धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

मृतक श्राद्ध विषयक भ्रान्तियां: विचार और समाधान

ओ३म्

हिन्दू समाज आज कल अन्धविश्वासों का पर्याय बन गया है। श्राद्ध शब्द को पढ़कर धर्म-कर्म में रूचि न रखने वाला एक अल्प ज्ञानी सामान्य व्यक्ति भी समझता है कि श्राद्ध अवश्य ही श्रद्धा से सम्बन्ध रखता है। जिस प्रकार से देव से देवता शब्द बनता है उसी प्रकार से श्रद्धा से श्राद्ध बनता है। श्रद्धा उन पारिवारिक जनों व विद्वानों के प्रति होती है जिनसे हमें कुछ लाभ हुआ होता है। हमारे माता-पिता व वृद्ध पारिवारिक लोग व आचार्यगण हमारी श्रद्धा के मुख्य रूप से पात्र होshradhते हैं। माता-पिता, दादी-दादा, प्रपितामही-प्रपितामह आदि के अतिरिक्त चाचा, ताऊ, बुआ, फूफा, मामा व मौसी आदि सभी संबंधियों के प्रति हमारी श्रद्धा व आदर का भाव होता है। अतः श्रद्धा पूर्वक उन जीवित अपने से अधिक आयु वालों को अपने सद्व्यवहार व सेवा से सन्तुष्ट रखना ही श्राद्ध व तर्पण हो सकता है। यदि हम माता-पिता, अन्य वृद्धों व आचार्यों, सभी को भोजन, वस्त्र व उनकी आवश्यकतानुसार धन आदि उन्हें देते हैं और वह हमारी इस सेवा व दान से प्रसन्न होते हैं तो हमारा यह कृत्य श्राद्ध व तर्पण में आता है। श्राद्ध है श्रद्धापूर्वक सेवा और तर्पण अपने आचरण व सेवा से उन्हें सन्तुष्ट करना। माता-पिता को सेवा की आवश्यकता तभी तक होती है जब तक की वह जीवित होते हैं। मरने के बाद अन्त्येष्टि द्वारा उनका शरीर भस्म कर दिया जाता है। उनका मुख, उदर व सभी शरीरांग जल कर नष्ट हो जाते हैं और कुछ मुट्ठी राख ही बचती है। अब चेतन तत्व हमारी व अन्यों की अनादि, अजर, अमर, आत्मा क्योंकि शरीर से पृथक हो जाती है अतः उसे भोजन की आवश्यकता नहीं होती। अब तो परलोक व परजन्म में उनका सहायक ईश्वर तथा उनके कर्म अर्थात् प्रारब्ध ही होते हैं। हम कुछ भी कर लें, हमारे कुछ भी करने से हमारे किसी मृतक सगे सम्बन्धी माता-पिता आदि को कोई, किसी प्रकार का व किंचित लाभ नहीं हो सकता। ईश्वर ने मनुष्य को बुद्धि इसलिए नहीं दी की वह किसी भी कार्य को इस लिए करे कि उसके पूर्वज व अन्य लोग इस कार्य को करते चले आ रहे हैं अपितु इसलिए दी है कि वह प्रत्येक कार्य को सत्य व असत्य का विचार कर करे।  यदि श्राद्ध को देखे तो इससे हमारे ब्राह्मण वर्ग के पुरोहितों को विशेष आर्थिक व भौतिक लाभ होता है। वह अच्छा भोजन करते हैं और उन्हें कुछ वस्तु भी दान स्वरूप भेंट करनी होती हैं। किसी कार्य आदि से जिस व्यक्ति को कोई लाभ होता है तो उसका वह संस्कार बन जाता है। उसे कितना ही कोई मना करे, वह उस कार्य को छोड़ता नहीं है। रिश्वत, कामचोरी, शराब, मांसाहार जैसी बुरी आदतों की ही तरह हर कार्य जिससे किसी को कोई लाभ होता हो, उसे वह छोड़ नहीं पाता। अतः मनुष्य को स्वयं ही सत्य व असत्य का विचार करना चाहिये और असत्य को छोड़कर सत्य को ग्रहण करना चाहिये। इस कारण कि संसार में आपसे अधिक आपका कोई हितैषी नहीं है। और तो अपना प्रयायेजन सिद्ध करते हैं। अपना हित व अहित देखना और बुद्धि पूर्वक निर्णय करना आपका ही काम है, यह बात गांठ बांध लेनी चाहिये। यही मनुष्य जीवन का मुख्य कर्तव्य व उद्देश्य है।

