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जनता आखिर क्या करे?

डिजिटल इंडिया, मेक इन इण्डिया, शाइनिंग इण्डिया, स्किल इंडिया, स्वच्छ भारत, हिन्दू राष्ट्र, विश्वगुरु बनता हुआ भारत, बुलेट ट्रेन, स्मार्ट सिटी, सबको अपना घर, सबका साथ सबका विकास, अबकी बार मोदी सरकार, कांग्रेस मुक्त भारत, भ्रष्टाचार मुक्त भारत, २४ घंटे बिजली, साफ़ सुथरी सड़कें, शिक्षित भारत, संपन्न भारत, नमामि गंगे, गोरक्षा, जन-धन, बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ, सेल्फी विथ डॉटर ….. आदि सपना बहुत अच्छा है. पर, इसका कुछ असर धरातल पर तो दिखना चाहिए. सचमुच क्या भारत में उसके कुछ लक्षण दिखने शुरू हुए हैं. क्या कानून का राज स्थापित हो गया है? क्या सरकार पूर्ण पारदर्शिता के साथ काम कर रही है? क्या महिलाएं सुरक्षित महसूस कर रही हैं? क्या पढ़े लिखे बेरोजगार युवाओं को रोजगार मिलने में तेजी आयी हैं? क्या विदेशी निवेश आना शुरू हुआ है? क्या नए उद्योग धंधे स्थापित होने शुरू हो गए है? क्या जाति-पाति या धर्म के आधार पर भेद करना कम हो गया है? … चीजों के दाम कम हुए या बढे? जितनी उम्मीद थी और जिस उत्साह के साथ जनता ने मोदी सरकार को स्पष्ट जनादेश दिया था, उसके अनुरूप कुछ खास परिवर्तन गत डेढ़ साल में नहीं दिखा…. बिहार में आपने सभी चाल चल कर देख लिए, सभी चालें उल्टी पड़ गयी, क्योंकि आपने सिर्फ विरोधियों को गाली दी, अपने डेढ़ साल की उपलब्धियों की चर्चा नहीं की. आपने भी गलत लोगों के टिकट दिया, जिसका आरोप आपके साथी ही लगाते रहे. आपने नीतीश, लालू, सोनिया, राहुल को जितनी भी गालियां दी, उसका असर यह हुआ कि उनके प्रति जनता की सहानुभूति बढ़ गयी. नीतीश के काम बोलते हैं और लालू के जुबान. आपने भी लालू के जुबान में बात की …आपसे ऐसी अपेक्षा न थी. फिर आपमें और लालू प्रसाद में अंतर क्या रहा? अब परिणाम सामने है. जिस जनता ने आपको अभूतपूर्व बहुमत से सत्ता सौंपी थी, उसी जनता ने आपको नकार दिया और दूसरे विकल्प का चुनाव किया. अब जो भी परिणाम है, सामने है. नीतीश का कद ऊंचा हुआ और देश में एक नया विकल्प मोदी विरोध में पनपने लगा है. आपने नीतीश को अहंकारी कहा था, पर अहंकार आपमें और आपके सिपहसालारों में कूट-कूट कर भरा था. जनता सब कुछ देखती है और उपलब्ध बेहतर विकल्प का चुनाव करती है. जनता को कम-से-कम दाल-रोटी तो चाहिए होता है न! आपने दाल, प्याज, सरसों तेल एवं अन्य जरूरी सामानों के दाम बढ़ने दिए. जमाखोरों को बहुत बाद में पकड़ा, आयात भी देर से किया. तब भी परिणाम बहुत सकारात्मक नहीं निकला. आप गैर जरूरी मुद्दे उठाते रहे और आपकी सारी मिहनत बेकार चली गयी.
तीसरी बार सत्ता सम्हालने के तुरंत बाद नीतीश कुमार ने सर्वप्रथम कानून ब्यवस्था पर ही मीटिंग की और अधिकारियों को सख्त निर्देश दिया कि कानून तोड़नेवाले बख्से नहीं जायें, चाहे वह व्यक्ति किसी भी पद पर क्यों न हो! उप मुख्य मंत्री तेजस्वी के बारे में सवाल उठाने लगे तो तेजस्वी ने भी अपनी सफाई पेश करते हुए कहा कि वे नीतीश कुमार के विकास कार्यों में हर सम्भव सहयोग करेंगे. किसी भी किताब के कवर को देखकर उसके अंदर के तथ्य का अंदाजा लगाना गलत है.
