धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

धर्म (वेदोक्त धर्म) से हीन मनुष्य पशु के समान होता है

ओ३म्

पं. राजवीर शास्त्री जी का धर्मोपदेश

 

दयानन्द सन्देश आर्यजगत की प्रमुख पत्रिका रही है व आज भी है। आर्यजगत के शीर्षस्थ विद्वान पं. राजवीर शास्त्री जी द्वारा इस पत्रिका का सम्पादन करने से विद्वतवर्ग में इसका स्थान अन्यतम रहा है। शास्त्री जी के सम्पादन काल में इस पत्रिका के महत्वपूर्ण विशेषांक प्रकाशित होते थे। अक्तूबर 2000 का अंक भी वेदोक्त धर्ममीमांसा’ विशेषांक’ प्रकाशित किया गया था। इस विशेषांक में उस समय के प्रमुख विद्वानों के लेख प्रकाशित किये गये हैं। इस विशेषांक में पं. राजवीर शास्त्री जी का ‘‘धर्म की आवश्यकता” शीर्षक से सम्पादकीय लेख दिया गया है। इस लेख में पं. राजवीर शास्त्री जी की लेखनी से निःसृत उपदेश जिसे उनकी आत्मा ने प्रेरित कर ही लेखबद्ध किया था, का पाठ वा श्रवण करते हैं।

 

(प्रिय बन्धुओं!) धर्म से हीन पशु होता है– धर्म का मानव जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है। संस्कृत में नीतिकार कहते हैं-धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः।’ अर्थात् मनुष्यों और पशुओं में आहार, निद्रा, मैथुन तथा भयभीत होना, ये सब समान होते हैं परन्तु धर्माचरण ही मनुष्य में विशेष गुण है जिसके कारण वह पशुओं से विशेष होता है। व्यक्ति की मनःस्थिति का प्रभाव उसके जीवन पर प्रत्यक्ष देखने में आता है। घातक मानसिकतायुक्त व्यक्ति के सामाजिक सम्बन्ध भी स्वस्थ नहीं रहते और यह मनोवृत्ति व्यक्ति के व्यवहार में स्पष्ट परिलक्षित होती है। उसके समस्त कार्यों के परिणाम तदनुसार ही देखे जा सकते हैं। महर्षि दयानन्द के मनोभावों का अध्ययन इस तथ्य से स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने अपने विषदाता को साक्षात् सामने उपस्थित देखकर भी उसके प्रति हित-बुद्धि के विचारों को दूर न होने दिया और घातक विचारों को अपने समीप भी न आने दिया। उत्तम मानसिक(ता वाला) व्यक्ति कभी भी सब के हित की बात को अपने से पृथक नहीं होने देता। उसके व्यवहार में परस्पर प्रीति के भाव ओत-प्रोत रहते हैं। उसके स्वार्थ में शिव की भावना होती है जो उसे प्रतिक्षण विनाशक भावों से दूर रखती है।

 

(2) पाशविक वृत्तियों का धर्म नियन्ता है मानव जीवन में मनःस्थिति को दूषित करने वाले हैं-काम, क्रोध, लोभ, ईष्र्या, मद और मोह। ये षड्रिपु मानव को पतन की ओर अग्रसर करते हैं और इनका दमन मनुष्य धर्मरूपी अंकुश से ही करता है तथा काम आदि के वशीभूत होना ही पतित होना है। इन विध्वंसमूलक प्रवृत्तियों को जीतने वाला व्यक्ति ही जितेन्द्रिय तथा शूरवीर कहलाता है और इनके वशीभूत व्यक्ति न तो अपना ही भला कर पाता है और न सामाजिक। राष्ट्रीय हित भी उससे सदा दूर रहते हैं।

 