श्राद्ध में जो भोजन ब्राह्मणों को कराया जाता है उससे उनकी क्षुधा की निवृति वा पेट भरता है। हमारे मृतक पूर्वजों का न तो हमें पता है और न हि हमारे श्राद्ध खाने वाले व बड़े से बड़े किसी विद्वान को कि वह आत्मायें जिनका श्राद्ध हो रहा है, वह कहां हैं? मृत्यु के बाद मृतक की आत्माओं की ओर से अपने किसी सगे सम्बन्धी को कभी भी अपना न तो कोई समाचार बताया जाता है और न हमारे हाल चाल ही पूछे जाते हैं। मरने के बाद मनुष्य सब कुछ भूल जाता है। परमात्मा की प्रेरणा से वह अपने कर्मों के अनुसार नई योनि में जन्म लेता है। मनुष्य जन्म लेने वाला कोई बच्चा यह नहीं बताता कि मैं पहले मरा हूं, वहां रहता था, अमुक नाम के लोग मेरे पुत्र-पुत्री थे, आदि आदि। कारण कि वह सब कुछ भूल चुका है। मनुष्य जन्म लेने में जीवात्मा को मात्र न्यूनतम गर्भावास में 10 महीनों का समय लगता है। किसी किसी मामले में कुछ अधिक भी हो सकता है। अब विचार कीजिए कि इस नये उत्पन्न शिशु का इसके पूर्व जन्म के पारिवारिक जनों ने श्राद्ध किया होगा तो इसको तो कभी भोजन मिलता उसे स्वयं व उसके परिवार जनों को अनुभव नहीं हुआ। यह तो जन्म लेने के बाद प्रातः सायं प्रतिदिन माता से भोजन पाता व करता है। यदि श्राद्ध के दिन इसके पूर्व जन्म की कोई सन्तान इसका श्राद्ध करे तो एक समय के भोजन की इसकी निवृत्ति होकर अनुभव भी होना चाहिये। ऐसा तो कभी किसी को मिलता ही नहीं है। यदि कोई यह मानता है कि श्राद्ध करने से पूर्वजों को भोजन पहुंचता है तो उन्हें प्रातःसायं दोनों समय पूरे वर्ष भर ही श्राद्ध करना चाहिये जैसे कि जीवित माता-पिता, दादी दादा व परदादी व परदादा को दिन में दो बार भोजन कराया जाता है। हर दृष्टि से मृतक श्राद्ध करना, तर्क, युक्ति व वेदादि शास्त्र विरूद्ध है। आर्य समाज के विद्वानों ने इस विषय का पर्याप्त साहित्य सृजित किया है। इनमें से एक ग्रन्थ ‘‘श्राद्ध निर्णय” वेदों के शीर्ष विद्वान पं. शिवशंकर शर्मा काव्यतीर्थ जी का रचा हुआ है। उसमें श्राद्ध के सभी पहलुओं पर विस्तार से विचार कर निर्णय किया गया है कि मृतकों का श्राद्ध अन्धविश्वास के अलावा कुछ नहीं है। यह भी बता दें कि हमारे यह पण्डित जी व हम भी पहले पौराणिक परिवारों के रहे हैं जहां मृतक श्राद्ध होता था और हमारे सम्बन्धी जो अज्ञान में फंसे हुए हैं, वह अब भी मृतक श्राद्ध करते हैं। अभी तक सनातनी कहे जाने वाले हमारे बन्धुओं ने कोई ऐसा प्रमाण व युक्ति नहीं दी है जिससे श्राद्ध को युक्ति व तर्क से सिद्ध किया जा सके। अतः बुद्धि से विचार कर हमें केवल अपने जीवित माता-पिता व परिवार के सभी वृद्ध जनों जिन्हें हमारा भोजन, वस्त्र, ओषधि वा चिकित्सा आदि के रूप में किसी भी प्रकार से सेवा की आवश्यकता है, हमें कर्तव्य पूर्वक प्रतिदिन प्रातः व सायं उनकी यथोचित सेवा करनी चाहिये। अपनों की तो सेवा सभी को करनी है, इसके साथ हि सभी ज्ञानी व वृद्ध लोगों का भी सेवा सत्कार यथा सामर्थ्य सभी को करना चाहिये। यही मनुष्य धर्म व वैदिक धर्म है। यदि हम बुद्धिपूर्वक कार्य करेंगे और अन्धविश्वासों का त्याग करेंगे तो हम वैदिक काल के अपने स्वर्णिम वैभव को पुनः प्राप्त कर सकते हैं। हम भविष्य में पराधीनता व निजी व अपनी जाति व समाज के लोगों के अपमान से बच सकते हैं जैसा कि मध्यकाल, मुस्लिम व व्रिटिश शासन आदि में हमारे पूवजों को झेलना पड़ा है। यदि ऐसा नहीं करेंगे और बीती बातों से सबक व शिक्षा नहीं लेंगे तो उन घटनाओं की पुनरावृत्ति हो सकती है। ठोकर लगने पर जो न सम्भले उसका जो हश्र होता है, वही हश्र हमारा पुनः हो सकता है।