अब मैं कुछ वरिष्ठ पत्रकारों की राय प्रस्तुत कर रहा हूँ. हरिशंकर ब्यास लिखते हैं-
बिहार में नीतीश कुमार का मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ लेना उनकी राष्ट्रीय भूमिका की तैयारी का एक संकेत है। शपथ ग्रहण में जिस तरह से देश भर के नेताओं का जमावड़ा लगा, उससे अपने आप नीतीश की छवि अखिल भारतीय नेता की बनी है। लेकिन यह संशय बना हुआ है यह दूसरे मोर्चे की राजनीति है या तीसरे मोर्चे की! नीतीश कुमार की रणनीति से जुड़े नेताओं का कहना है कि नीतीश कुमार के ब्रांड को दूसरे और तीसरे मोर्चे की राजनीति से ऊपर रखना है, इसलिए उन्होंने इस समारोह को कांग्रेस का समारोह भी बनने दिया। लोकसभा चुनाव में हार के बाद यह पहला मौका था, जब कांग्रेस देश भर में अपने कार्यकर्ताओं का हौसला बढ़ा सकती थी। इस बात को समझते हुए भी कि कांग्रेस इस जीत से अपनी ब्रांडिंग कर रही है. बिहार की आगे की राजनीति और केंद्र की राजनीति के लिए यह जरूरी है। इसके अलावा उन्होंने तीसरे मोर्चे की संभावित पार्टियों में लेफ्ट सहित कई पार्टियों को बुलाया तो संघीय मोर्चे की संभावित पार्टियों के नेताओं को भी न्योता दिया। इस तरह से उन्होंने अपने को भाजपा विरोधी राजनीति की धुरी बनाने की कोशिश की है।
वे आगे लिखते हैं – नेता तब अपनी कब्र खोदता है, जब वह ब्रांड की फितरत में होता है। व्यक्ति अपने विचार, जमीन, मेहनत, भाग्य, परिस्थितियों से सत्ता पाता है और सत्ता उसे मुगालते में डालती है। उसे ब्रांड के फेरे में फंसाती है। नेहरू अपने इंडिया के आईडिया हो जाते हैं! इंदिरा वही इंडिया हो जाती हैं तो वाजपेयी शाईनिंग इंडिया वाले बनते हैं! सत्ता ज्यों-ज्यों बड़ा आकार लेती है, मुगालता बढ़ता है। यह नरेंद्र मोदी के साथ हुआ है, हो रहा है। कभी नरेंद्र मोदी पांच करोड़ गुजरातियों की बात करते थे। आज सवा अरब लोगों का हुंकारा मारते हैं। अपने को सुपर वैश्विक ब्रांड हुआ मान रहे हैं। इसमें भी हर्ज नहीं है, लेकिन इस ब्रांड एप्रोच में दिक्कत यह है कि सब प्रायोजित या नकली हो जाता है। जमीन से जुड़ाव टूट जाता है। नेता को पता नहीं पड़ता कि कब उसकी कमाई पूण्यता चूक गई है। वह कैसे नकली जीवन, नकली नारों, नकली उपलब्धियों में जी रहा है! हर तरह से नकली परिवेश, नकली लोग, नकली प्रबंधक, नकली मंत्रियों में घिरा हुआ एक ब्रांड!
