पुस्तक समीक्षा

स्वामी ब्रह्ममुनि रचित एक नये महत्वपूर्ण प्रकाशन अथर्ववेदीय चिकित्सा शास्त्र का परिचय

ओ३म्

आर्य समाज के साहित्य के प्रमुख प्रकाशकों में एक नाम है श्री ‘घूडमल प्रहलादकुमार आर्य धर्मार्थ न्यास, हिण्डौन सिटी-322230’ (सम्पर्क दूरभाषः 09414034072/ 09887452959) जिनका एक नया प्रकाशन है ‘अथर्ववेदीय चिकित्सा शास्त्र’। इस ग्रन्थ के रचयिता आर्यजगत के उच्च कोटि के विद्वान सन्यासी स्वामी ब्रह्ममुनि परिव्राजक, विद्यामार्तण्ड जी थे। स्वामी जी वेदों एवं वैदिक साहित्य के अधिकारी विद्वान रहे हैं। आपने स्वामी दयानन्द सरस्वती जी की मृत्यु के बाद ऋग्वेद के दशम काण्ड का भी ऋषि दयानन्द जी की शैली पर ही भाष्य किया है। वैदिक विमान शास्त्र की खोज भी आपने ही की थी। अनेक विषयों पर आपने अनेक ग्रन्थों की रचनायें की है जो आर्य समाज के पाठकों द्वारा श्रद्धापूर्वक पढ़ी जाती हैं। ऐसी ही उनकी एक रचना ‘अथर्ववेदीय चिकित्सा शास्त्र’ है जो विगत अनेक वर्षों से अनुपलब्ध थी और जिसे आर्यजगत भूला हुआ था। इस पुस्तक का सम्पादन आर्यजगत के विख्यात विद्वान् डा. विनोदचन्द्र विद्यालंकार, ज्वालापुर ने किया है। आप अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थों का लेखन व सम्पादन कर चुके हैं। एक विलक्षण व्यक्तित्व : स्वामी श्रद्धानन्द’, ‘श्रुति मन्थन’ तथाशतपथ के पथिक स्वामी समर्पणानन्द सरस्वती’ आपकी बहुचर्चित प्रसिद्ध रचनायें हैं। अन्य अनेक ग्रन्थों का सम्पादन व लेखन भी आपके द्वारा हुआ है। भविष्य में भी आपसे अनेक महत्वपूर्ण एवं उपयोगी ग्रन्थ मिलने की सम्भावना है। ईश्वर से प्रार्थना है कि वह आपको दीर्घायु एवं अच्छा स्वास्थ्य प्रदान करें।

इस पुस्तक का संक्षिप्त परिचय देने के लिए हम आज यह लेख लिख रहे हैं। पुस्तक की पृष्ठ संख्या 348 तथा मूल्य दो सौ पचास रुपये है। पुस्तक का मुद्रण एवं कागज सुन्दर, भव्य एवं आकार्षक है। पुस्तक के आरम्भ में डॉ. विनोद चन्द्र विद्यालंकार जी द्वारा लिखित 43 पृष्ठों की प्रस्तावना है। प्रस्तावना में विद्वान सम्पादक ने वेदों के महत्व, वेदों में औषधीय व चिकित्सा विषयक ज्ञान का उल्लेख, ओषधीय वृक्षों एवं वनस्पतियों का वर्गीकरण, ऋग्वेद में निर्दिष्ट वनस्पतियां, यजुर्वेद में निर्दिष्ट वनस्पतियां, अथर्ववेद में निर्दिष्ट वनस्पतियां, ब्राह्मण ग्रन्थों में निर्दिष्ट वनस्पतियां, उपनिषदों में निर्दिष्ट वनस्पतियां, कल्पसूत्रों में निर्दिष्ट वनस्पतियां, पाणिनीय अष्टाध्यायी तथा वार्तिक में निर्दिष्ट वनस्पतियां, विशेष रूप से वार्तिक में निर्दिष्ट वनस्पतियां, पातंजल महाभाष्य में निर्दिष्ट वनस्पतियां, यास्ककृत निरुक्त में निर्दिष्ट वनस्पतियां, आयुर्वेद ग्रन्थ चरक संहिता’ में निर्दिष्ट ओषधीय द्रव्य, अर्जुन (Terminalid aryguna W.&A.½] अश्वत्थ (Ficus religiosa linn), खदिर (Acacia Catechu Willd), उदुम्बर, अपामार्ग, कुष्ठ, पिप्पली, रोहिणी/मांसरोहिणी, पाटा या पाठा आदि से संबंधित विस्तृत परिचय, विवरण एवं वनस्पतियों आदि के नाम दिये गए हैं जिनका अध्ययन ज्ञान में वृद्धि करने में उपयोगी होने के साथ जीवन में लाभकारी है। यह जानकारी शायद अन्यत्र सरलता से उपलब्ध न हो। इसके लिए विद्वान सम्पादक ने कितना गहन अध्ययन और परिश्रम किया है, इसका मूल्यांकन करना सरल नहीं है। अतः सभी आर्य पाठकों को इस पुस्तक का अध्ययन कर लाभ उठाना चाहिये।

