गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

नये साल में एक ताज़ातरीन ग़ज़ल

कुछ काम ज़रूरी जो हमारे निकल आए,
रिश्तों में कई पेंच तुम्हारे निकल आए।

हमने तो वही बात कही है जो बज़ा थी,
क्यूँ आपकी आँखों से शरारे निकल आए।

जिस कारे – जफ़ाई से परीशान रहे हम,
उस ग़म के यहाँ और भी मारे निकल आए।

हैं बाद तेरे, ख़्वाब तेरे, यादें तेरी अब,
जीने के लिये और सहारे निकल आए।

बैठे रहे साहिल पे तो पहुँचे न कहीं तक,
जब ग़र्क हुए हम तो किनारे निकल आए।

ज़ाहिर है कोई काम तुम्हे ‘होश’ पड़ा है,
यूँ ही तो मरासिम न तुम्हारे निकल आए?

शरारे -चिंगारी ; कारे-जफ़ाई – धोका देना
मरासिम – रिश्ते, संबंध

मनोज पाण्डेय 'होश'

फैजाबाद में जन्मे । पढ़ाई आदि के लिये कानपुर तक दौड़ लगायी। एक 'ऐं वैं' की डिग्री अर्थ शास्त्र में और एक बचकानी डिग्री विधि में बमुश्किल हासिल की। पहले रक्षा मंत्रालय और फिर पंजाब नैशनल बैंक में अपने उच्चाधिकारियों को दुःखी करने के बाद 'साठा तो पाठा' की कहावत चरितार्थ करते हुए जब जरा चाकरी का सलीका आया तो निकाल बाहर कर दिये गये, अर्थात सेवा से बइज़्ज़त बरी कर दिये गये। अभिव्यक्ति के नित नये प्रयोग करना अपना शौक है जिसके चलते 'अंट-शंट' लेखन में महारत प्राप्त कर सका हूँ।