इन पतनोन्मुख प्रवृत्तियों को रोकने के लिए परमावश्यक होता है विवेकशील होना और विवेक को जागृत करने के लिए अच्छे पुरुषों की संगति तथा अच्छे ग्रन्थों का स्वाध्याय परमावश्यक है। महाभारत में इसी बात को दूसरे शब्दों में कहा है-परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्’। अर्थात् प्राणिमात्र का हित चिन्तन करना ही संसार में महापुण्य होता है और दूसरों को पीड़ा देना ही महापाप है और ये पाप-पुण्य ही धर्म व अधर्म कहाते हैं। इसलिए कहा गया है–अहिंसा परमो धर्मः।।

 

(3) उन्नति का मूलयतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः धर्मः।।

 

वैशेषिक दर्शन के कवि ने धर्म की परिभाषा करते हुए कहा है कि जिसके आचरण से सांसारिक उन्नति और पारलौकिक उन्नति होती है वह धर्म है अर्थात् शारीरिक, बौद्धिक, मानसिक, आत्मिक तथा सामाजिक उन्नति करना सांसारिक उन्नति है और यह सब मनुष्य धर्म के कारण करता है। सर्वविध उन्नति धर्म है और अवनति वा अपकर्ष या पतन के समस्त साधन अधर्म है। अग्नि का विनाशी गुण दहन करना= जलाना सर्वविदित है किन्तु जब वही अग्नि सृजनात्मक रूप में होती है तब वह संसार के निर्माण का हेतु बन जाती है और इसका नाम वैश्वानर पड़ जाता है। सृष्टिकर्ता परमेश्वर ने अग्नि का कैसा विलक्षण उपयोग किया है, सूर्य के रूप में। यह सूर्य ही जीवन का आधार, ऊर्जा का अजस्र भण्डार व जीवनदाता है और प्रकाश का हेतु बनकर मार्गदर्शक बना हुआ है तथा ज्ञानेन्द्रियों का भी प्रकाशक है।

 

व्यक्ति के अवनति व विनाश के साधनों को जुटाने में जो ऊर्जा शक्ति का अपव्यय होता है, उससे आत्मिक बल और जीवनीय शक्ति का भी क्षय होता है। भय और हिंसक प्रवृति बढ़ने लगती है और निश्चित रूप से विवेक में न्यूनता आती है। उस व्यक्ति में स्वार्थ, लिप्सा और मिथ्या अंहकार ज्ञान-चक्षुओं के पट खुलने नहीं देते। इसके दुष्परिणाम तत्काल या कालान्तर में उस व्यक्ति, समाज व राष्ट्र को भुगतने पड़ते हैं। इसलिए जीवन में उन्नति के इच्छुक व्यक्ति को विवेक का विकास निरन्तर करते रहना चाहिये। यही यथार्थ में जीवन का पथ है।

(4) धर्म मृत्यु से त्राता हैवेद मनुष्य को आदेश देता है-‘मा मृत्योरुदगा वशम्’ मनुष्य को प्रतिक्षण सतर्क रहकर अपने चारों तरफ फैले मृत्यु के भयंकर पाशों से बचने का प्रयास करना चाहिये। जीवन को आप्लावित करने के लिए मृत्यु-पाशों का काटना अपरिहार्य है। मानव जीवन की इसी में परीक्षा होती है। जिसमें इन मृत्यु-पाशों से लड़ने का सामर्थ्य या क्षमता का अभाव होता है, उसे ये पाश निगल जाते हैं। सक्षम जीवन का पथिक इन पाशों से कमी भयभीत न होकर सतत संघर्ष करता है। उपनिषत् का ऋषि इसीलिए यह प्रार्थना करता है-मृत्योर्माऽमृतं गमय’ हे प्रभो ! मुझे इन मृत्युपाशों से बचाकर अमरता का पथिक बनाइए। इसी रहस्य को स्पष्ट करने के लिए ही धर्मशास्त्रकार घोषणा करता है- धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः। अर्थात् जो व्यक्ति धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है और जो धर्म को नष्ट करता है, धर्म उसको नष्ट कर देता है अर्थात् म्त्युपाशों से भी धर्म ही रक्षा करता है। जीवन में हताशा और किंकर्तव्यमूढ़ता धार्मिक पक्ष के निर्बल होने पर ही आती है। जीवन में अधर्म की वृद्धि ही व्यक्ति को निराश तथा दुर्बल बना देती है। अतः धर्म की वृद्धि करके व्यक्ति को सबल व सशक्त रहना चाहिये जिससे अधर्म के कारण क्षीणता न आ सके। धर्म से परस्पर प्रीति व सहानुभूति के भावों की वृद्धि होती है और मित्रता आदि गुणों की वृद्धि होती है।

