कविता

कविता : अदृश्य पंख

कितना कहा मैंने
खुद से जिरह में
जीतना भूल गई हो तुम
भूल गई हो खुद को
पंख होते हुए भी
बिन पंखो सी जिंदगी में
समाहित हो सम्पूर्ण
खो दिया हो जैसे
खुद को…
मशगूल हो गई हो
परकटी सी कहीँ
उनींदी से घर सजाने में
मगर जिसके लिए
वो तो फंसा हुआ है
किसी और ही माया में
तेरे साज श्रृंगार
उसको भाते नहीं
लुभाती नहीं
वयोवृद्ध सी अदाएं
जैसे पुरातन समय की घंटी
बजती है सुबह शाम
वैसे ही तुम्हारे
शब्द जैसे उसके कानो से
गुजर जाते है लापरवाह से
झिंझोड़ भी नहीं पाती तुम
अपने स्पर्श से
कितना बेगाना सा
लगता है न तब
सब कुछ जो समेटा है तुमने
कितने वर्षो के अथक प्रयास से
मगर आज सब
कबाड़ सा लगता है न
और कबाड़खाना सा
महल….
मुद्दत हो गई है
आइना देखे…
चलो आज आइना
दिखाती हूँ तुम्हे
शायद
खुद को देखकर
तुम किसी और से मिल सको
जो रहता है तुममे
मगर अजनबी है तुमसे
और…
तुम देख सको
फिर से
तुम्हारे शरीर से
जुड़े हुए पंख
जो अदृश्य ही रहे अब तक
शायद….

निर्मला “मुस्कान”

निर्मला 'मुस्कान'

निर्मला बरवड़"मुस्कान" D/O श्री सुभाष चंद्र ,पिपराली रोड,सीकर (राजस्थान)

One thought on “कविता : अदृश्य पंख

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी कविता !

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