आत्मकथा

आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 35)

श्री हिरानो के निर्देशों के अनुसार मुझे वहाँ से बस में टोकियो सिटी एअर टर्मिनल जाना था। 2500 येन में टिकट मिली। मेरी बस का समय 2.10 था। वहाँ (यानी गेट नं. 1 पर) 2.00 बजे वाली बस खड़ी थी। मैंने उसमें चढ़ना चाहा तो कन्डक्टर ने बताया कि 2.10 वाली बस में आना। मैंने ऐसा ही किया मजे में जाकर बस में बैठ गया। यहाँ की बसें बहुत आरामदेह हैं। थोड़ी मँहगी हैं, परन्तु ज्यादा नहीं। किराया था 2500 येन यानी हमारे हिसाब से लगभग 350 रुपये।

मजेदार बात यह रही कि हमारी बस लगभग 70 कि.मी. प्रति घंटा की चाल से लगातार चलती रही। उसे केवल एक या दो बार चुंगी देने के लिए रुकना पड़ा, जिसमें मुश्किल से 10 सेकेण्ड लगे होंगे। बीच में न तो कोई लाल बत्ती पड़ी और न कहीं स्टाप पड़ा। मुझे आश्चर्य हुआ कि यह कैसे होता है। रास्ते में ही इसका रहस्य मुझे ज्ञात हो गया। बात यह है कि जैसे हमारे यहाँ जलेबी की धार एक के ऊपर एक डाली जाती है, उसी तरह यहाँ सड़क के ऊपर सड़क बनायी जाती है। यानी एक के ऊपर एक तीन सड़कें। तिमंजिला मकान तो बहुत देखे थे, परन्तु तिमंजिला सड़क पहली बार देखने को मिली। जरा सा मुड़ने के लिए चाहे कितना भी चक्कर काटना पड़े पर सड़कें ऐसी ही बनती हैं। तिमंजिला सड़क शहर के बाहर ही नहीं भीतर भी देखने को मिल जाती हैं।

रास्तों पर काफी सफाई थी। पैदल चलता आदमी बिल्कुल दिखाई नहीं देता था। जापान में शायद कुत्ते-बिल्ली हैं ही नहीं। चिड़िया-कबूतर जैसे पक्षी भी देखने को नहीं मिले। करीब एक घंटे तक चलने के बाद मुझे लगा कि बस किसी बनारस की गली में घुसी है। ध्यान से देखा तो वह बनारस नहीं, बल्कि टोकियो का सिटी एअर टर्मीनल था, जहाँ मुझे जाना था। मैं उतरा और टैक्सी की तलाश करने लगा। जहाँ से टैक्सी ली जाती है, वह जगह मुझे आसानी से मिल गयी। यहाँ से मेरा होटल जहाँ मेरे ठहरने का प्रबन्ध किया गया था मुश्किल से 10 कि.मी. है, परन्तु टैक्सी इतनी महँगी है कि इतनी सी दूरी के लिए टैक्सी का किराया था 2760 येन अर्थात् लगभग 400 रुपये। सौभाग्य से ये रुपये मुझे नहीं देने थे।

वह टैक्सी वाला भी एक ही गधा था। उसने मुझे उसे होटल के दूसरे किनारे पर उतारा, जहाँ से मुख्य काउन्टर तक मुझे पूछ-पूछ कर आना पड़ा। कमरा मुझे आसानी से मिल गया, क्योंकि वह पहले से ही मेरे नाम बुक था, परन्तु मुझे आश्चर्य यह था कि श्री हिरानो की ओर से कोई व्यक्ति वहाँ नहीं था। मैंने होटल वाली लड़की से कहा कि उन्हें फोन पर बता दो कि मैं आ गया हूँ। उसको अपनी बात समझाने में काफी मुश्किल हुई। यहाँ के बहुत कम लोग अंग्रेजी जानते हैं, वह भी मामूली और उन्हें अपनी बात समझाना टेढ़ी खीर है, क्योंकि हमारा और उनका अंग्रेजी उच्चारण बहुत अलग होता है। किसी तरह श्री हिरानो को सूचना दे दी गयी और मैं अपने कमरे में आया।