 

(5) सुख का आधारआचार्य चाणक्य ने लिखा है-‘‘सुखस्य मूलं धर्मः। धर्मस्य मूलमिन्द्रियजयः।” अर्थात् सुख का मूल धर्म है और धर्म का मूल है-इन्द्रियों को संयम में रखना। संसार में प्रत्येक मनुष्य की इच्छा होती है कि मैं सुखी रहूं और सुख की प्राप्ति धर्म के बिना नहीं हो सकती। अतः धर्म का आचरण अवश्य ही करना चाहिये। बिना धर्म को अपनाये कोई भी मनुष्य सुखी नहीं हो सकता है।

 

(6) धर्म परलोक में भी सखा हैसंसार की कोई भी वस्तु सुख का हेतु हो सकती है परन्तु मरणोत्तर किसी के साथ वह नहीं जा सकती। शास्त्रकार कहते हैं-धर्म एकोऽनुगच्छति’ अर्थात् एक धर्म ही मरणोत्तर मनुष्य के साथ जाता है। संस्कृत के नीतिकार कहते हैं–

 

धनानि भूमौ, पशवश्च गोष्ठे, नारी गृहे बान्धवाः श्मशाने।

देहश्चितायां परलोकमार्गे, धर्मानुगो गच्छति जीव एकः।।

 

अर्थात् भौतिक समस्त धन भूमि में ही गड़़ा रह जाता है अथवा आजकल बैंकों में या तिजोरियों में ही धरा रह जाता है और गाय आदि पशु गोशाला में ही बन्धे रह जाते हैं। पत्नी घर के द्वार तक ही साथ जाती है और परिवार के भाई-बन्धु व मित्रजन श्मशान तक ही साथ देते हैं। एक मनुष्य का शुभाशुभ कर्म (धर्म) ही परलोक में मनुष्य का साथ देता है अर्थात् धर्म के अनुसार ही मनुष्य को परलोक में अच्छी-बुरी योनियों में जाना पड़ता है।

 

(7) लिंग धर्मकारणम्संसार में विभिन्न मतवालों ने अपने-अपने धर्म के नाम पर विभिन्न चिन्ह बना रखे हैं। जैसे कोई केश बढ़ा रहा है, कोई लम्बी दाढ़ी बढ़ाये हुए है, कोई केश व दाढ़ी दोनों बढ़ाये हुए है, कोई पांच शिखाएं रखे है, कोई मूंछ कटाकर दाढ़ी बढ़ा रहा है और कोई चन्दन का तिलक लगा रहा है, कोई माथे को अनेक रेखाओं से अंकित किये हुए है और हाथादि पर भी चिन्ह बनाये हुए है, किन्तु ये सभी धर्म से कुछ भी सम्बन्ध नहीं रखते हैं। अतएवं बाह्यचिन्हों को धर्म नहीं माना गया है।

 

(8) यतो धर्मस्ततो जयः-गीता के इस श्लोक से इस बात की पुष्टि होती है कि धर्म की सदा विजय होती है। इतिहास की घटनाओं से इस बात की पुष्टि होती है। धर्म की अर्थात् न्याय की सदा विजय होती है। चाहे अधर्मी कितना बलवान् हो उसकी हार अवश्य होती है। लोक में भी यह देखा जाता है कि अधर्मी की हार का कारण अधर्म ही बन जाता है। मनुस्मृति में भी सत्य ही कहा है-

 

अधर्मेणैधते तावत् ततो भद्राणि पश्यति।

ततो सपत्नान् जयति समूलस्तु विनश्यति।।

 