नरेंद्र मोदी का आज का मुकाम मंझधार से कुछ पहले का है। अभी पीछे ओरिजनल गुजरात ब्रांड की तरफ लौटने की कुछ गुंजाइश है लेकिन दिल्ली के चेहरों, परिवेश और सिस्टम ने सुपर ब्रांड बनने की उनमें जो धुन पैदा की है उससे मुक्ति, पीछे हो सकना आसान नहीं है। वे अपने सुपर ब्रांड की वेल्यू सवा अरब लोग कूत रहे हैं। वे अपनी ब्रांड एंबेसडरी से अऱबों-खरबों डालर भारत आता देख रहे हैं। वे नित दिन लोक-लुभावन शो, उत्सव कर रहे हैं। उन्होंने और उनके प्रबंधकों ने 2019 तक के रोड शो, उत्सव, झांकियों, घोषणाओं, भाषणों, वैश्विक नेताओं से मुलाकातों, शिखर वार्ताओं, उद्यमियों-कारोबारियों के जमावड़ों की लंबी चौड़ी सूची बना ली है। सबकुछ भव्यता, ऊंचाईयां लिए हुए होगा जिसमें आकर्षण के नंबर एक सुपर ब्रांड होंगे-नरेंद्र मोदी!
सोचें कितना रूपहला, मनमोहक, धुनी महासंकल्प है यह! लेकिन यह सब मायावी है। इसलिए कि जनता को ब्रांड नहीं चाहिए। उसे अपने मध्य का अपने जैसा, अपनापन बताने वाला नेता चाहिए। उसे दाल चाहिए। उसे टमाटर चाहिए। उसे बिजनेस आसान नहीं जीना आसान चाहिए। यह बहुत गलत बात है, गलत थ्योरी है कि नरेंद्र मोदी से जनता को बड़ी-बड़ी उम्मीदें हैं। बड़ा विकास चाहिए। ऐसा कतई नहीं है। इन सबकी नरेंद्र मोदी से यह मामूली अपेक्षा थी और है कि वे उनका जीना आसान बनाएंगे। ये सब चाहते हैं कि वह सब न हो जो कांग्रेस के राज में होता है या जातिवादी क्षत्रपों की कमान में हुआ करता है। मतलब मनमानी, भ्रष्टाचार और तुष्टीकरण नहीं हो। इसमें भी नंबर एक बात भ्रष्टाचार मिटने की चाह थी। लेकिन नरेंद्र मोदी ने सत्ता संभालने के बाद निज आत्ममुग्धता में यह ख्याल पाला कि वे खाते नहीं हैं, तो पंचायत में मनरेगा की मजदूरी भी नहीं खाई जा रही होगी। जाहिर है ऐसा सोचना और उस अंतिम व्यक्ति पर पड़ रही भ्रष्टाचार की मार को भुला बैठना ही मोदी के नकली परिवेश, नकली ख्याल, नकली ग्लैमर का नंबर एक प्रमाण है।
नौजवानों ने इतना भर चाहा कि उन्हें छोटा ही सही कुछ काम मिले। इनका मन छोटी नौकरी या छोटे बेरोजगारी भत्ते से भी उछलने लगता। मई 2014 में परिवर्तन की ट्रेन में जो संघी, भाजपाई, हिंदूवादी, राष्ट्रवादी बैठे थे वे सिर्फ वैचारिक खुराक का संतोष चाहते हैं। इन्हें इतना भर चाहिए था कि प्रधानमंत्री, मंत्रियों के निवास के दरवाजे-खिड़की उनके लिए खुले रहें। इन्होंने सहज यह उम्मीद बनाई थी कि यदि अपनी सरकार आई है तो उन्हें वह मौका मिलेगा, वह मान-सम्मान मिलेगा, वे पद मिलेंगे, वे नई संस्थाएं, नए सत्ता टापू बनेंगे जो नेहरू के आईडिया ऑफ इंडिया के प्रतिस्थापन की नींव, उनके ख्यालों के भारत की तस्वीर-तकदीर बना सके। निज ब्रांड, निज ख्याल, नकली परिवेश, नकली चेहरे जमीन पर नहीं रहा करते। वे मंच पर अभिनय करते हैं। ड्राइंग रूम में होते हैं और दिल्ली के इनसाइडर में रमे होते हैं। सो लाख टके का सवाल है कि नकली दुनिया से बाहर निकल नरेंद्र मोदी पीछे लौट मोहन भागवत के साथ क्या विचार करेंगे?
अब इस नयी नीतीश सरकार को भी कुछ समय देना बनता है ताकि वे कुछ नए फैसले लें और जनता की उम्मीदों, अपेक्षाओं पर खरे उतरें… शुभकामनाओं के साथ, जय बिहार!
– जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर