गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल : दीवार…

जो चाहत रूह तक पहुंचे, नहीं अब प्यार वो शायद।
खड़ी रिश्तों के आँगन में, कोई दीवार है शायद।

वो माँ है बेटियों की ओर, मुंह कर सोच में डूबी,
पढ़ा उसने सना खूँ से, अभी अखबार है शायद।

हैं अपने मुल्क में भूखे, लटक जाते हैं कड़ियों पर,
मगर गैरों को दौलत दे, अजब सरकार है शायद।

जो लफ़्ज़ों का मसीहा हो, लिखे आवाज़ रूहों की,
कलमकारों में क्या ऐसा, कोई खुद्दार है शायद।

अमन की बात करते हैं, मेरे दिल में छुरा घोंपें,
यही देखा है लोगों का, छुपा किरदार है शायद।

मसल देते हैं पल भर में, किसी का फूल जैसा दिल,
मोहब्बत अब ज़माने में, कोई व्यापार है शायद।

सजा है बेगुनाहों को, गज़ब कानून की फितरत,
यहाँ कातिल की चोखट पर, सजा दरबार है शायद।

मुझे इलज़ाम देते हैं, मेरी आँखों को भी पानी,
ग़मों की हर घड़ी देखो, ये पैदावार है शायद।

नहीं सुनता हूँ अब दिल की, सुनो मैं “देव” पत्थर का,
थपेड़े दर्द के सहना, मेरा संसार है शायद। ”

…..चेतन रामकिशन “देव”

One thought on “ग़ज़ल : दीवार…

  • विजय कुमार सिंघल

    हुत शानदार ग़ज़ल !

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