सबसे पहले तो मैंने अपने कपड़े बदले, नहाया और फिर दो घंटे सोया। करीब शाम को 6.00 बजे मुझे भूख लगी तो मैं बाहर गया। वहाँ मुझे कोई ऐसी चीज नहीं मिली, जो शाकाहारी हो तथा जिसे खाकर मैं अपनी भूख मिटा सकूँ। मजबूरन मैंने 180 येन में काॅफी वाली 3 डबल रोटियां लीं, जो उस दुकानदार लड़की ने बहुत अच्छी तरह पैक करके दीं। 180 येन लगभग 25 रुपये के बराबर होते हैं। हमारे देश के हिसाब से यह बहुत ज्यादा है। परन्तु यहाँ के हिसाब से सस्ती है, क्योंकि यहाँ 100 येन (लगभग 14 रुपये) से नीचे कोई बात ही नहीं करता।

डबल रोटी लेकर मैं एक चाय-काॅफी की दुकान पर आया। मैंने एक कप चाय ली। जिसकी कीमत थी 257 येन (टैक्स मिलाकर) यानी हमारे हिसाब से 36 रुपये मात्र। खैर चाय-डबलरोटी से मैंने अपनी भूख शान्त की। उसी समय मैंने तय किया कि कम-से-कम अपना नाश्ता मैं लड्डू-मठरी से किया करूंगा, जो कि श्रीमतीजी की मम्मीजी ने मना करते-करते रख दिये थे। ये यहाँ बड़े काम आये।
रात का इतना सा खाना खाकर मैं थोड़ा इधर-उधर घूमा और कहीं रास्ता भूल न जाऊँ इस डर से कमरे में आकर सो गया। उस समय लगभग 8 बजे थे।

22 अक्टूबर 1990

सुबह 5.00 बजे मेरी नींद खुल गयी। श्री हिरानो के निर्देशानुसार मुझे ठीक 7.50 पर नीचे लाबी में पहुँच जाना था। इसलिए पहले मैंने दैनिक कार्यों से निवृत्त होकर नाश्ता किया। बाहर से कोकाकोला लाकर पिया। थोड़ा सा लिखा और फिर चलने के लिए तैयार हो गया।

यहाँ ठण्डे-गर्म पेय बेचने की मशीनें लगी हुई हैं। प्रत्येक पेय का मूल्य समान है, परन्तु जगह- जगह के हिसाब से मूल्य बदलता है। सार्वजनिक स्थानों में एक डिब्बे की कीमत 100 येन है जबकि होटलों में 150 येन और कहीं-कहीं 200 येन। इन मशीनों में हर तरह के पेय के डिब्बों के नमूने प्रदर्शित होते हैं, जिनके नीचे बत्ती वाले बटन है। प्रत्येक पेय टिन के खास डिब्बों में होता है। आप अपने सिक्के या नोट निर्धारित स्थान पर डालें। जितने के सिक्के या नोट आपने दिये होंगे, उतनी संख्या एक जगह उभर आयेगी। यदि यह चीज खरीदने के लिए काफी हैं, तो जो डिब्बे उपलब्ध होंगे उनके नीचे की बत्ती जल जायेगी। आप अपनी पसन्द के डिब्बे के बत्तीदार बटन को दबाइये और नीचे एक खाने में वही डिब्बा हाजिर हो जायेगा। यदि आपके पैसे बचते होंगे तो उनके बराबर के सिक्के भी एक दूसरे खाने में आ जायेंगे। यानी दोनों तरफ से बेईमानी की कोई गुंजाइश नहीं। मुझे इन मशीनों को देखकर बड़ा मजा आया।

यद्यपि हमें 7.50 पर नीचे बुलाया गया था, परन्तु मैं 7.30 बजे ही वहाँ पहुँच गया। तब तक कोई नहीं आया था। मैं इधर-उधर घूमने चला गया। जब लगभग 7.45 पर लौटा तो एक सज्जन एक किनारे पर खड़े अपने बैग में कुछ ढूँढ़ रहे थे। उनके बैग पर अंग्रेजी में “CICC Welcomes” का कागज लगा हुआ था। इससे मैं समझ गया कि आप ही श्री युसूके हिरानो हैं। आप देखने में 45 वर्ष के लगते हैं, साधारण डील-डौल, एक कन्धा कुछ झुका हुआ, साधारण ढंग से पहना हुआ ढीला-ढाला सूट। उस समय उन्हें देखकर मेरे ऊपर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा। परन्तु कहावत है कि महान व्यक्ति देखने में साधारण लगते हैं। यह कहावत श्रीयुत् हिरानो पर पूरी तरह सही उतरती है। मैं जानता था कि मैं श्री हिरानो की ही सक्रियता और कृपा से जापान आने में सफल हुआ हूँ, वरना एअर इण्डिया वालों ने तो मेरा पत्ता काटने में कोई कसर ही नहीं छोड़ी थी।