अर्थात् अधर्माचरण करने से व्यक्ति धन-सम्पदा बढ़ने से बढ़ता हुआ दिखाई देता है, तत्पश्चात् भद्र भी देखता है अर्थात् भौतिक साधनों की समृद्धि होने से बड़े-बड़े महल, कोठियां बना लेता है, अपने विरोधियों पर जैसे-तैसे विजय प्राप्त कर लेता है। किन्तु अन्त में उसका सर्वनाश हो जाता है। इसलिए हमें इस शाश्वत सत्य पर अवश्य दृढ़ विश्वास करना चाहिये-

 

धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः।

व्योतस्माद् धर्मो हन्तमनों धर्मो हतोऽवधीत्।।

 

जो धर्म को नष्ट करता है, धर्म उसका नाश कर देता है और जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है। इसलिए अधर्म से प्राप्त लक्ष्मी कभी भी घर में न आने देवें। अन्यथा ऐसा धन तीसरी पीढ़ी में अवश्य दुष्परिणाम दिखा देता है। लोक में ऐसे उदाहरण अधिकांश में मिल जाते हैं।

(9) धर्म का ज्ञान वेद से मिलता है धर्मशास्त्रकार कहता है-

धर्मं जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः।।

जो व्यक्ति धर्म को जानना चाहते हैं, उन्हें यथार्थ ज्ञान वेद से प्राप्त हो सकता है। क्योंकि वेद ज्ञान ईश्वरीय ज्ञान है और ईश्वर सर्वज्ञ होने से उसके ज्ञान में भ्रान्ति अथवा अधूरापन नहीं  है। वेद से भिन्न जो मतवालों के ग्रन्थ हैं, वे बहुत बाद के हैं और वे मनुष्यकृत हैं। उनमें परस्पर विरोधी, सृष्टिक्रम से विरुद्ध (बातें हैं) तथा वे मानवीय घटनाओं से ओत-प्रेत हैं।

 

इस प्रकार धर्म का ज्ञान और उस का आचरण मनुष्य के लिए परमावश्यक है, यह हमारी उन्नति व सुख का आधार है। मनुष्य के परम लक्ष्य पुरुषार्थ-चतुष्टय (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) की सिद्धि में धर्म परम सहायक है। प्रत्येक विवेकी मनुष्य के पद-पद पर धर्म सहायक बना है। इसीलिए कहा गया है-

 

धारणाद् धर्म इत्याहुर्धर्मो धारयते प्रजाः।। (महाभारत)

 

इसी के साथ पं. राजवीर शास्त्री जी का सम्पादकीय लेख वा उपदेश समाप्त होता है। वेदेां की शिक्षाओं के अनुरूप धर्म वर्तमान व परजन्म में मनुष्य का सबसे बड़ा हितकारी मित्र के समान होता है और अधर्म दोनों जन्मों में शत्रु की भूमिका निभाता है। हम आशा करते हैं कि इस लेख को पाठक इसे पसन्द करेंगे।

 

मनमोहन कुमार आर्य

4 thoughts on “धर्म (वेदोक्त धर्म) से हीन मनुष्य पशु के समान होता है

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    मनमोहन भाई , सच में कहूँ, मैं धार्मिक ना होते भी ,कहूँगा की धर्म के बारे में आप बहुत उच् कोटि के लेखक हैं जिस का बहुत लोगों को फायदा पहुँचता होगा .

    • मनमोहन कुमार आर्य

      नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद् आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। मैंने बहुत बड़े बड़े विद्वानों की संगति की है, उनके प्रवचनों को सुना और अनेक ग्रंथों का अध्ययन किया। अब लिखना मेरा शौक बन गया है। कुछ नया जानने की इच्छा होती है और जो सीखा वा जाना है उसे दूसरों को बताने की भी इच्छा होती है। सादर।

  • लीला तिवानी

    प्रिय मनमोहन भाई जी, सही है, जिसके आचरण से सांसारिक उन्नति और पारलौकिक उन्नति होती है वह धर्म है. अति सुंदर आलेख के लिए आभार.

    • Man Mohan Kumar Arya

      नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद् आदरणीय बहिन जी।

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