संस्मरण

मेरी कहानी 168

सच्ची बात तो यह है कि मुझे इतिहास से लगाव तो बहुत रहा है लेकिन इतिहास को अछि तरह से कभी भी पड़ा नहीं है। यही बात दूसरे मज़मूनों के बारे में रही है। बहुत किताबें मैंने पड़ी हैं लेकिन धियान से शायद ही कोई पड़ी हो। लाएब्रेरी में हर किताब को देखना मेरा एक जनून ही रहा है लेकिन लाएबरी की शैल्फों के नज़दीक खड़े खड़े ही देखे जाने तक सीमत रहा है, या घर भी ले आता तो बहुत दफा पूरी किताब ना पढ़ सकता । यही कारण है कि किसी भी सब्जैक्ट में पूरण मैं, हो नहीं सका और इस का कारण मैं किसी को समझा भी नहीं सकता। लेकिन इस में एक फायदा मुझे हुआ कि कुछ कुछ बहुत से सब्जैक्ट्स के बारे में बातें मेरे ज़हन में हर वक्त रहती हैं, इस को मैं यह ही कह सकता हूँ क़ि i am jack of all trades, master of none, कभी भी कोई बात चलती है तो मैं कुछ कुछ इस में समझता होता हूँ, और मेरी दिलचस्पी बढ़ जाती है। जैक ऑफ आल ट्रेड का एक फायदा तो होता ही है कि घर में बिजली की सारी जानकारी ना भी हो तो क्मज्क्म फिऊज़ हुआ प्ल्ग्ग तो ठीक कर ही लेते हैं। मेरी इसी बात पर बहुत दफा मुझे झुंझलाहट सी भी हो जाती है और अपने आप पर गुस्सा भी बहुत आता है। मैं पड़ना बहुत चाहता हूँ लेकिन शुरू से ही मुझे सर दर्द की समस्या रही है। इस के लिए मैंने किया कुछ नहीं किया, बड़े बड़े डाक्टरों हकीमों और होमियोपैथ से इलाज करवाया लेकिन कुछ फायदा नहीं हुआ। डाक्टर कह देते हैं, कोई रोग नहीं है, सर दर्द है तो पैरासीटामल ले लूँ। यह कोई इलाज तो है नहीं, इस लिए ऐसे पेनकिलर से मैं दूर ही रहता हूँ। इस वक्त जब मैं यह लिख रहा हूँ तो अब भी मेरे सर में कुछ ऐसा है कि कुछ प्रैशर सा बढ़ता जा रहा है जो मुझे लिखना बन्द करने के लिए मज़बूर कर रहा है लेकिन यह तो मेरा चालीस वर्ष के ऊपर का रोग है। पड़ने के बगैर मेरा गुज़ारा भी नहीं है, अगर मैं कुछ न कुछ ना पडूँ तो समझो मैं ज़ीरो हो जाऊँगा। अपनी शारीरक समसयाओं को मैंने कभी भी नहीं छुपाया क्योंकि मैं समझता हूँ कि ऐसा करने से बहुत से गुमनाम लोग जो मेरे जैसे हैं वोह समझ लेंगे कि वोह ही अकेले नहीं हैं जो दुःख झेल रहे हैं। अकसर कहते है ” कौन जाने पीड़ पराई “, सही ही तो है, जो इंसान कैंसर से दुःख उठा रहा है, उस को मैं भला कैसे समझ सकता हूँ। अपनी कमज़ोरी को मानना कमतरी का अहसास नहीं है। हाँ, जितना भी मुझ से बन पाता है, पूरे दिल से जोर लगा के कर रहा हूँ। हर इंसान को यह करना भी चाहिए क्योंकि ऐसा ना करने से अपना ही नुक्सान है। सोचता हूँ, अपनी इसी ज़िद के कारण मैं अभी तक ठीक जा रहा हूँ।