मैंने बड़ी श्रद्धा से उन्हें नमस्कार किया, हाथ मिलाया और बताया कि मैं विजय कुमार हूँ। साथ ही इशारे से यह भी बता दिया कि मैं सुनने में असमर्थ हूँ। थोड़ी देर में पाँच लोग और आ गये। एक श्री तलत महबूब भट्ट (पाकिस्तान), दूसरे श्री लुकमिन लियान्टो (इण्डोनेशिया), तीसरे श्री गोंजालेज (मैक्सिको), चौथे श्री ढुंगलस एस.एल. तुंग (हांगकांग) तथा पाँचवे श्री एन. बेन लिम (सिंगापुर)। छठा मैं था। इनमें से पहले तीन लोग सी.आई.सी.सी.में 6-6 महीने की ट्रेनिंग ले चुके थे। उन्होंने अपने लेखों में यह बताया था कि वे सी.आई.सी.सी. में प्राप्त ज्ञान और अनुभव का उपयोग अपने यहाँ कैसे कर रहे हैं। शेष तीन व्यक्ति नये थे। इनमें से मेरे अलावा दोनों ने अपने लेखों में यह बताया था कि वे अपने-अपने स्थान पर क्या कर रहे हैं। केवल मैंने ही अपने लेख में लिखा था कि हमारे देश में कम्प्यूटरों का प्रसार किस प्रकार किया जा सकता है।

हम सबका एक दूसरे से परिचय हुआ। विजिटिंग कार्डों का आदान-प्रदान हुआ। मैंने अपने साथ जो विजिटिंग कार्ड रख लिये थे, वे यहाँ बहुत काम आये। कार्ड कुछ कम पड़ गये, मुझे उम्मीद नहीं थी कि कार्डों का आदान-प्रदान इस प्रकार भी होता है। कारण यह है कि मैं लम्बे समय से सी.एस.आई. (कम्प्यूटर सोसाइटी आफ इण्डिया) के सम्मेलनों में भाग लेने नहीं जा सका हूँ। ऐसा न करके मैंने अपना बहुत नुकसान कर लिया है। आगे हर साल इस सम्मेलन में भाग लेने की कोशिश करूँगा और इसका पूरा फायदा उठाया करूँगा।

सबके आ जाने के बाद हम चले। हमें डाटा शो देखने जाना था, जहाँ के लिए सी.आई.सी.सी. की बस तय की गयी थी। बस तक पहुँचने के लिए हमें टैक्सी में ले जाया गया। एक टैक्सी में यों तो 4 लोग बैठ सकते हैं परन्तु श्री हिरानो ने हमारे कष्ट (?) को ध्यान में रखकर तीन टैक्सियां कीं। चलने से पहले उन्होंने हमें तथा टैक्सी वाले को जगह का नक्शा भी दिया तथा एक टैक्सी में खुद बैठे। यहाँ टोकियो की सड़कें बनावट तथा उलझनपूर्ण होने में बनारस की गलियों से टक्कर लेती हैं। अतः नक्शा हाथ में रहने पर भी एक टैक्सी वाला रास्ता भूल ही गया। करीब 10 मिनट इन्तजार करने पर वे हमें मिले। वहाँ हमें सी.आई.सी.सी. की बस भी मिल गयी। उसमें बड़े आराम से हम बैठे और आगे चले।

(जारी…)

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: jayvijaymail@gmail.com, प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- vijayks@rediffmail.com, vijaysinghal27@gmail.com

7 thoughts on “आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 35)

