आत्मकथा

स्मृति के पंख – 42

इसी बीच एक लड़का आकर रमेश के दो जोड़ी के क्रय का व्यौरा लिखाने लगा, जबकि रमेश ने कुछ खरीदा ही न था। वह तो मैंने अन्दाजे से कह दिया था कि जो कुछ वह देना चाहते थे और बताया था, सम्भवतः दो हजार बनते थे। मैंने उस लड़के को जिसे मैं जानता नहीं था, कहा- बेटा जाओ लिखाने की कोई आवश्यकता नहीं है। हम कुछ नहीं लेते, फिर भी परमानन्द ने मेरे साले को एक हजार कपड़ों के लिए दे दिए। मेरे इलाके के हुकुम चन्द जी कहा करते थे, अगर तुम्हारे लडके की बारात में 100 बाराती हैं, तो उसमें एक तिहाई तुम्हारी खुशी में खुश होंगे और एक तिहाई बैण्ड बाजा व स्वागत बारात तथा भोजन के प्रबन्ध से खुश होंगे, बाकी एक तिहाई वे लोग होंगे जो तुम्हारी इज्जत देखकर कुढेंगे। यह सब अपने स्वभाव से मजबूर होते हैं। मैंने केवल अपनी इज्जत रखने के लिए झूठ बोला था कि उन्होंने 10 हजार दिया है। रमेश अपनी नौकरी पर जाकर आवश्यक वस्तुएं खरीद लेगा। अगर उन लोगों ने बात कर ली होती, तो मैं झूठ न बोलता, न इसकी आवश्यकता पड़ती। इस प्रकार शादी का आनन्द आता और रमेश से कह सकता था देखो जिन्हें तुम अच्छा नहीं समझते थे, उनके आदर्श व विचार कितने अच्छे व महान् हैं।

परन्तु जो समय बीत गया था, वापस लाना तो सम्भव नहीं था। डोली पर पहुंचने पर भी रमेश की मानसिक अवस्था खराब थी, परन्तु अपनी बहू शिवबीर पर इत्मीनान था कि वह समस्या को सम्भाल लेगी। इसके बाद उन्हें देवास जाने के लिए अपना प्यार और आर्शीवाद देकर विदा किया। रमेश ने जब बी0एससी0 पास कर लिया उसने सेना में कैप्टन पद के लिए प्रार्थना पत्र दिया। 25 अभ्यर्थी में रमेश का भी चयन हो गया। दूसरी बार बंगलौर में टेस्ट हुआ, जहाँ 25 में 12 लडकों को लेना था उसमें भी रमेश का नाम आ गया। अब केवल साक्षात्कार बाकी था। वह भी ईश्वर की कृपा से सफल रहा। इसके पश्चात् दूसरा साक्षात्कार था, उसके लिए बोर्ड के सदस्यों ने हिदायत दी कि एक निबन्ध लिखो जिसमें भगवान का नाम न लिखो और अपने को आदर्श बनाकर दर्शाओ। रमेश ने बताया-जब मुझे निबन्ध लिखने को कहा गया और चेतावनी दी गयी थी, पर मैंने उसमें भगवान का जिक्र भी किया और आदर्श दूसरे को दर्शाया। इस प्रकार वह चयनित होने से रह गया, लेकिन साथ में उसका कहना था कि जाते समय ही मुझसे कह दिया था तुम सेना में भर्ती होने जा रहे हो, फेल हो जाना और मैं सोचता था कि बीबी का दिल नहीं चाह रहा है, इसलिए मैं फेल हो गया, परन्तु पास न होने की कोई बात ही न थी।

मैंने टी0वी0 बनाने के लाइसेंस का प्रार्थना पत्र दिया था, उसमें हम थे, ग्रुप बनाया गया, राधाकिशन कपूर, साथ में सुभाष मेरा लडका, ओम धवन तथा मेरा साला प्रकाश धवन। प्रार्थना पत्र स्वीकृत हो गया। इसमें तकनीकी पार्टनर एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर था। हमें बड़ी प्रसन्नता हुई। जिस काम के बारे में कभी सोचा नहीं था, इस प्रकार अच्छी तरह बन जाना बहुत बड़ी बात थी। वैसे इस काम में पहले से भी बड़ी रुचि थी और अब तो और अधिक बढ़ गई। मेरा इरादा था कि ठीक से इस कार्य को किया जाये। अभी सर्विस उपलब्ध है।

कुछ दिनों से सुभाष को नजरन्दाज कर रखा था। मैं सुभाष को लेकर एक्स.ई.एन. के बंगले पर गया। एक्स.ई.एन. भी डेरा इस्माईल खां का था, पर उसे कुछ मजबूरी थी। जबकि सेलेक्शन के समय भी उसके चेहरे पर ऐसा भाव देखा था और आज भी, परन्तु बातचीत के समय उसने मुझसे कहा कि सुभाष सामने बैठा है, यह जिम्मेदार नहीं है। इसके मातहत और भी काम करते हैं। जब अफसर ही ड्यूटी से गैर हाजिर रहेगा, तो दूसरों का काम कैसे निगरानी करेेगा। सुभाष ड्यूटी से गैर हाजिर रहता है। मेरे कहने व प्रार्थना करने से उसे डैम की ड्यूटी से हटा दिया, परन्तु पास ही दफ्तर में लगा लिया, जहाँ से सुभाष खाना खाने घर आ सकता था तथा वापस जा सकता था। जीप भी उसके पास थी। मैंने इसे ठीक ही समझा। ईश के जन्म के बाद सन 1974 में सुभाष गोवा गये। सुभाष ने मुझसे कहा – पिताजी तनख्वाह नहीं मिली, इसलिए घर आ गये। मैंने इस विषय में ज्यादा विवरण उनसे नहीं मालूम कर सका। बच्चे अगर आ गये तो अच्छा लगता है परन्तु वहाँ क्या हुआ कैसे हुआ, कुछ पता न चल सका। सुभाष बाद में वहाँ जाने से बचता व कतराता था।

