कविता

कविता

लक्षमन तो चले गये
भाई भाभी के संग
अपना फर्ज़ निभाने
मुझे यहाँ छोड़ गये
मेरे फर्ज़ के लिये
सब फर्ज़ निभाती हूँ
जो उन्होने कह
और जो कहना भूल गये
लेकिन मेरे प्रति
किसी को कोई
फर्ज़ याद न आया
न ससुराल वालों को
और न ही पति को
खुद ही अपना फर्ज़
भी निभाती हूँ
कंद मूल खाती हूँ
उन के बिना पकवान
कैसे खाऊं
वो भी तो कंदमूल से
ही पेट भरते होंगे
कुश की बनी चटाई
पर सोती हूँ
उन्हे बिस्तर कहाँ मिलेगा
वो सारी जग कर
भाई भाभी की रक्षा
के लिये जगते होंगें
मैं उनकी याद में
सारी रात तकिया भिगोती हूं
उन्हे उनके कर्म से नही रोकती
मैं चुपचाप अपना कर्म निभाती हूँ
जानती हूँ मुझे कोई याद नही करेगा
लेकिन जब जब उनका नाम आयेगा
मैं उसमें छिपी हुई नज़र आउंगी
कोई जाने न जाने
मैं बस अपना फर्ज निभाउंगी

रमा शर्मा
कोबे, जापान
Ramaajay
+818038529320

रमा शर्मा

लेखिका, अध्यापिका, कुकिंग टीचर, तीन कविता संग्रह और एक सांझा लघू कथा संग्रह आ चुके है तीन कविता संग्रहो की संपादिका तीन पत्रिकाओ की प्रवासी संपादिका कविता, लेख , कहानी छपते रहते हैं सह संपादक 'जय विजय'

One thought on “कविता

  • विजय कुमार सिंघल

    आपने उर्मिला की भावनाओं को बखूबी प्रकट किया है ! बहुत सुन्दर !

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