एक अन्य दृष्टि से भी श्राद्ध पर विचार करते हैं। हम इस समय 63 वर्ष के हैं। जब 63 वर्ष पूर्व पूर्व जन्म लेकर पूर्व जन्म की मृत्यु के बाद हम इस जीवन में आये तो सम्भव है कि हमारा 30 से 35 वर्ष का कोई पुत्र रहा होगा जो अब लगभग 93 वर्ष का होगा। उसका पुत्र भी लगभग 63 का और उस 63 वर्षीय का पुत्र लगभग 33 वर्ष का हो सकता है। इस प्रकार से पूर्व जन्म के हमारे पोते और पड़पोतों का जीवित होना सम्भव है। हमें अपने विगत 63 वर्षों के जीवन में इन सभी वंशजों से कभी श्राद्ध नाम का भोजन मिला हो, ऐसा अनुभव नहीं हुआ और न हि उससे होने वाली तृप्ति अनुभव हुई। संसार में सम्प्रति 7 अरब लोग हैं, शायद इसका एक भी गवाह नहीं मिलेगा जो दावा करे कि कभी उसके पूर्व जन्म के वशंजों के श्राद्ध से उसकी क्षुधा व अन्य कोई समस्या हल हुई हो। अतः यह मृतक श्राद्ध अन्धविश्वास ही सिद्ध होता है। महाभारतकालीन व पूर्व के साहित्य मुख्यतः वेद आदि में मृतक श्राद्ध आदि का कहीं कोई वर्णन नहीं है। अतः मृतक श्राद्ध असिद्ध है और अन्धविश्वास से अधिक कुछ नहीं है। यह भी कहना है कि हमारे कुछ ग्रन्थों में मध्यकाल में कुछ स्वार्थी लोगों ने प्रक्षेप कर दिये थे। यदि कहीं कोई उल्लेख मृतक श्राद्ध के पक्ष में है तो उस पर युंक्ति पूर्वक विचार होना चाहिये। हर विद्वान, पुस्तक व ग्रन्थ लेखक को अपनी मान्यता के सम्बन्ध में तर्क व प्रमाण देने चाहिये। यदि कोरा प्रवचन हो तो उसे बुद्धि, युक्ति व तर्क हीन होने पर स्वीकार नहीं करना चाहिये। हम आशा करते हैं कि पाठक हमारे विचारों से सहमत होंगे। हम निवेदन करते हैं कि महर्षि दयानन्द, ईश्वर व आप्त विद्वानों व ऋषि-मुनियों द्वारा प्रदत्त वैदिक साहित्य को पढ़कर अपने जीवित पितरों का श्रद्धापूवक सेवा सत्कार नित्य प्रति कर उनकी आत्माओं को सन्तुष्ट व प्रसन्न करें और ऐसा करके लौकिक और पारलौकिक उन्नति करें, यही वेद, शास्त्र और ऋषि दयानन्द सम्मत है।

मनमोहन कुमार आर्य

7 thoughts on “मृतक श्राद्ध विषयक भ्रान्तियां: विचार और समाधान

  • विजय कुमार सिंघल

    मान्यवर, आपका लेख बहुत अच्छा और तार्किक है। मैं इससे पूरी तरह सहमत हूँ। यह मानना कि पंडित-पंडितानी को भोजन करा देने से वह भोजन हमारे पितरों तक पहुँच जाएगा सरासर मूर्खता है। हमें ऐसी ग़लतफ़हमी नहीं पालनी चाहिए।
    लेकिन इस प्रथा का एक सकारात्मक पहलू भी है कि इसी बहाने हम अपने पूर्वजों को याद कर लेते हैं। हालाँकि उनको याद करने के और भी तरीके हो सकते हैं।
    इसमें कोई संदेह नहीं कि तमाम परंपराओं की तरह यह भी विकृति का शिकार हो गयी है।

