भी अपने ननिहाल में पड़ता था। उस ने मैट्रिक पास कर ली थी और उस समय पोलिस मैन बन गया था।

एक बात का ज़िकर करूँगा जो मुझे कुछ बड़ा हो कर समझ में आई। सिआसत में कांग्रस पार्टी का ही बोल बाला  होता था, जिस में जगजीवन राम एक मिनिस्टर होता था जो नीची श्रेणी में से था। उसने चर्मकारों और मेहतर (सफाई कर्मचारी) जाति वालों के लिए बहुत काम किया था। चर्मकारों और मेहतरों में बच्चे बच्चे की ज़ुबान पर जगजीवन राम का नाम होता था। उस ने वोटों के जोर पर चर्मकारों और मेहतरों को हर महकमे में नौकरीआं की सीटें रिसर्व करवा लीं। इस का असर यह हुआ कि किसी भी पड़े लिखे चर्मकार या मेहतर को नौकरी आसानी से मिल जाती थी क्योंकि उन में पढ़े लिखे इतने होते नहीं थे। यही वजह थी कि बचने का बड़ा भाई कर्म चंद  कुछ समय बाद ही पोलिस इंस्पैक्टर बन गया था।

यहां यह भी लिखना चाहूंगा कि इन नीची ज़ात वालों की हालत बहुत ही खराब  होती  थी। इन के काम भी अक्सर किसानों के खेतों में काम करना वृक्ष काटना या लोगों की गाए भैंसों को चारा देना, पशुओं की जगह पर पड़े गोबर को उठा कर साफ़ करना आदिक बहुत काम होते थे। इस के अतिरिक्त इनका काम होता था मरे हुए पशुओं को उठा कर ले जाना और उस की चमड़ी उतारना. कुछ इसी वजह से इन लोगों को कोई हाथ नहीं लगाता था लेकिन यह कोई समझने की कोशिश नहीं करता था कि उन्हीं लोगों के उतारे हुए चमड़े और उन्हीं के हाथों बने हुए जूते वोह पहनते थे। जब वोह किसी किसान के घर रोटी खाते थे तो उनको दूर बैठना पड़ता था। फिर किसान के घर का कोई सदस्य उन के हाथों पर दूर से रोटी फैंकता था ताकि उस का हाथ न उस से लग जाए। फिर जब उस को लस्सी पिलाते तो वोह विचारा अपने मुंह के नज़दीक दोनों हाथों का एक कप्प सा बना लेता (जिस को बुक्क कहते थे) और किसान  के घर का सदस्य कुछ दूर से लस्सी की धार कुछ ऊपर करके छोड़ने लगता।

ऐसी ही एक बात मुझे बहुत याद आती है , हमारे गाँव में दो तीन घर शाहूकारों  के होते थे जो अक्सर लोगों को  पैसा उधार देते थे जिस के बदले में  उन को विआज तो देना ही होता था लेकिन और भी पता नहीं कितने काम उन लोगों को करने पड़ते थे। यह बिलकुल  दो विघा जमीन फिल्म जैसा ही होता था। एक दफा शाह जी की लड़की की शादी थी। उस शादी में जो बराती थे वोह भी अमीर ही होंगे क्योंकि उन का पैहरावा बढ़िया था। उन बरातिओं को दुपैहर का खाना दिया गिया जो एक बड़े टैंट में था। खाना खाने के बाद बरात तो किसी और तरफ चले गई लेकिन जो उन की जूठी बची हुई मठाई समोसे पकौड़े अंगूर आदिक थे उन को बावर्चिओं ने बाहिर खुले मैदान में घास पर रख दिया। एक छोटा सा ढेर बन गिया। चर्मकार और मेहतर लोग बहुत जमा थे उस बचे हुए पकवान को उठाने के लिए।

शाह जी हाथ में एक छड़ी लिए हुए बाहर आये। शाह जी का पेट बहुत बड़ा था, हाथ में छड़ी थी और मलमल की धोती और कुरता पहने हुए थे लेकिन उन का रंग बहुत गोरा था। आते ही बोले, “तुम लोग पहले यह सारा मैदान साफ़ करो, फिर ही इस पकवान को हाथ लगाना”। बस फिर किया था सभी मैदान को साफ़ करने लग पड़े। मैदान काफी बड़ा था लेकिन सभी लोगों ने मिल कर कुछ ही देर में साफ़ कर दिया। इसके बाद सभी उन पकवानों के इर्द गिर्द खड़े हो गए जैसे उन के मुंह में पानी आ रहा हो। दो तीन बड़े बज़ुर्ग लोगों ने उस सारे पकवान को एक बड़े से कपडे में डाला और बाँध कर ले गए, पीछे पीछे सभी लोग जा रहे थे। वैसे भी जब यह लोग शाह जी की कपड़े की दूकान पर आते तो हाथ जोड़ कर शाह जी शाह जी करते रहते और दूर हट कर बैठ जाते।