लो ! खयालों के पंछी ने किस जगह फैंक मारा। टीवी पे एक डाकूमैंटरी आ रही थी और मुझे डाकूमैंटरी में एक ख़ास दिलचस्पी है। टीवी सीरियल की ओर मैं देखता भी नहीं हूँ, मुझे इस में सब नकलीपन दिखाई देता है। बड़े बड़े घर, सुन्दर साड़ीआं, सुन्दर गहने, नए नए डिज़ाइन के गहने, जैसे यह सब विगयापन ही हो। बात बात पे धमाकेदार मयूजिक, छूँ छूँ सुन कर मैं उठ जाता हूँ। हाँ जब कोई डाकूमैंटरी होती है तो बड़े धियान से देखता हूँ लेकिन यह कभी कभी ही होता है क्योंकि अर्धांगिनी के लिए वोह वक्त ऐसा होता है कि थोह्ड़ा सा भी मेरा वाकिंग फ्रेम टीवी स्क्रीन के आगे आ जाए तो तरुंत हुकम हो जाता है, ” अपनी रेहड़ी ज़रा इधर कर लीजिये “, रेहड़ी तो क्या मैं अपने आप को ही वहां से उधर कर देता हूँ और लैप टॉप की सीट पर विराजमान हो जाता हूँ और फिर जब अर्धांगिनी साहिबा सोने के लिए भी चली जाती है तो मैं डट जाता हूँ और यूट्यूब पर ऊंची आवाज़ में गाने सुनने लगता हूँ। एक दिन बीबीसी पर एक पुरानी डाकूमैंटरी चल रही थी, वोह थी इजिप्ट के एक पुराने बादशाह जो १८ साल की उम्र में ही परलोक सिधार गए थे । उस का नाम था TOOTANKHAAMAN, इस का शव इजिप्ट के शहर लुक्सर में वैली ऑफ दी किंग्ज में से ढूंडा गिया था और जिस ने यह ढूंडा था वोह एक अँगरेज़ हावर्ड कार्टर था। यह शव उस ने1922 में दरिआफत किया था। पचास मिनट की यह डाकूमैंटरी देख कर मेरे मन में आया, काश ! मैं कभी यह सब देख सकता। इस डाकूमैंटरी में वोह tomb दिखाया जा रहा था, जिस में से tootankhaanam का शव निकाला जा रहा था। एक बहुत बड़े बॉक्स में उस का शव रखा हुआ था, शव के ऊपर मुंह और सारे शरीर पर सोने का बहुत ही खूबसूरत खोल चढ़ा हुआ था और इस ऊपरले खोल को उतार कर दिखाया जा रहा था tootankhaaman का शव जो कपडे की पट्टीयों में लिपटा हुआ था। हैरानी इस बात की थी कि साढ़े चार हज़ार साल पुराना शव और कपडे की पट्टियां ऐसे दिखाई दे रही थीं, जैसे आज ही कपडे की पट्टियों से उस को लिपटा गया हो।
इस डाक्यूमेंट्री में बहुत डिटेल में बताया जा रहा था। इतिहासकार, tootankhamn के बारे में बातचीत कर रहे थे कि युवा अवस्था में इस बादशाह का मर जाना बहुत से सवाल खड़े करता है। बोल रहे थे कि बेछक tootankhamn के बॉक्स के पास उस का सारा सामान जैसे सोने की कुर्सी, सोने की चारपाई फ्रेम और हैड बोर्ड, सोने के जूते और बहुत सा बेगिनत सामान जैसे उस का सोने का रथ, लेकिन उस का tomb एक बादशाह जैसा नहीं था और यह भी लगता था कि उस को बहुत जल्दी से दफनाया गया हो, हो सकता है यह इस लिए कि किसी साजिश के तहत उस को मारा गया हो और उस के सर पर लगी चोट से यह जाहर भी होता था। जिस कमरे में उस का शव मिला था, उस के चारों और पेंटिंग्ज थीं, जिन में बहुत सी अभी कम्प्लीट भी नहीं हुई थीं और जो कम्प्लीट हुई थीं, उन को सुखाया भी नहीं गया था, इसी लिए बहुत सी पेंटिंग्ज इन में से खराब हो गई थीं और बहुत जगह से प्लास्टर उखड़ा हुआ था। इस डाकूमैंटरी को डिटेल में ना बताता हुआ मैं यह ही कहूंगा कि इस डाकूमैंटरी ने मुझे बहुत प्रभावत किया था। इस के बाद इजिप्ट के पुराने बादशाहों पे आधारित फिल्मे भी देखने लगा था, जैसे curse of the mumi, mumi returns और ऐसी बहुत सी अन्य फ़िल्में जिन का नाम तो मुझे याद नहीं लेकिन वोह सीन मुझे कभी नहीं भूले। कभी कभी लाएब्रेरी से मैं किताबें लाता लेकिन पुराने इजिपशियन नाम ऐसे थे कि ज़्यादा समझ नहीं आता था। जैसे