  • विजय भाई , कल की किश्त को आज पड़ा किओंकि फ़्लू ने बहुत जोर डाला हुआ है , खैर यह तो जिंदगी का हिस्सा है. यह किश्त भी बहुत अच्छी लगी , इस में ख़ास बात जो आप ने ना सुन पाने की कठनाई लिखी , मुझ से ज़िआदा कौन समझ सकता है , किओंकि मैं बोल नहीं सकता , इस कारण बहुत दफा गुस्सा आ जाता है . आप की जापान यात्रा में जिन वेंडिंग मैशीन की बातें लिखी हैं , वोह तो अब भारत में भी होंगी. यहाँ तो पब्लिक प्लेस्स्ज़ में यगाह यगाह हैं और गाडी पारक करने के लिए भी कोई आदमी नहीं होता . एक बैरीअर लगा होता है , जब गाडी पार्क में खडी करनी हो तो मैशीन जो अपने आप ही टिकट निकाल देती है , टिकट ले लो और बैरीअर खुल जाता है .गाडी पार्क कर दो , जब घंटे दो घंटे बाद वापिस आओ एक पेइंग मशीन लगी होती है , उस में वोह टिकट डाल दो , मशीन के ऊपर समय के मुताबिक़ पार्किंग के पैसे आ जाते हैं . जो भी नोट हो डाल दो , मैशीन चेंज वापिस दे देगी और साथ ही कार्ड वापिस कर देगी . गाडी निकालने के वक्त गेट पर बैरीअर होता है , साथ ही एक मैशीन . उस मैशीन में कार्ड डाल दो , गेट अपने आप ऊपर को खुल जाएगा .अब तो रेलवे स्टेशनों पर भी कोई आदमी नहीं होता , बस टिकट डालो , गेट ओपन , जाओ और फिर बंद . मैंन पावर की जरुरत ही नहीं . अब तो एअर्पोर्तों पर भी यह सिस्टम शुरू करने वाले हैं . पुराना पासपोर्ट बंद करके कार्ड ही बन जायेंगे. कार्ड के ऊपर ही सारा डाटा होगा . जो फ्रॉड केसज़ होंगे मेशिन उस को जाने ही नहीं देगी और पकडे जायेंगे. भाई , ज़माना बहुत तेज़ी से बदल रहा है. अब तो मुझे भी भारत गए १२ साल हो गए हैं , अब तो भारत बहुत एडवांस हो गिया होगा .

    • विजय कुमार सिंघल

      आपका कहना सही है भाई साहब. मैंने 24-25 साल पहले जापान में जो देखा था अब वह सब जगह भारत में भी है. यहाँ कई शहरों में मेट्रो चल रही है. उनका सिस्टम जापान जैसा ही है, फिर भी आदमी की जरुरत पड़ती है, क्योंकि कई बार मशीन दगा दे जाती है. आपको धन्यवाद.

  • Man Mohan Kumar Arya

    आज का सफर भी रोचक एवं घटनाओं से पूर्ण है। जापान में शाकाहारी भोजन की प्राप्ति में कठिनता ने ध्यान आकर्षित किया। जापान तो बहुत दूर, ८ साल पहले जब मै पहली बार गुवाहाटी गया था तो वहा भी शाकाहारी भोजन मिलना दुष्कर हुआ था। आपके सामने बोलचाल के लिए भाषा की समस्या थी। आश्चर्य होता है कि आपने वहां कैसे काम चलाया होगा? अपना कोई परिवार का सदस्य या मित्र भी आपके साथ नहीं था। जापानी लोगो की देशभक्ति और कर्तव्यनिष्ठा प्रसिद्ध है। आप अवश्य अच्छी व मधुर समृतियां संजो कर लाये होंगे। आज की किश्त के लिए धन्यवाद।

    • विजय कुमार सिंघल

      आभार महोदय ! अपने सुनने की कठिनाई के कारण कष्ट तो होता ही है. भारत में भी होता है जब कोई जानने वाला पास में नहीं होता. किसी तरह मैं काम चला लेता हूँ. जापान में भी कष्ट हुआ था, जैसा कि आप आगे पढेंगे. वैसे कठिनाइयों से लड़ने में भी अपना आनंद है. वह यात्रा ही क्या जिसमें कष्ट न हो?

      • Man Mohan Kumar Arya

        नमस्ते आदरणीय श्री विजय जी। मेरा संकेत जापानी भाषा को समझने में कठिनता था। आगामी किश्तों की प्रतीक्षा है। आपके विचारों से पूरी तरह सहमत हूँ। धन्यवाद।

        • विजय कुमार सिंघल

          जापानी भाषा की जरुरत हमें प्रायः नहीं पड़ती थी. इशारों से काम चल जाता था. जब दूसरे साथी साथ होते थे तब भी मुझे कोई परेशानी नहीं होती थी, भारत में भी नहीं होती जब कोई साथ हो. परेशानी केवल तब होती है जब मेरा जानने वाला कोई साथ में नहीं होता. जापान में मैं पहले और आखिरी दिन बिलकुल अकेला था, तब कष्ट भी हुआ था. बीच के दिनों में नहीं हुआ. इसके बारे में आगे पढने की कृपा करें.

          • Man Mohan Kumar Arya

            धन्यवाद आदरणीय श्री विजय जी। आगामी अंक व क़िस्त की प्रतीक्षा है।

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