वैसे तो यादें बहुत हैं लेकिन इस को मैं कभी भूल नहीं सका। चर्मकारों की तीन बस्तियां तो  हमारे गाँव  के इर्द गिर्द थी और चौथी थी मेहतरों की बस्ती। यह लोग तो विचारे चर्मकारों से भी नीचे थे क्योंकि उन को पछुओं का गोबर पेशाब तो साफ़ करना ही होता था लेकिन कई घर ऐसे थे जिन में पुराने ढंग के टट्टी खाने थे जिन को साफ़ करना भी इनकी ज़िमेदारी होती थी। इन सभी लोगों के घर सिर्फ और सिर्फ मट्टी से बने होते थे और उन के कपडे तो चर्मकारों से भी घटिया थे। इन लोगों की आर्थिक दुर्दशा का कारण सिर्फ एक ही था कि यह कोई और काम कर ही नहीं सकते थे। इन लोगों की औरतों को और भी कई मुसीबतों का सामना करना पड़ता था। इन की औरतें गाये भैंसों के लिए घास लेने किसानों के खेतों में जाती और कई जवान मनचले किसानों के बेटे उन को तरह तरह की बातें कहते। अक्सर औरतें इस तरह की बातें सुन सुन कर एक अजीब सी आदत बना लेती थीं और वोह भी उन को हंस कर जवाब दे देतीं। गरीबी किया नहीं करवाती ? कई औरतें तो कुछ हासिल करने के लिए अपनी इज्जत भी खो बैठती थीं।

अपने रामसर वाले खेतों में जिन का ज़िकर पहले मैं कर चुका हूँ, अक्सर मैं जाता ही रहता था, वहां एक चर्मकारों का लड़का आया करता था किसानो का काम करने के लिए। वोह पगड़ी बांधता था और आठवीं कक्षा तक पढ़ा लिखा था, उस वक्त मैं भी चौथी पांचवीं में हूँगा। वोह मुझ से पढ़ाई की ही बातें करता रहता था लेकिन उस की गरीबी और नीची जात उसको वोह ही काम करने को मजबूर कर रही थी जो उसके दूसरे लोग करते थे । उस की शादी हो चुकी थी और कभी कभी उस की पत्नी भी खेतों में आ जाती और किसानो के लड़के उस को जो बातें कहते उस वक्त तो मुझे पता नहीं था लेकिन जब मैं बड़ा हुआ तो सब समझ आई। ऊंची ज़ात वालों का भी शायद यह कसूर नहीं था क्यों कि एक प्रथा ही ऐसी बन चुकी थी जिस  को तोड़ना किसी के बस की बात नहीं थी। हमारे घर  कई नौकर आए लेकिन हुकमा नाम का नौकर कभी नहीं भूला। उस की शख्सियत ही ऐसी थी जो उस को हरमन पियारा बनाये हुए थी। बहुत वर्ष तक वोह हमारे साथ रहा और घर के सदस्य की तरह ही था।

नफरत और लालच की एक बात लिखूं , मैं तो अभी बहुत छोटा सा था लेकिन बड़े भैया एक दफा पशु चराने के लिए उन को चरागाह की ओर ले गए , तो भाई साहिब को पलाश के वृक्ष के नीचे पड़ा एक पीतल का बर्तन मिला जिस को थाली कहते थे। बड़े भाई उस को उठा कर घर ले आए और खुश हो कर माँ को दे दी । माँ ने उस थाली पर पंजाबी में लिखा नाम पड़ा तो उस पर लिखा हुआ था “रतन चंद”. माँ ने कहा,” बेटा , यह तो किसी चर्मकार की थाली है, मैं तो इसे रख नहीं सकती” वहां बैठी एक मेरी भाभी बोली, “चाची ! लो मैं इसे रख लुंगी “. यह कह कर उस ने घर जा कर पहले उस थाली को आग में फैंका, फिर उस को अच्छी तरह राख से साफ़ किया, फिर धो कर रख लिया। यह बात उस ने बाद में माँ को बताई और कहा कि आग में रखने से वोह थाली शुद्ध हो गई थी। जब भी मैं उस भाभी के घर जाता तो उस थाली को देख कर वोह अनदेखा अनजाना रतन चंद याद आ जाता।

चलता …।

6 thoughts on “मेरी कहानी-13

  • prtyek manushy ko sharir ke sath sath man ki pavitrata ka dhyan rakhana chahiye …tan ko svchchh rakhane ke liye shikshaa ki zarurat hai ..man ko nirmal rakhane ke liye gyan ki aavaashyakta hai …manishy se manushy me jo bhed utpanna katre ..aesi shiksha aur aese gyan se kya labh ..