मुहिंजोदारो और हड़प्पा की सभियता थी, इसी तरह इजिप्ट की अपनी सभियता थी। उन की अपनी भाषा थी और यह सभियता बहुत उनत थी। उन का अपना धर्म था और उन के बादशाहों को फैरो बोलते थे। आज इतहास्कारों ने यह पुरानी इजिप्शियन भाषा को कुछ कुछ समझ लिया है। इन फैरो के tomb की दीवारों पर जो पेंटिंग हैं और साथ साथ पशु पक्षिओं की तस्वीरें हैं, वोह उन की जुबां की लिपि थी। अक्सर मैं सोचा करता था कि इन फैरो के मुंह के नीचे ठोड़ी पर लम्बी लम्बी किया चीज़ थी तो इस डाकूमैंटरी में बताया गिया कि यह उस वक्त के बादशाहों का फैशन होता था, जो किसी बड़े आदमी को दर्शाता था।
गियानो बहन और उन के दोनों बेटे कभी कभी हमारे घर आते ही रहते थे क्योंकि उन का घर दस मिनट दूर ही है। छोटे बेटे बलवंत को ऐसी इतहास की बातों में कोई दिलचस्पी नहीं है लेकिन जसवंत को बहुत है। बहुत सालों से वोह हस्पताल में काम कर रहा है और हस्पताल की ओर से उसे बहुत से देशों में जाना पढता है। जब वोह जाता है तो कोई इत्हासिक जगह को जरुर देखता है। मेरे साथ इतहास की बातें करना उस को अच्छा लगता है क्योंकि मैं भी इस में दिलचस्पी लेता हूँ। बहुत साल पहले हस्पताल के मामले में वोह चीन गिया था और ग्रेट वाल ऑफ चाइना पर चढ़ कर आया था तो इतहास की बातें उस ने मुझे बहुत सुनाई। सब से अछि बात जो मुझे दिलचस्प लगी थी, वोह थी, टैराकोटा आर्मी के बुत्त। कुछ कुछ तो मैंने डाकूमैंटरी में देखा हुआ था लेकिन जसवंत के मुंह से सुन कर बहुत अच्छा लगा। उस ने कहा था,” मामा ! चीन के एक प्रांत में कुछ मज़दूर काम कर रहे थे, तो अचानक उन्होंने एक बुत्त देखा। आगे आगे गए तो अन्य बुत्त भी दिखने लगे। चीन के पुरारतव विभाग को जब यह पता चला तो काम बन्द करवा दिया गया और खुदाई शुरू हो गई। जैसे जैसे खुदते गए, और बुत्त आने लगे। जब खुदाई बन्द हुई तो यह बुत्त आठ हज़ार हो गए। यहां से ही उस समय के बादशाह का रथ भी मिला, जिस के आगे पत्थर के दो घोड़े लगे हुए थे। उस समय बादशाहों का यकीन होता था, कि जो भी चीज़ उन के मरने के बाद उन की कब्र के पास रखी हो, वोह उसे अगले जनम में मिलेगी। इसी लिए बादशाओं के मरने के बाद उस को जिस चीज़ की भी इच्छा होती थी, वोह उस के साथ ही दफ़न कर दी जाती थी। इस बादशाह ने अपनी फ़ौज के सभी सिपाहियों के यूनिफार्म में बुत्त बनवाये थे, जो अपने हथियारों के साथ खड़े थे। यह बुत्त इतने खूबसूरत बनाये गए थे कि हर सिपाही का चेहरा एक दूसरे से नहीं मिलता था, लगता है, जो जो किसी सिपाही का चेहरा होगा, वैसा ही बुत्त बनाया गया था”, जसवंत की बातें सुन कर मुझे बहुत अच्छा लगा।
