गीतिका/ग़ज़ल

नज़्म – सुबह का इंतज़ार

क्या अजब है कि सब पीर पिये जाता है,
हाले – पामाल को तक़दीर किये जाता है।

तू भी रहता है इसी शहर में मेरे साथ कि जब,
तू भी  वाबस्ता है  इस  शहर के हालातों से,
आँखें  तेरी  भी  हर इक ओर नज़र करती हैं,
जूझता तू भी है जीवन के सवालातों से।

फिर भी खामोश है, चुपचाप सहे जाता है,
हाले – पामाल को तक़दीर किये जाता है !

खुदकुशी करते, सिसकते हैं जहाँ मेहनतकश,
गोश्त कमसिन का सरे-आम जहाँ बिकता है,
फैज़ की चाह  में खिरदमंद भटक जाएँ जहाँ,
चंद सिक्कों के लिये ईमान जहाँ डिगता है।

ऐसे  माहौल में तू कैसे, जिये जाता है,
हाले – पामाल को तक़दीर किये जाता है।

चन्द लोगों की लबे-दस्त जहाँ हैं खुशियाँ,
जिनकी मर्जी  से ही कानून बदल जाते है,
कुफ्र इक शौक है, इंसाफ तमाशा है जिन्हें,
कत्ल करते हैं मगर साफ निकल जाते हैं।

ऐसे मयगाह में  तू कैसे  पिये  जाता है,
हाले – पामाल को तक़दीर किये जाता है।

कब तलक सर्द रहेगा तेरे  ग़ैरत का  लहू,
कब तलक अस्मते-खुद को तू लुटता देखेगा,
कब  तलक आह न निकलेगी तेरे ओठों से,
कब तलक जुल्मो-सितम को चुपचाप सहेगा।

देखना है की तू नींद से न उठेगा कब तक,
हाले – पामाल को तक़दीर करेगा कब तक।

कैसी मजबूरी है कि खामोश है सब जोशो-जुनूँ,
कौन सी  लाचारी तेरे  पाँव जकड़ रखती  है,
क्या कोई दिल भी धड़कता है तेरे सीने में,
देखना है कि एहसास कोई बाकी भी है।

आदमी है तो कुछ कर के दिखा दे याराँ,
हाले – पामाल को किस्मत से मिटा दे याराँ।

कब  अंधेरा  कोई  खुद  से मिटा  करता  है,
कब तलक आस तू पालेगा किसी  सूरज की,
ये अलख,  क्रांति की, तुझको ही जगानी होगी,
अब तो उठ ‘होश’,सहर तुझको ही लानी होगी।

पीर  –  पीड़ा ; हाले-पामाल  – दुर्दशा
वाबस्ता  –  प्रभावित, जानकारी होना
फ़ैज़ – लाभ ; खिरदमंद  –  बुद्धि जीवी
माहौल – वातावरण ; लबे-दस्त – पहुँच में
कुफ्र – गलत काम, पाप ; मयगाह – शराब घर
ग़ैरत – स्वाभिमान ; अस्मत – इज़्जत
सहर – प्रभात, सुबह

मनोज पाण्डेय 'होश'

फैजाबाद में जन्मे । पढ़ाई आदि के लिये कानपुर तक दौड़ लगायी। एक 'ऐं वैं' की डिग्री अर्थ शास्त्र में और एक बचकानी डिग्री विधि में बमुश्किल हासिल की। पहले रक्षा मंत्रालय और फिर पंजाब नैशनल बैंक में अपने उच्चाधिकारियों को दुःखी करने के बाद 'साठा तो पाठा' की कहावत चरितार्थ करते हुए जब जरा चाकरी का सलीका आया तो निकाल बाहर कर दिये गये, अर्थात सेवा से बइज़्ज़त बरी कर दिये गये। अभिव्यक्ति के नित नये प्रयोग करना अपना शौक है जिसके चलते 'अंट-शंट' लेखन में महारत प्राप्त कर सका हूँ।

One thought on “नज़्म – सुबह का इंतज़ार

  • Manoj Pandey

    ऐसा लगता है कि ये नज़्म किसी के समझ मे नहीं आयी है। हैरत है और अफसोस भी।

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