धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

आर्य सन्यासी स्वामी वेदानन्द का काशी में पादरी से नोक झौंक का एक महत्वपूर्ण प्रसंग

ओ३म्

स्वामी वेदानन्द तीर्थ ऋषि दयानन्द के प्रमुख भक्तों में से एक थे। आपने स्वाध्याय सन्दोह एवं स्वाध्याय सन्दीप आदि उच्च कोटि के ग्रन्थों की रचना की है। काशी में उनके साथ घटी प्रेरक घटना प्रस्तुत कर रहे है जिसे स्वामी जी के शिष्य और जीवनी लेखक पं. सत्यानन्द शास्त्री जी ने उनकी जीवन झांकियां’ के अंक 2 में प्रस्तुत किया है। पं. सत्यानन्द शास्त्री जी लिखते हैं कि ‘‘डेढ़ सौ वर्ष पहले की बात है। विद्वानों की नगरी काशी में साहित्य शिरोमणि पण्डित नीलकण्ठ शास्त्री निवास करते थे। विद्वन्मण्डली में उनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी। लोग भी उन्हें संस्कृत साहित्य का पारंगत पण्डित मानते थे। एक दिन पण्डित नीलकण्ठ शास्त्री तीव्र गति से अपनी पीठिका की ओर जा रहे थे। रास्ते में उन्हें एक परिचित भंगी और उसकी पत्नी सड़क की सफाई करते हुए दिखाई पड़े। उनका नन्हा बच्चा पास खड़ा चीखोपुकार कर रहा था।

थोड़ी देर बाद वहां भगदड़ मच गई। एक इक्के का घोड़ा काबू से बाहर हो बेतहाशा दौड़ने लगा। इक्केवाले ने शोर मचाया–बचोबचो, घोड़ा काबू से बाहर हो गया है’। सहमे हुए लोग रास्ता छोड़ सड़क के किनारे हो गए। काबू से बाहर हुआ घोड़ा सरपट दौड़ता आगे ही आगे बढ़ा चला जा रहा था। इक्केवाला बागें खैंच रोकने की सरतोड़ कोशिश कर रहा था। घोड़ा रुकता ही न था, दौड़ता ही चला आ रहा था।  भंगी का नन्हा मासूम बच्चा भी मां-बाप को पास न पा रोता हुआ सरकता सरकता उस समय सड़क के ऐन बीच आ खड़ा हुआ। पास से गुजर रहे पण्डित नीलकण्ठ शास्त्री को लगा कि बच्चा घोड़े के पैरों तले कुचला जायेगा। उनके मन में दया आई। आगे बढ़कर उन्होंने बच्चे को उठाना चाहा, किन्तु अन्त्यज भंगी के बच्चे को छूने से धर्म भ्रष्ट होने के भय से हिचकिचा पीछे हट गए। उनके मन में पुनः दया ने जोर मारा। वह कभी बच्चे को उठाने के लिए आगे बढ़ते और फिर पातक लग जाने के डर से घबराकर पीछे हट जाते। धर्मसंकट में पड़ी बुद्धि निश्चय न कर पा रही थी।

इतने में काबू से बाहर हुआ सरपट दौड़ता घोड़ा बच्चे के बिल्कुल समीप आ पहुंचा। दयाभाव से प्रेरित पण्डित नीलकण्ठ शास्त्री बच्चे को उठाऊं या न उठाऊं, इस द्विविधा में अभी भी उलझे हुए थे। इससे पहले कि घोड़ा आगे बढ़ कर बच्चे को पैरों तले रौंद देता, सड़क की दूसरी ओर से दयाद्रवित एक पादरी आगे बढ़ा। झपटा मार उसने बच्चे को अपनी ओर खैंच लिया। बच्चा और भी अधिक चीख पुकार करने लगा। घोड़ा तांगा आनन-फानन उनके सामने से होकर गुजर गया।

बच्चे को सही सलामत देख पण्डित नीलकण्ठ शास्त्री बहुत प्रसन्न हुए। किन्तु उनकी यह प्रसन्नता अधिक समय तक स्थिर न रहे सकी। शीघ्र ही उन्हें आत्मग्लानि ने आ दबाया। उन्हें लगा कि वह अपना कर्तव्य निभा नही पाए। बच्चे को बचाने के लिए बार-बार मन में उठी सच्ची धर्मभावना को अपनी झूठी धर्मभीरुता के कारण तिरस्कृत कर उन्हेांने घोर पाप किया है। पश्चाताप के कारण रात भर उन्हें नींद नहीं आई। इसी उधेड़-बुन में वह सारी रात लगे रहे कि इस पाप का कैसे प्रायश्चित किया जाये। सवेरा होते ही वह बिस्तर से उठे। नहा-धो सीधे गिरजाघर पहुंचे और वहां पादरी से बपतस्मा ले ईसाई बन गए। दिल में बैठे पाप-ताप से छुटकारा पाने के लिए उन्होंने जो पहला काम किया वह सुललित सुबोध संस्कृत में पवित्र बाइबल का अनुवाद था। पण्डित नीलकण्ठ शास्त्री द्वारा अनुदित बाइबल का यह संस्कृत संस्करण जब छपकर दुनियां के सामने आया तो आधुनिक संस्कृत साहित्य की उत्कृष्टतम कृति के रूप में सर्वत्र इसका अभिनन्दन हुआ। आज भी ईसाई लोग इस संस्कृत बाइबल की प्रतियां संस्कृतज्ञों तक पहुंचाना अपना धार्मिक कर्तव्य मानते हैं।