प्रस्तावना के बाद 6 पृष्ठों की ग्रन्थ की विषयानुक्रमणिका’ दी गई है। मुख्य विषय सूत्र स्थान (पृष्ठ 54-87), द्वितीय स्थान : शरीर स्थान (पृष्ठ 88-105), तृतीय अध्याय : निदान स्थान (पृष्ठ 106-117), चतुर्थ स्थान :  चिकित्सास्थान (पृष्ठ 118-341) हैं तथा अन्त में ग्रन्थ में सम्मिलित मन्त्रों की अनुक्रमणिका दी गई है। इन अध्यायों में जो विषय सम्मिलित किये गये हैं वह हैं स्वस्थवृत्त, रोगी परिचर्या, निघण्टु, आश्वासन चिकित्सा, उपचार चिकित्सा, सूर्यकिरण चिकित्सा, जल चिकित्सा, अग्निवायु होम चिकित्सा, शल्य चिकित्सा, विष चिकित्सा, कृमि चिकित्सा, रोग चिकित्सा, स्वप्न दोष चिकित्सा, वाजीकरण चिकित्सा एवं पशु चिकित्सा आदि। इन सब विषयों को अनेकानेक उपविषय देकर उन पर सारगर्भित प्रकाश डाला गया है और उनसे सम्बन्धित अथर्ववेद के मन्त्रों व उनके अर्थ वा भाष्य सहित अनेक उद्धरण व उनके पते आदि भी दिये गये हैं। अनेक पाद टिप्पणियों में उपयोगी उद्धरण दिये गये हैं। इन सभी कारणों से ग्रन्थ की महत्ता बढ़ गई है।

