ग़ज़ल
जब की खुद हमने बढाई है मुसीबत अपनी,
आओ खुद से ही करी जाए शिकायत अपनी।
वक्त बदला भी तो किस काम का अपने यारों,
बद से बदतर ही हुई जाए है हालत अपनी।
लाख फिर मंज़रे – हाज़िर की गिरी सूरत हो,
देखना वो ही हमें है जो है चाहत अपनी।
बस कि चुपचाप सहो, कुछ न कहो उनको तुम,
जो करो उज्र तो फिर जाए है इज़्ज़त अपनी।
फिर कहीं मौत ने घर लूट लिया मुफलिस का,
फिर नयी शक्ल दिखाएगी सियासत अपनी।
कब तलक हमको सताएगा तग़ाफ़ुल उनका,
कब तलक ‘होश’ न जागेगी ये ग़ैरत अपनी।
मंज़रे-हाज़िर – वर्तमान ; उज्र – ऐतराज़, विरोध
तग़ाफ़ुल – उपेक्षा ; ग़ैरत – स्वाभिमान

परिचय - मनोज पाण्डेय 'होश'
फैजाबाद में जन्मे । पढ़ाई आदि के लिये कानपुर तक दौड़ लगायी। एक 'ऐं वैं' की डिग्री अर्थ शास्त्र में और एक बचकानी डिग्री विधि में बमुश्किल हासिल की। पहले रक्षा मंत्रालय और फिर पंजाब नैशनल बैंक में अपने उच्चाधिकारियों को दुःखी करने के बाद 'साठा तो पाठा' की कहावत चरितार्थ करते हुए जब जरा चाकरी का सलीका आया तो निकाल बाहर कर दिये गये, अर्थात सेवा से बइज़्ज़त बरी कर दिये गये। अभिव्यक्ति के नित नये प्रयोग करना अपना शौक है जिसके चलते 'अंट-शंट' लेखन में महारत प्राप्त कर सका हूँ।
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