उपर्युक्त घटना के सौ वर्ष बाद एक दिन अपने धार्मिक कर्तव्य को निभाने की मंशा से एक पादरी साहित्य शिरोमणि पण्डित देवी प्रसाद शुक्ल की पीठिका पर आया। उसके पास झोले में पण्डित नीलकण्ठ शास्त्री द्वारा अनुदित संस्कृत बाइबल’ की कुछ प्रतियां थी। वह संस्कृत बाइबल’ की एक प्रति शुक्ल जी को भेंट कर पुण्यार्जन करना चाहता था। दैवयोग से स्वामी दयानन्द तीर्थ (स्वामी वेदानन्द तीर्थ जी) भी प्रवर्तमान पाठों को श्रवण करने के उद्देश्य से कुछ क्षण पहले वहां पहुंचे थे। संस्कृत बाइबल’ भेंट करते समय बातचीत के दौरान इस पादरी के मुख से योगिराज कृष्ण के संबंध में अनायास कुछ ऐसे शब्द निकल गए जो शुक्ल जी को अप्रिय लगे।

इन शब्दों को सुन पास खडे़ स्वामी वेदानन्द तीर्थ जी को क्रोध आ गया। आग बबूला हो वह कड़ककर बोले–‘‘पादरी महोदय श्री कृष्ण जी की शान में ऐसी हल्की बात तुम्हें नहीं करनी चाहिए। पाश्चात्य लोगों का अनुकरण करने वाले तुम ईसाई लोग भगवान कृष्ण की महिमा को क्या जानो? कृष्ण भगवान् कितने ऊंचे इंसान थे, कान खोलकर सुनो। महाराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के आरम्भ में जब प्रश्न उठा कि सर्वश्रेष्ठ और सर्वपूज्य व्यक्ति कौन है जिसे अर्घ दिया जाये, पता है कुरु-कुल-श्रेष्ठ भीष्म पितामह ने उस समय क्या कहा था? पितामह की दो टूक राय थी-‘‘निश्चय ही श्री कृष्ण जी दान, दक्षता, शास्त्रज्ञान, शूरता, शालीनता कीर्ति, बुद्धि, विनम्रता, शोभा, धैर्य, सन्तोष और शारीरिक बल में संसार भर के पुरुषों में सबसे बढ़कर हैं। कौन है जो उनकी बराबरी कर सके? अतः उनसे बढ़कर इस सत्कार के योग्य और कोई दूसरा है ही नहीं।” ऐसे सिरमौर महापुरुष की शान में गुस्ताखी से पेश आते समय तुम्हें शर्म आनी चाहिए।”

स्वामी जी द्वारा की गई कड़ी आलोचना का उत्तर देने के लिए पादरी ने मुंह खोल कहना आरम्भ किया – ‘‘स्वामी साहिब क्या कृष्ण जी द्वारा युवा गोपियों के साथ रासलीला रचाना तुम ठीक समझते हो और …।” पादरी अपना वाक्य अभी पूरा भी न कर पाया था कि स्वामी जी उसे घूरते हुए तमककर पुनः बोले–‘‘अरे, छाज तो बोले छलनी भी क्या बोले जिसमें नौ सौ छेद? तनिक बताओ तो सही, आज के वैज्ञानिक युग में तुम्हारे धर्म के अतिरिक्त क्या कोई कुमारी स्त्री के पेट से पति के साथ संयोग के बिना बच्चा पैदा होने की बात सोच भी सकता है? और तुम हो कि असंभव बात को तथ्य मानकर उस बालक को बांस पर चढ़ा खुदा का बेटा बता रहे हो और फिर हमाकत यह कि हर खासो-आम को उस अबोध बालक पर यकीन लाने के लिए उकसा रहे हो। जरा बताओं तो क्या खुदा दुनिया से उठ गया है जो उसके तथाकथित बेटे ‘ईसामसीह’ पर विश्वास लाया जाये। हिन्दुस्तान में तो बाप के मरने के बाद ही बेटे पर विश्वास लाया जाता है, जीते जी नहीं”।

स्वामी वेदानन्द तीर्थ जी की इस भर्त्सना को सुन बिचारा पादरी सहम गया। स्वामी जी की खरी खरी बेबाक बातों का उत्तर देने की भला उसमें ताब कहां? भौचक्का सा हो मुंह बाय वह कुछ देर वहां खड़ा रहा और फिर मौका पा दुम दबा कर भाग निकला। पादरी महोदय का खिसियाना और उसे नौ दो ग्यारह होते देख साहित्य शिरोमणी पण्डित देवी प्रसाद अति प्रसन्न हुए। पीठ थपथपाते हुए उन्होने स्वामी जी को भूरि-भूरि साधुवाद कहा।

निर्भीक सन्यासी की इस सिंहगर्जना की गूंज काशी में तत्काल गूंज उठी। स्वामी वेदानन्द जी के वाक् चातुर्य और निश्शंकता की सराहना सर्वत्र होने लगी। स्वामी जी अब जिधर से भी गुजरते लोग उन्हें सिर-आंखों पर बिठाने के लिए तैयार होते।”

पं. सत्यानन्द शास्त्री, एम.ए. द्वारा लिखी इस घटना में काशी के प्रसिद्ध विद्वान पं. नीलकण्ठ शास्त्री के ईसाई बनने की मार्मिक कथा सहित उनके द्वारा बाइबल का संस्कृत में प्रथम अनुवाद करने का उल्लेख भी वर्णित है। स्वामी वेदानन्द जी का एक ईसाई पादरी की श्रीकृष्ण जी पर अनुचित टिप्पणी करने पर उन्हें फटकार लगाने की ऐतिहासिक घटना भी विद्वान लेखक ने दी है। हम समझते हैं कि बहुत से विद्वानों और पाठको को इस जानकारी से लाभ होगा, अतः यह लेख प्रस्तुत कर रहे हैं। इति।

मनमोहन कुमार आर्य