    • Man Mohan Kumar Arya

      नमस्ते एवं धन्यवाद आदरणीय श्री विजय जी। आपकी टिप्पणी सर्वांश में सत्य है। इस प्रथा के कारण हमारे निर्धन बंधू जिन के पास दो समय का भोजन कठिनता से जुड़ता है, बुरी तरह से ग्रसित होते हैं। इस दिन तो घर के सभी जीवित माता पिता एवं पितरों को नए वस्त्र व उपयोग की सामग्री देने के साथ अच्छे से अच्छा भोजन जो उन्हें अनुकूल हो करना चाहिए और उनकी सद्भावनापूर्वक सेवा करने का व्रत लेना चाहिए।

      • Man Mohan Kumar Arya

        नमस्ते श्री विजय जी। आपसे निवेदन है कि आप कृपया इसी लेख पर श्री गुरमेल सिंह जी की टिप्पणी पर मेरे उत्तर मुख्यतयाः स्वामी दयानंद के स्वयं के लिखे वचनों को देखने का कष्ट करें। इसे पढ़कर मेरा मन देश पर उनके ऋण को सोच कर दुःख से भर गया कि उन्होंने देश व समाज के प्रति जिस भावना से कार्य किया, हमारे देश वासियों ने उनका समुचित सत्कार आज तक भी नहीं किया।

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    मनमोहन जी ,लेख बहुत अच्छा है ,अगर इस को पड़ कर किसी को लाभ हो जाए तो कहने ही किया . आर्य समाज तो इन कुरीतीओं को दूर करने की कोशिश कर रहा है लेकिन हिन्दू समाज इस को समझे तो फिर ही कुछ तबदीली संभव है .

    • Man Mohan Kumar Arya

      नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद श्री गुरमेल सिंह जी लेख पसंद करने के लिए। आपके वाक्य एवं मेरे पुरुषार्थ का प्रभाव कुछ न कुछ अवश्य होगा इसलिए कि कर्म फल सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक कर्म का भूमि में डाले गए बीज की तरह प्रभाव अवश्य होता है। हिन्दू समाज के लोग बहुत भोले भाले लोग हैं। वह तो सांप की पूजा भी करते हैं। परन्तु इनके धार्मिक नेता इनके साथ न्याय न कर इनको अज्ञान व स्वार्थपूर्ण शिक्षा देते हैं। दूसरी बात यह है कि सत्य के प्रचारकों की भी कमी है। महर्षि दयानंद ने शायद कभी कहा था कि मेरे जैसे दस-बीस या सहस्रों वेद प्रचारक हों तो सामाजिक दशा बदल सकती है। मैं यहाँ महर्षि दयानंद के अपने कुछ विचार प्रस्तुत कर रहा हूँ। वह लोगो को अपने माता पिता व स्वजनो का नाम व पता न बताने का कारण बताते हुए कहते हैं कि “ऐसा करने पर माता पिता आदि में से जो जीवित होगा वह मेरे पास आ सकता है। मुझे उनकी सेवा करनी कर्तव्य होगी। और इससे उनके मोह में पड़कर सर्व सुधार का वह उत्तम काम, जिसके लिए मैंने अपना जीवन अर्पण किया है, जो मेरा यथार्थ उददेश्य है, जिसके अर्थ स्वजीवन बलिदान करने को किंचित विचार नहीं किया और अपनी आयु को भी बिना मूल्य जाना, और जिसके अर्थ मैंने अपना सब कुछ स्वाहा करना अपना मंतव्य समझा, अर्थात देश का सुधार और धर्म का प्रचार, वह देश पूर्ववत अंधकार में पड़ा रह जाता।” यदि महर्षि दयानंद के अकेले कार्य करने से वर्तमान की जैसी सामाजिक चेतना उत्पन्न हो सकती है तो फिर यदि उनके मिशन में कोई थोड़ा बहुत भी आहुति देगा तो उसका कुछ न कुछ प्रभाव अवश्य होगा। सादर।

      • विजय कुमार सिंघल

        आपका उत्तर बहुत प्रेरक है, मान्यवर ! ऋषि दयानंद ने वैदिक धर्म के उत्थान एवं प्रचार के लिए जितने मानसिक और शारीरिक कष्ट सहे थे, उनकी कल्पना करके ही हमारा मस्तक उनके प्रति श्रद्धा से झुक जाता है।
        जब हम आजकल के तथाकथित धर्म प्रचारकों के पंचतारा होटलों जैसे रहन-सहन को देखते हैं तो सिर शर्म से झुकता है।

        • Man Mohan Kumar Arya

          नमस्ते एवं धन्यवाद। आपके प्रेरणादायक शब्दों को पढ़कर मेरे उत्साह में वृद्धि होती है। साभार।

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