सामाजिक

समाज में साहित्यकार की भूमिका

समाज शब्द का अर्थ है – समान कार्य करनेवालों का समूह या विशेष उद्देश्य की पूर्ति केलिए संघटित संख्या। मानव जीवन की लंबी यात्रा में सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति में उसको सही दिशा पर ले जाने का श्रेय साहित्यकार को होता है। इसलिए साहित्य के बारे में कहा गया है कि “हितं सहितं साहित्यं।” आँध्रप्रदेश के प्रगतिशील लेखक संघ के द्वारा आयोजित दो दिवसीय प्रगतिशील लेखकों की पाठशाला के समापन कार्यक्रम में आँध्रप्रदेश के माननीय शासन सभापति मंडलि बुद्ध प्रसाद ने कहा है कि “हम तो केवल शासन सभा के सदस्य हैं वास्तव में आप लोग ही शासनकर्ता हैं।” साहित्यकारों में प्रेरणा देनेवाले यह प्रसंग हमें सत्यदूर नहीं लगता है। साहित्यकार समाज में जो अनुभव करता है, मानवीय दृष्टि से देखता है उसी को साहित्य के माध्यम से व्यक्त करता है। इसलिए साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है। जिस तरह दर्पण में हम अपने प्रतिबिंब को देखकर सजाते-संवारते हैं उसी प्रकार साहित्य के माध्यम से सामाजिक कार्य होते रहते हैं। समाज में विकासशील परिवर्तन लाने में साहित्यकार की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। साहित्य के माध्यम से सामाजिक चेतना होती  है। सामाजिक समरसता एवं एकता की भावना बढ़ाने में उसकी भूमिका अखंड होती है।

पी. रवींद्रनाथ

ओहदा : पाठशाला सहायक (हिंदी), शैक्षिक योग्यताएँ : एम .ए .(हिंदी,अंग्रेजी)., एम.फिल (हिंदी), पी.एच.डी. शोधार्थी एस.वी.यूनिवर्सिटी तिरूपति। कार्यस्थान। : जिला परिषत् उन्नत पाठशाला, वेंकटराजु पल्ले, चिट्वेल मंडल कड़पा जिला ,आँ.प्र.516110 प्रकाशित कृतियाँ : वेदना के शूल कविता संग्रह। विभिन्न पत्रिकाओं में दस से अधिक आलेख । प्रवृत्ति : कविता ,कहानी लिखना, तेलुगु और हिंदी में । डॉ.सर्वेपल्लि राधाकृष्णन राष्ट्रीय उत्तम अध्यापक पुरस्कार प्राप्त एवं नेशनल एक्शलेन्सी अवार्ड। वेदना के शूल कविता संग्रह के लिए सूरजपाल साहित्य सम्मान।