कुछ महीने बाद जसवंत एक दिन फिर आया, अक्सर वोह काम ख़तम करके जब अपने घर जाता था तो हमें मिलने आ जाता था क्योंकि पहले हमारा घर ही रास्ते में आता था। चाय बगैरा पीते पीते जसवंत बोला, ” मामा ! चल इजिप्ट का चक्कर ला आएं, एक अछि डील मिल रही है “, जब मैंने पुछा कि कब जाना है तो जो तारिख उस ने बताई, उस वक्त बच्चों को कोई छुटी नहीं थी ताकि वोह ऐरन की देख भाल कर सकें। मैंने कुछ हिचकिचाहट की लेकिन उसी वक्त कुलवंत बोली कि हम दोनों जा आएं, वोह ऐरन को संभाल लेगी। उसी वक्त हम ने फैसला कर लिया कि मैं और जसवंत दोनों ही इजिप्ट जाएंगे। कोई एक हफ्ते बाद जसवंत आया और मुझे बता दिया कि इजिप्ट के लिए दो हफ्ते की हॉलिडे बुक हो गई थी। एक हफ्ता दरिया नील की एक बोट में गुज़ारना ( इस बोट में सौ या इस से ऊपर लोग रह सकते हैं और यह एक चलते फिरते होटल जैसी होती है ) था और दूसरा हफ्ता एक प्रसिद्ध होटल ( winter palace )में गुज़ारना था जिस में कभी हावर्ड कार्टर रहा करता था, जिस ने TOOTANKHAAMN का बॉक्स ढूंढा था। जसवंत के मुंह से यह बात सुन कर मुझे इतनी ख़ुशी हुई कि लिखना असंभव है क्योंकि इज्पिट देखने की खुवाहिश तो मुझे बहुत देर से थी। इस बात का मुझे अफ़सोस था कि कुलवंत ने साथ नहीं जाना था क्योंकि ऐरन को स्कूल ले जाना भी जरूरी था।
अब तैयारी शुरू हो गई। एक दूकान से मैंने इजिप्ट की गाइड बुक खरीद ली, ताकि कुछ कुछ आइडिया हो सके। एक ताश की डिबिया हम ने ले ली ताकि जरुरत हो तो ताश भी खेल सकें। इजिप्ट के लिए हमें वीज़ा लेने की जरुरत नहीं थी क्योंकि वीज़ा हमें लुक्सर एअरपोर्ट पर ही मिल जाना था। इजिप्ट के लिए हम को अपने डाक्टर से इंजेक्शन लगवाने थे। जसवंत का डाक्टर कोई और था और मेरा डॉक्टर कहीं गया हुआ था और उस की जगह डाक्टर मेहता साहब थे। अपॉएंटमेंट ले कर मैं डाक्टर साहब की सर्जरी में जा पहुंचा। डाक्टर मेहता था तो एक लोकम डाक्टर ही लेकिन बहुत अच्छा और जब कभी भी वोह होता तो बहुत बातें करता था । मैंने उस को बोला कि हम ने इजिप्ट जाना था तो वोह लुक्सर की बातें करने लगा कि लुक्सर में देखने को बहुत कुछ था। बहुत बातें उस ने पहले ही मुझे बता दी क्योंकि वोह खुद वहां जा कर आया था,और मेरी ख़ुशी में इज़ाफ़ा हो गया।
बर्मिंघम एअरपोर्ट से हमें उड़ना था। संदीप को कोई छुटी नहीं थी, इस लिए हम ने ट्रेन में जाने का ही सोच लिया। जिस दिन हम ने जाना था, हम ने टैक्सी ली और ट्रेन स्टेशन पर पहुंच गए। ट्रेन सीधी बर्मिंघम एअरपोर्ट के नज़दीक के स्टेशन पर पहुँच गई, बाहर आते ही एअरपोर्ट बस हमारे नज़दीक ही खड़ी थी, उस में बैठ कर पांच मिंट में ही बिलकुल एअरपोर्ट के डिपार्चर लौन्झ के सामने आ गए। डिपार्चर लौन्झ में हमारे पहले ही चैक इन पर लाइन लगी हुई थी। कोई भीड़ नहीं थी, धीरे धीरे हम काउंटर पर पहुँच गए। पांच मिंट में ही सामान बैल्ट से चले गया और हम अपने पासपोर्ट, टिकटें और बोर्डिंग कार्ड ले कर आगे चले गए और कुछ शॉपिंग करने के लिए दुकानों में घूमने लगे। कुछ निऊज़ पेपर और मैगज़ीन लिए और ऐरोप्लेन की इंतज़ार करने लगे। सामने स्क्रीन पर सारी इन्फर्मेशन लगातार आ रही थी। यूं ही हमें फ्लाइट की तरफ जाने का संकेत मिला, हम गेट पर पासपोर्ट दिखा के सीधे ऐरोप्लेन की तरफ चले गए। इस फ्लाइट पर भी हम दो इंडियन ही थे, शेष गोरे ही थे। कुछ ही पलों में हम मज़े से ऐरोप्लेन में बैठ कर लुक्सर इजिप्ट की तरफ उड़ रहे थे। चलता। . . . . . . .