चतुर्थ अध्याय में रोग चिकित्सा के अन्तर्गत केश रोग, शिरो रोग, मानसिक रोग, दुःस्वप्न या निद्रानाश की चिकित्सा, उन्माद रोग चिकित्सा, भूतोन्माद को दूर करना, अपस्मार-हिस्टीरिया रोग की चिकित्सा, नेत्र रोग चिकित्सा, कास रोग, खांसी को दूर करना, अपची गण्डमाला की चिकित्सा, हद्रोग अर्थात् हृदय की दाह, कम्प, धड़कन और शूल को दूर करना, श्वास रोग के लिए, उरःक्षत राजयक्ष्मा रोग की चिकित्सा, अग्निमान्द्य-मन्दाग्नि, वमन, भस्मक, तृषा रोग को दूर करने के लिए, अर्श रोग चिकित्सा, मूत्र रोग आदि अनेक विषयों की चिकित्सा विषयक अथर्ववेदीय मन्त्रों के आधार पर उपयोगी जानकारी दी गई है। यहां हम पुस्तक से नेत्र रोग चिकित्सा के अन्तर्गत दिये गये 4 पृष्ठीय विवरण का प्रथम पैरा उद्धृत कर रहे हैं जिससे पाठको को इस एक रोग का अति संक्षिप्त परिचय मिल सकेगा। ऐसे अनेकानेक रोगों के परिचय व चिकित्सा सहित पूरा चिकित्सा शास्त्र ही इस ग्रन्थ में दिया गया है। नेत्र रोग चिकित्सा का उल्लेख कर कहा गया है ‘नेत्रों में धुन्धलापन, जलन, पीड़ा होना तथा नेत्रस्राव और मन्ददृष्टि आदि हो जाना नेत्र रोग हैं। नेत्र रोगों के सम्बन्ध में अथर्ववेद मे कई स्थलों पर चिकित्सा का वर्णन है। वहां जल चिकित्सा, आंजनमण तथा जंगिड़मणि के प्रयोग, कुष्ठ ओषधि और कमलपुष्प के द्वारा नेत्र रोगों की चिकित्सा करने का विधान है। जल चिकित्सा प्रकरण हम पीछे दे आए हैं, वहां जल के द्वारा नेत्रों की जलन और पीड़ा को दूर करने की विधि बतला आए हैं वहां से देख लें। आंजनमणि तथा जंगिड़मणि के द्वारा नेत्र चिकित्सा के लिये हमारी लिखी पुस्तक ‘‘अथर्ववेदीय मन्त्र विद्या” का मणि बन्धन’ प्रकरण देखो। कुछ ओषधियों के द्वारा नेत्रों का धुन्धलापन दूर होता है, इसके सम्बन्ध में इसी ग्रन्थ के आगे आनेवाले श्वास रोग चिकित्सा’ में  देखें। अब केवल कमलपुष्प के द्वारा नेत्रों की निर्बलता, स्राव, धुन्धलापन, जलन, पीड़ा आदि नेत्र रोगों को दूर करके दृष्टि शक्ति की वृद्धि को यहां अथर्ववेद काण्ड 4 सूक्त 20 से दर्शाते हैं। इसके बाद का विद्वान लेखक का विवरण हम यहां स्थानाभाव के कारण नहीं दे पा रहे हैं। पाठक यदि चाहें तो पुस्तक मंगा कर देख सकते हैं।

पुस्तक के विषय में हम अपनी ओर से यही कहेंगे कि पुस्तक अनेक दृष्टियों से उपयोगी है। इसके अध्ययन से पाठक के ज्ञान में वृद्धि तो होगी ही अपितु यह ज्ञान वर्तमान व भावी जीवन में काम भी आ सकता है। मनुष्य का किया हुआ कोई भी कर्म व्यर्थ नहीं जाता। इस दृष्टि से इस पुस्तक के पढ़ने में जो श्रम होगा उसका लाभ देर सबेर पाठकों को अवश्यमेव मिलेगा ऐसा हम अनुभव करते हैं। हम इस पुस्तक के प्रकाशन के लिए स्वामी ब्रह्ममुनि जी को श्रद्धा सहित स्मरण करने के साथ इस पुस्तक के सम्पादक श्रद्धेय डॉ. विनोदचन्द्र विद्यालंकार एवं इसके प्रकाशक श्रद्धेय श्री प्रभाकरदेव आर्य जी का भी हार्दिक धन्यवाद करते हैं। इस परिचय व विवरण को लिखने में अभी शायद और समय लगता परन्तु कल हमारे अमेरिका के एक मित्र श्री रामेश्वर गुप्ता जी ने इसका परिचय जानना चाहा। उनके फोन ने इस काम को करने का हमें अवसर प्रदान किया। हम आशा करते हैं कि पाठक इस संक्षिप्त विवरण से लाभान्वित होंगे। ईश्वर ने हमें वैदिक ग्रन्थों के स्वाध्याय में रुचि दी है। उससे ही हम ऐसे कार्यों को करते हैं। इसके लिए ईश्वर का धन्यवाद है। उसकी दी हुई शक्ति से सम्पन्न यह कार्य उसी को समर्पित है। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य