संस्मरण

मेरी कहानी 65

तहसीलदार का काम हो गिया था और यह बड़ा काम था किओंकि मैंने सुन रखा था कि यह तहसीलदार बहुत सख्त था और फ़ाइल में छोटी सी गलती भी होने से फ़ाइल को रिजेक्ट कर देता था और सब कुछ फिर से शुरू करना पड़ता था। अब तहसीलदार का मुंह दुबारा नहीं देखना पड़ेगा, इस बात से मुझे संतुष्टि हो गई थी। मेरा एक दोस्त था कुलदीप सिंह, उस का पासपोर्ट बन चुका था और वोह मेरी भी मदद कर रहा था। यह कुलदीप रहाणा जट्टां गाँव का रहने वाला था। इस के पिता जी ऑस्ट्रेलिया काम करते थे और कुलदीप ने बताया था कि उस का डैडी १५ साल बाद इंडिया आया था और वोह उस वक्त बहुत छोटा था और उसे कुछ भी याद नहीं था। यह कुलदीप देखने में भी पियारा लगता था और बात करने में भी ऐसा लगता था जैसे उस के मुंह से फूल गिर रहे हों। कुलदीप को सभी लड़के कुल्लो कह कर पुकारते थे और एक दिन मैंने भी कह दिया, “कैसे ओए कुल्लो?”. वोह खिल खिला कर हंस पड़ा और बोला, “कैसे ओए गुल्लो?”. देर तक हम दोनों हँसते रहे। इस के बाद हम एक दूसरे को कुलो गुलो कह कर ही पुकारने लगे थे। फिर कुलदीप ने मुझे पूछा, “तुमारे पेपर पुलिस स्टेशन चले गए क्या ?” मैंने कहा कि मुझे पता नहीं था। कुलदीप बोला, “चल अभी जा कर पता करते हैं, और एक बात मैं तुझे कहता हूँ, अगर काम जल्दी करना है तो पैसों की कंजूसी मत करना”. और हम पुलिस स्टेशन की ओर चल पड़े।

वहां पौहंच कर बड़े दरवाज़े के नीचे से जिस का उपरला हिस्सा गोल था जिस पर बड़े बड़े अक्षरों में लिखा था पुलिस स्टेशन। आगे दो पुलिस के आदमी खड़े थे जिन के पास डंडे थे और उन की पगड़िओं पर लाल रंग की पट्टी थी। एक भय सा लगा उन को देख कर जैसे वोह यम राज हों। आगे गए तो एक बड़े से टेबल के पास कुर्सी पे एक मुंशी बैठा था जिस के पास कुछ गंदे से रैजिस्टर पड़े थे। कुलदीप ने जाते ही उस को सत सिरी अकाल बोला और उन से हाथ मिलाया और मैंने भी ऐसा ही किया। कुलदीप उस को बोला, “सरदार जी जरा गुरमेल के कागज़ तो देखो, आ गए हैं या नहीं”. उस ने रैजिस्टर देखा और कहा कि आ गए थे। फिर कुलदीप बोला, बादशाओ, जरा इन पे घुगी मार दो यानी दस्खत करा दो। वोह मुंशी सीधा ही बोला, “घुगी मारने के दस रूपए लगेंगे “मैंने फट से बीस रूपए निकाल कर दे दिए और बोला, बादशाओ तुम दस किया बीस ले लो लेकिन काम जल्दी होना चाहिए। वोह तो खुश हो गिया और सारे कागज़ ले कर पता नहीं किस कमरे में गिया और दस मिनट में वापस आ गिया। फिर वोह बोला, “हम यह कागज़ कपूरथले को पोस्ट करने हैं लेकिन मैं तुम्हें ऐसे ही दे देता हूँ और तुम खुद कपूरथले डीसी के दफ्तर ले जाओ और वहां हैड क्लर्क है, उस को दे देना और मेरा नाम ले देना कि मैंने दिए हैं। वोह काम जल्दी कर देगा। उस हैड क्लर्क का नाम मुझे अब याद नहीं। हमें हैरानी हुई कि कितना बड़ा रिस्क वोह ले रहा था कि कागज़ हमें ऐसे ही पकड़ा दिए।

ख़ुशी ख़ुशी हम पुलिस स्टेशन के बाहर आ गए और मैंने कुलदीप का धन्यवाद किया और मैं उसी वक्त बस अड्डे पर पौहंच गिया और कपूरथले की बस में बैठ गिया। इस के बाद कुलदीप के दर्शन कभी नहीं हो सके, हो सकता है वोह अपने पिता जी के साथ ऑस्ट्रेलिआ को रवाना हो गिया हो। इस से पहले मैं कभी कपूरथले गिया नहीं था। दो घंटे में मैं कपूरथले पौहंच गिया। बस में बैठे बैठे मैंने कपूरथले का नज़ारा लिया। यह शहर कभी महाराजा जगतजीत सिंह का शहर हुआ करता था . महाराजा ने यह शहर वर्सेल्ज़ के डिज़ाइन का बनाया हुआ था, इस की सड़कें पैरस की सड़कों की तरह थी। कई जगह मैंने संतरे के बृक्ष देखे जो पहले कभी नहीं देखे थे। जगह जगह लाल रंग की बड़ी बड़ी बिल्डिंग थीं जिस में अब सरकारी दफ्तर खुले हुए थे। ज़्यादा तो मैं देख नहीं सका लेकिन कुछ साल बाद जब मैं किसी काम के लिए कपूरथले फिर आया था तो बहुत कुछ देखा था। जल्दी ही मैं डीसी ऑफिस पौहंच गिया। यह बिल्डिंग भी महाराजा जगतजीत सिंह की ही कोई इमारत थी जो बहुत बड़ी थी और बाहर से लाल रंग की थी।

पूछता पूछता मैं सैकंड फ्लोर पर हैड क्लर्क के दफ्तर में पौहंच गिया। वहां एक गुरसिख सरदार जी बैठे थे। मैंने सतसिरी अकाल बोला और अपने आने का मकसद बताया और फगवाड़े वाले मुंशी का नाम भी बताया कि उसने मुझे भेजा था। सरदार जी बहुत अछे इंसान थे। कभी कभी सोच आती है कि अगर ऐसे अफसर हों तो भारत में स्वर्ग ना बन जाए !  सरदार जी फ़ाइल को धियान से देखने लगे। फिर उन्होंने कोई रेजिस्टर देखा, कुछ नोट किया और आ कर कुर्सी पर बैठ गए और बोले, मेरा असिस्टैंट कहीं गिया हुआ है, तुम बाहर बरामदे में बैंच पर बैठ जाओ, उस के आने पर सब काम हो जाएगा। तकरीबन एक घंटे बाद एक सिंह जो पाजामा पहने हुए और हाथ में झोला सा था आया और हैड क्लर्क के कमरे में घुस गिया। कोई दस मिनट बाद वोह मेरी फ़ाइल ले कर कहीं दूर किसी कमरे में चला गिया और कोई पंद्रा मिनट बाद आ गिया और मेरे पास आ कर बैंच पर बैठ गिया। वोह फ़ाइल के पेजज़ पलटने लगा और कुछ देर बाद बोला, “अच्छा सरदार जी दस रूपए निकालो”. मैं तो पहले ही तैयार था लेकिन उसी वक्त दफ्तर में से सरदार जी बाहर निकल आये और उसको धीमे से बोले, “नहीं रहने दो “और सरदार जी फिर वापस दफ्तर में चले गए। लेकिन यह यमराज का बच्चा लगता था मुझे सूखा छोड़ने वाला नहीं था और फ़ाइल के पन्ने पलटता पलटता वक्त बर्बाद कर रहा था, फिर धीरे से मुझे बोला, “अच्छा, मैंने पैन्सल लेनी है, पांच ही निकालो”. सरदार जी एक दम दफ्तर से फिर बाहर आ गए जैसे बातें सुन ही रहे हों और उस से फ़ाइल जैसे खींच कर मुझे पकड़ा दी। हैड क्लर्क सरदार जी मुझ से बातें करने लगे कि मैंने इंग्लैण्ड में जाकर किया करना था, मेरा वहां कौन था। और भी काफी बातें कीं। यकीन के साथ कह सकता हूँ कि ऐसा इंसान जिंदगी में मुझे कभी नहीं मिला, इतना इमानदार, वोह मुझे अभी तक याद हैं।

सरदार जी का धन्यवाद किया और वहां से चल पड़ा। बाहर आ कर जल्दी जल्दी एक रेहड़ी से आलू छोले और दो कुलचे खाए और बस पकड़ने के लिए चल पड़ा। याद नहीं बस अड्डे से ही पकड़ी या सड़क पर से ही लेकिन जल्दी ही मैं फगवाड़े की ओर सफ़र कर रहा था। फगवाड़े पौहंच कर जल्दी जल्दी एस डी ऐम के दफ्तर की ओर चल पड़ा। ऐस डी ऐम का दफ्तर मेरे ट्रैवल एजेंट जोशी के नज़दीक ही था और डाक्टर बग्गा की सर्जरी के बिलकुल सामने सड़क की दुसरी ओर था । दफ्तर बंद होने में अभी आधा घंटा बाकी था। उस वक्त ऐस डी ऐम के दफ्तर में दो क्लर्क होते थे, एक था गुप्ता और एक था राधा। यह दोनों के बारे में मशहूर था कि यह घूस बहुत लेते थे। जितनी देर कोई घूस नहीं देता था यह पासपोर्ट के पेपर दिली को डेस्पैच नहीं करते थे। जब मैं वहां पौहंचा तो उस वक्त राधा ही था। मैंने फ़ाइल राधे को पकड़ाई और हंस कर उससे बोला, “बाई राधे मेरे पेपर जल्दी दिली को भेज दे क्योंकि अब मुझे पार्टी तो करनी ही है और मेरा मन भी अब बहुत करता है पार्टी करने को क्योंकि पता नहीं इंग्लैण्ड की सीट कब पक्की हो जाए।

राधा शायद मेरा इशारा समझ गिया था और बोला, “फ़िक्र न कर, साहब शुकरवार को सभी फाइलों और अन्य पेपरों को देख कर साइन करेंगे और मैं उसी दिन तुम्हारे कागज़ दिली को पोस्ट कर दूंगा। मैं ऐस डी ऐम के दफ्तर से बाहर निकला और एक दूकान की ओर चल पड़ा यहां मैंने अपना बाइसिकल रखा हुआ था। भूख लगी हुई थी लेकिन सोचा अब तो घर जा कर ही खाऊंगा। गाँव की ओर मैं चल पड़ा। आज मैं बहुत खुश था, आज मैंने एक दिन में ही कई हफ़्तों का काम कर दिया था। सारे काम हो गए थे, अब तो आख़री आशा दिली से ही रह गई थी। घर आ कर खाना खाया और सो गिया। दूसरे दिन सुबह उठा और फिर जोशी के दफ्तर की ओर गिया और उसे बताया कि कागज़ अब ऐस डी ऐम के दफ्तर में आ गए थे। जोशी कुछ मुस्कराया और बोला, “जल्दी पेपर दिली को भेजने हैं तो राधे के मुंह पर चांदी की जुत्ती मार देना, यानी उस को कुछ परसाद दे देना”. जोशी की बात मैं समझ गिया और कालज की ओर चले गिया। वहां कुछ लड़के मिले जो पहले भी मिलते थे और इंग्लैण्ड के पासपोर्ट के लिए ही घुमते रहते थे। राधा और गुप्ता की बातें बहुत होतीं थीं कि यह दोनों बहुत बुरे थे।

जैसा सुना था राधा वैसा ही निकला और उस ने कहने के मुताबक कागज़ दिली को नहीं भेजे थे, बहाने करने लगा कि साहब ने दस्तखत नहीं किये थे। मैं हर रोज़ आता लेकिन राधा कोई न कोई बहाना बना देता। अब तो मैं बहुत दुखी हो गिया और एक दिन मैंने उस को कह दिया कि मैं सीधा साहब के दफ्तर में चला जाऊँगा। इस बात से राधा कुछ हिल गिया और बोला, “गुरमेल सिंह कल आना, कल तो मैं काम करवा ही दूंगा”. मैं वापस गाँव आ गिया और दूसरे दिन जब मैं राधे को मिला तो वोह कहने लगा, “गुरमेल तेरा काम हो गिया है और यह ले डेस्पैच नंबर”. उस ने एक पेपर दिया, जिस पर नंबर लिखा हुआ था और जब मैंने डेट देखी तो हैरान हो गिया क्योंकि एस डी ऐम ने दसतख़त दूसरे दिन ही कर दिए थे जिस दिन मैं कागज़ों की फ़ाइल दे कर गिया था और पेपर दिली को भेज दिए गए थे । मुझे बहुत गुस्सा आया लेकिन चुप रहा। राधा बोला, “गुरमेल अब पार्टी कब देनी है?”. मैंने कहा कि अगले हफ्ते आ कर पार्टी दूंगा और मैं चला आया। मेरे मन में एक तो गुस्सा था दूसरे मुझ को पता था अब राधा कुछ नहीं कर सकता था क्योंकि यहां का काम खत्म हो गिया था और मैंने भी सोच लिया था कि इस राधे के बच्चे को कुछ नहीं दूंगा।

घर आ कर मैंने दो दिन आराम किया और सोमवार को दिली जाने का इरादा कर लिया। जनता मेल रात आठ वजे फगवाड़े रेलवे स्टेशन से चलती थी। शाम को ही मैं सतनाम पुरे अपनी मासी के घर आ गिया। मैं पहले लिख चुक्का हूँ मेरी मासी का घर शूगर मिल के नज़दीक रेलवे लाइन्ज़ के बिलकुल नज़दीक था और इस एरिये को सतनाम पुरा कहते हैं और यह एरिआ हमारे कालज तक जाता है। मासी के घर मैंने अपना साइकल रखा और रेलवे लाइन्ज़ के साथ साथ रेलवे स्टेशन की ओर जाने लगा। मासी के घर से रेलवे स्टेशन दस मिनट दूर ही था। मैंने टिकट लिया और ट्रेन में बैठ गिया। अब तो पता नहीं लेकिन उस वक्त यह ट्रेन हर छोटे बड़े स्टेशन पर खड़ी होती थी, इस लिए शाम को चल कर सुबह आठ वजे दिली पौहंचती थी। सारी रात बारा घंटे का सफर होता था, ( अब तो चार घंटे में शताब्दी पौहंच जाती है ). जब ट्रेन दिली पौहंची तो हाथ मुंह धोया और कुछ खाने के लिए एक स्टाल पर गिया। स्टाल वाला बोला, “साहब टोस्ट बना दूँ?” मैंने कहा बना दो। उस ने दो टोस्ट कोयले की अंगीठी पर बनाये। ज़िंदगी में पहले मैंने कभी टोस्ट नहीं खाए थे, उस ने ऊपर बटर लगाया और दो टोस्ट प्लेट में रख कर मुझे दे दिए लेकिन सच कहूँ मुझे बिलकुल स्वाद नहीं लगे शायद इस लिए कि मैंने पहले कभी खाए नहीं थे या यह कोयले पर बनाने के कारण कुछ जले हुए थे ।