अन्त में वहाँ जाकर पता किया तो मालूम पड़ा कि सुभाष का नाम कट गया है। पूछने पर इतना ही पता लगा कि अगर सरकारी किसी अस्पताल का बीमारी प्रमाण पत्र हो तो शायद कुछ आस हो सकती है। मैं तो जितनी दौड़-धूप हो सकती थी और जिस योग्य था करता, परन्तु सुभाष को जैसे इस कार्य में कोई रुचि ही नहीं थी। वह चुप ही रहता था। आगे मुझे अन्धकार दिखाई पड़ने लगा कि क्या कैसे होगा। अगर गिराना ही था तो उठाया ही क्यों, यही विचार मन में आते रहते। मुसीबतों से जूझने की जैसे आदत हो गई थी, मगर हालात में अब बड़ा फर्क था। ऐसी हालत में बर्दाश्त करना कठिन था। एक दिन सुभाष ने मुझसे कहा – पिताजी जिस आफीसर ने मुझे नौकरी से निकाला था, वह भी मोदी था और अब सम्भवतः उसे अनुमान हुआ है कि मैंने गलती की है और क्यों उसे नौकरी दे दी। अब आप समझ गये होंगे, एक बाप अपने प्रथम श्रेणी इन्जीनियर बेटे की जबान से ऐसी बेसिर पैर की बात सुनकर कितना रोया होगा। मेरी सहनशक्ति और हौसला था, जो मैंने यह बात सुनकर चेहरे पर शिकन भी न आने दिया। यही समझा परीक्षा के दिन हैं और सम्भवतः पूरे नहीं हुए।

मैंने सुभाष के लिए दौड-धूप प्रारम्भ कर दी, उसे लेकर कई जगह गये। योगेन्दर पाल की कोठी पर गये, सरदार ने भी अपने बेटे को हमारे साथ भेजा। जो महकमे में वजीर थे उसके बेटे और मुबातिक के बेटे में दोस्ती थी। उससे मुलाकात भी हुई, पर कोई उम्मीद नहीं दिखाई पड़ी। मुझे असफलता पर बडा दुख होता था जो आदमी दिन रात कांगे्रस के लिए मेहनत करता था, पाण्डे साहब के हाथ में था और जोर भी था, परन्तु अब तक उनकी बात को गौर से सुना नहीं। उनसे मुलाकात होना भी कठिन था। खुद तो खराब और को क्यों खराब कर रहा हूँ। बावजूद पूरी कोशिश और कई चक्कर काटने से भी कोई रास्ता नहीं मिला तो मुझे अपने उन दिनों की याद आ गई जब मैं अपने निजी काम से। खान साहब बंगले पर पहुँचा था और उसने मुझे बजाजी का, जितना मैं हकदार था पूरा रुपया दिलवाया था। कितना फर्क था उस समय के और अबके हालात में, एक पठान नेता और पंजाबी नेता में। मेरा सब कुछ लुटा जा रहा है और किसी नेता को इतना समय नहीं कि हमारी दुख भरी फरियाद तो सुन सके और आखिर में एक सिफारिशी रुक्का मिला भी, तो वो भी गलत था, जो उसने चेयरमैन बिजली बोर्ड को लिखा था, जबकि सुभाष का काम सिंचाई विभाग का था। उस दिन मुझे लगा शायद भगवान को यह मन्जूर नहीं। इसके पश्चात् होशियारपुर में दावा कर दिया। मैं खुद तो सर्विस कर नहीं सकता था, और सुभाष तो एक तारीख पर भी नहीं गया। जब खुद ही इतना सुस्त हो तो औरों ने क्या करना होता है। फिर वही हुआ कि दावा खारिज हो गया।

राधा कृष्ण कपूर

जन्म - जुलाई 1912 देहांत - 14 जून 1990

3 thoughts on “स्मृति के पंख – 42

  • Man Mohan Kumar Arya

    इस किश्त में भी राधा कृष्ण जी गर्दिश में दिखाई दे रहें हैं। एक पंक्ति सुनी थी की हंसने की चाह ने कितना मुझे रुलाया है। पता नहीं यह पंक्ति यहाँ फिट होती है या नहीं? लेखक की वर्णन शैली काबिले तारीफ़ है।

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    कितनी तकलीफ भरी ज़िन्दगी राधाकृष्ण जी ने सही , जिस पुत्रों पे आशाएं थीं वोह भी कोई परवाह नहीं करते थे .

  • विजय कुमार सिंघल

    अपने पुत्रों की लापरवाही के प्रति लेखक की चिंता समझ में आने वाली है.

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