कविता

~कन्धा ~

आंख चुराते हुए
हाथों से अपने
मुहं छुपाते हुए
बोल रहा  था वो
इतनी ज्यादा
मोटी हो रही  हैं
कौन
ढ़ोंयेगा इन्हें
कंधो पर अपने
बीबी  इशारा
करते हुए  बोली
बूढ़ी भले ही हैं
माँ  तुम्हारी पर
कान  बड़े  तेज  हैं
धीरे  बोलो तनिक
लेंगी सुन  तो
ज़ायदाद  से
हो जाओंगे  बेदखल
सुनकर  भी मैंने
अनसुना कर दिया |

आकर कमरे में
विफर  पड़ी
बूढ़ी माँ
बुढऊ  पर अपने
तुम मर गये
छोड़  मुझे मझधार
बेटे समझते है  भार
तुम्हारी बात  टाल  रही हूँ
ज़ायदाद सारी मैं
विधवा  आश्रम  में
दान कर  रही  हूँ
शरीर की भी
नहीं  करवानी  हैं  दुर्गति
इसे भी  मैं  अभी  ही
रुग्णालय  को
दान  कर रही  हूँ
जिन्हें कंधो पर  बैठा
बड़ा किया  हमने
उनके कंधो  का हल्का
भार  कर  रही  हूँ |  सविता मिश्रा 

*सविता मिश्रा

श्रीमती हीरा देवी और पिता श्री शेषमणि तिवारी की चार बेटो में अकेली बिटिया हैं हम | पिता की पुलिस की नौकरी के कारन बंजारों की तरह भटकना पड़ा | अंत में इलाहाबाद में स्थायी निवास बना | अब वर्तमान में आगरा में अपना पड़ाव हैं क्योकि पति देवेन्द्र नाथ मिश्र भी उसी विभाग से सम्बध्द हैं | हम साधारण गृहणी हैं जो मन में भाव घुमड़ते है उन्हें कलम बद्द्ध कर लेते है| क्योकि वह विचार जब तक बोले, लिखे ना दिमाग में उथलपुथल मचाते रहते हैं | बस कह लीजिये लिखना हमारा शौक है| जहाँ तक याद है कक्षा ६-७ से लिखना आरम्भ हुआ ...पर शादी के बाद पति के कहने पर सारे ढूढ कर एक डायरी में लिखे | बीच में दस साल लगभग लिखना छोड़ भी दिए थे क्योकि बच्चे और पति में ही समय खो सा गया था | पहली कविता पति जहाँ नौकरी करते थे वहीं की पत्रिका में छपी| छपने पर लगा सच में कलम चलती है तो थोड़ा और लिखने के प्रति सचेत हो गये थे| दूबारा लेखनी पकड़ने में सबसे बड़ा योगदान फेसबुक का हैं| फिर यहाँ कई पत्रिका -बेब पत्रिका अंजुम, करुणावती, युवा सुघोष, इण्डिया हेल्पलाइन, मनमीत, रचनाकार और अवधि समाचार में छपा....|