मैंने किसी से पासपोर्ट ऑफिस का पता किया। कनॉट प्लेस से मैंने स्कूटर रिक्शा लिया और जल्दी ही एक बड़ी बिल्डिंग के पास पौहंच गिया। कुछ ट्रैवल एजेंट मेरे पीछे आ गए और मुझे कहने लगे कि वोह मेरा काम जल्दी करवा देंगे लेकिन अब मैं बहुत हुशिआर हो गिया था और हूँ हाँ करता रहा, एक सरदार जी मेरे साथ चलने लगे। इस सरदार से एक फायदा तो मुझे हो ही गिया कि वोह मुझे सीधा इन्फर्मेशन ऑफिस ले गिया और सब कुछ बता दिया कि किस जगह फ़ार्म भरके उस पर डेस्पैच नंबर लिखना था। यह मेरे लिए भी आसान हो गिया। एक बड़ा सा हाल कमरा था यहां बहुत लोग कुर्सिओं पर बैठे अपने अपने नंबर का इंतज़ार कर रहे थे। एक टेबल पर बहुत फ़ार्म पड़े थे। जैसा सरदार जी ने मुझे बताया मैंने उसी तरह फ़ार्म भरके ऑफिस में दे दिया और वापस आ कर दूसरे लोगों की तरह एक कुर्सी पर बैठ गिया। जिस का नाम बोला जाता वोह उठ कर पासपोर्ट ऑफिसर के दफ्तर में घुस जाता। जब उस का काम हो जाता तो किसी और का नाम बोला जाता। मैं कुर्सी पर बैठा अखबार पड़ने लगा जो मैंने क्नॉटप्लेस से खरीदी थी और अपना नाम बोलने की इंतज़ार करने लगा। वोह सरदार जी उठ कर चले गए थे और जाते जाते मुझे कह गए थे कि उसने पासपोर्ट अफसर से मेरे बारे में बोल दिया था लेकिन मैं सब समझता था। लगता था सरदार जी कोई और मुर्गा ढूंढने गए थे.

चलता …….

7 thoughts on “मेरी कहानी 65

  • विजय कुमार सिंघल

    भाई साहब, आपके अनुभव पढ़कर मजा आया. हालत में आज भी कोई बड़ा परिवर्तन नहीं है. आजकल पुलिस वाले वेरिफिकेशन के नाम पर घर आकर पैसे ले जाते हैं. हमें भी देने पड़े हैं हालाँकि सारा काम ऑनलाइन होता है.

    • विजय भाई , जो खून में रच गिया है लगता है उस को निकलने के लिए कोई मेडीसीन नहीं है .

  • Man Mohan Kumar Arya

    नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। पूरा विवरण पढ़ा। अब आप लक्ष्य पर पहुँच गए हैं। उम्मीद है कि शीघ्र काम हो जाएगा। हार्दिक धन्यवाद।

    • मनमोहन भाई , पासपोर्ट तो आखर में मिल ही गिया था लेकिन मैं उस समय के हालात बरीकी से लिखना चाहता हूँ कि हम अपनी सभियता का डंडोरा पीटते रहते हैं लेकिन हम कर किया रहे हैं .

      • Man Mohan Kumar Arya

        महर्षि दयानंद जी ने सत्यार्थ प्रकाश की भूमिका में लिखा है कि मनुष्य का आत्मा सत्य और असत्य को जानने वाला होता परन्तु अपने प्रयोजन की सीधी, हठ, दुराग्रह और अविद्या आदि दोषों से सत्य को छोड़ कर असत्य में झुक जाता है। जो मनुष्य बुरा काम, भ्रष्टाचार आदि करते हैं, उनको माता पिता वा समाज व सिस्टम से अच्छे संस्कार नहीं मिले हैं। वह निःसंदेह पशु समान है। शास्त्रों ने भी कहा है आहार, निद्रा और मैथुन में मनुष्य व पशु समान है। संस्कार व चिंतन -मनन से ही मनुष्य इंसान बनता है। हमारी शिक्षा व्यवस्था भी मनुष्यों को मनुष्य या इंसान बनाने में विफल है।

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    पासपोर्ट ऑनलाइन बनने की प्रक्रिया शुरू होने से बहुत लोग मुर्गा बनने से बच रहे होंगे
    पुलिस के पॉकेट भी गर्म अलग से करने पड़ते हैं

    आपके अनुभव से लोगों को शिक्षा मिलेगी

    • विभा जी , मुझे पता नहीं इस वक्त भारत में कितनी इमानदारी है लेकिन उस समय जो हालात थे ,जगह जगह घूस देनी पड़ती थी ,घूस के बगैर काम होता ही नहीं था ,उस को डीटेल के साथ लिखना चाहता हूँ .अगर भारत के हालात इस से बेहतर हो गए हैं तो मेरे लिए बहुत ख़ुशी की बात होगी लेकिन अगर नहीं तो मुझे बहुत दुःख होगा .ऐसी बातें यहाँ कभी सुनी ही नहीं बल्कि किसी काम को ज़रा सी देर हो जाए तो मुआफी मांगते हैं .

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