    • खोरेंदर भाई , आप सही कह रहे हैं , पंजाब में भेद भाव तो अभी भी है लेकिन पहले से बहुत कम , यह शाएद शिक्षा के कारण ही हुआ है , कॉमेंट के लिए धनवाद जी .

  • Man Mohan Kumar Arya

    आपने मध्यकालीन विकृत हिन्दू समाज की स्थिति का यथार्थ वर्णन किया है. यह स्थिति महाभारत काल के बाद देश देशान्तर में छाए अज्ञान अंधकार के कारण हुई। इसमें मुस्लिमकाल की गुलामी का भी योगदान था. इस बुराई में हमारे धर्म के ठेकेदारो की अज्ञानता वा मिथ्या अंधविश्वास दोषी थे व हैं। महर्षि दयानंद ने वेदो का अध्यन करके इन्हे वेद विरुद्ध सिद्ध किया और जोर दार प्रचार किया जिससे अज्ञानता का यह उत्पाद शिथिल वा कमजोर हुआ। अभी इसे जड़ से समाप्त करने का काम बाकी है। पौराणिक धर्म गुरुवों वा अग्रणीय सामाजिक नेताओ को इस पर ध्यान देना चाहिए।

    • मनमोहन भाई , आप सही कह रहे हैं कि यह बुराई धर्म गुरुओं ने और वोह भी अगिआनता वश लोगों पर थोप दी थी , जिस से उन का तोरी फुल्का चलता रहे . इन कम गियान वाले धर्म गुरुओं ने हिन्दू धर्म को बहुत नुक्सान पौह्न्चाया और अभी भी पुहंचा रहे हैं . यह अर्बोंपति धर्म गुरु जब कुकर्म करते हुए पकडे जाते हैं तो इस को देख कर नए धर्म बन्ने लगते हैं और इसी कारण से नास्तिकता और तर्कशीलता शुरू हो गई है . आज इलैक्ट्रौनिक मिडीया के कारण झट से बात सारी दुनीआं में फ़ैल जाती है और कुछ तर्कशील तो स्टिंग ऑपरेशन भी करते हैं और उस को युतीऊब पर अप लोड कर देते हैं . आज जरुरत है कुआलिफ़ाइद धर्म गुरुओं की जैसे मुसलमानों में जाकर नाएक है.

  • विजय कुमार सिंघल

    भाई साहब, आपने उस ज़माने में गांवों में व्याप्त घोर जातिवाद का बड़ा मार्मिक वर्णन किया है. हमारे गाँव में भी जातिवाद था और हम भी चर्मकारों और मेहतरों के हाथ का छुआ कुछ नहीं खाते थे. लेकिन बाद में ये प्रतिबन्ध शिथिल हो गए थे, क्योंकि धीरे धीरे जातिवाद मिट रहा था. लेकिन मेहतर जाति के लोगों को झूठी पत्तलों से भोजन सामग्री उठाते हमने भी देखा है. उस समय हम नहीं समझ पाते थे, लेकिन जब बड़े हुए तो समझने लगे. हमें बहुत बुरा लगता था.
    इसको हम बंद तो कर नहीं सकते थे, लेकिन उन सबको हम अलग से पंक्ति में बैठाकर भोजन कराते थे और अलग से भी भोजन सामग्री घर ले जाने के लिए देते थे. हमारे घर के बाहर जो मेहतरानी सफाई करने आती थी, हम उसे ‘चाची’ कहते थे.

    • विजय भाई , आप सही कह रहे हैं कि यह उंच नीच का अंतर बहुत बड़ा और भिआनक हद तक था लेकिन धीरे धीरे पंजाब में तो बहुत फर्क आ गिया है , इस का कारण एजुकेशन है . अब यह हरीजन या मेहतर वोह नहीं रहे . इन के घर तो अब बहुत ऊंची जात वालों से भी बेहतर हैं . एक अजीब बात आप को बताऊँ कि अब तो इन लोगों में हमारे जैसे बूड़े लोग शकाएत करते हैं कि यह नए युवा लोग काम नहीं करते . मेरे छोटे भैया के बेटे की शादी २००३ में थी . इन हरीजनों के लड़के जो कोई बी ए था कोई एम ए सभी मेरे भतीजे के दोस्त थे और उन्होंने ही सुहाग रात की डैकोरेशन की थी . किओंकि मुझे बातें करने का बहुत शौक था और वोह लड़के मेरे भैया की सर्जरी में आ जाते थे और मेरे साथ बातें करते रहते थे , पहले आ कर पैरों को हाथ लगाते फिर बातें करते और मैं उन के बजुर्गों की बातें सुनाता किओंकि उन के बजुर्गों के बहुत से नाम मुझे अभी भी याद हैं .

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