कविता

दुर्गा स्तुति

मैं निर्धन नहीं लाया माँ चुनरी चुड़ी हार,
बस दिल में श्रद्धा लेकर चले आये तेरे द्वार।

स्वर में माधुर्य नहीं माँ कैसे करुँ तेरी स्तुति,
गलती मेरी माफ करना न जानूं पूजा-विधि।

तुम्हारे क़ई धनवान उपासक आते हैं तुम्हें सजाने को,
मेरी भी अभिलाषा है दुर्गे माँ तुम्हें कुछ चढ़ाने को।

तेरे चरणों में अर्पित करते हैं अपना तन-मन,
हो सके तो स्वीकार करना मेरा ये समर्पण।

नहीं चाहिए धन वैभव बस भक्ति का रस घोल दे,
मूर्ति से निकलकर माँ एकबार मुझसे बोल दे।

-दीपिका कुमारी दीप्ति

दीपिका कुमारी दीप्ति

मैं दीपिका दीप्ति हूँ बैजनाथ यादव की नंदनी, मध्य वर्ग में जन्मी हूँ माँ है विन्ध्यावाशनी, पटना की निवासी हूँ पी.जी. की विधार्थी। लेखनी को मैंने बनाया अपना साथी ।। दीप जैसा जलकर तमस मिटाने का अरमान है, ईमानदारी और खुद्दारी ही अपनी पहचान है, चरित्र मेरी पूंजी है रचनाएँ मेरी थाती। लेखनी को मैंने बनाया अपना साथी।। दिल की बात स्याही में समेटती मेरी कलम, शब्दों का श्रृंगार कर बनाती है दुल्हन, तमन्ना है लेखनी मेरी पाये जग में ख्याति । लेखनी को मैंने बनाया अपना साथी ।।

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