राजनीति

कर संगत

अपने बजट भाषण के दौरान वित्त मंत्री ने बताया की हमारे देश के लोग कर भुगतान में सबसे पीछे हैं। यह बात शत प्रतिशत सही है। कर न देने के लिये हम क्या क्या जतन नहीं करते और इसमें सरकार की नीतियाँ भी हमें रोकने के बजाय बढ़ावा देती हैं। कर बचाने में हमें रास्ता दिखाती हैं। और शायद यही कारण है कि हम सीना तानके किसी भी ऐसे काम का विरोध नहीं कर पाते जिसमें सरकारी पैसे का दुरुपयोग होता है या जो आम हित में नहीं होता।

बचत द्वारा कर की छूट पा लेना हमें देश के विकास में अपना योगदान नहीं करने देता। यह सही है कि बचत पर अर्जित ब्याज पर कर देय है पर यहाँ भी 10000/- तक का ब्याज कर मुक्त है। तमाम संस्थाओं को, जिनमें हास्यस्पद तौर पर राजनीतिक दल और धार्मिक मठ भी शामिल हैं, मिलने वाला अनुदान कर मुक्त है। अर्थात सरकार खुद नहीं चाहती की हम विकास के भागीदार बनें।

मेरे हिसाब से अब वक्त आ गया है की, कुछ खास संस्थाओं को छोड़ कर जैसे प्रधानमंत्री सहायता कोष, आपदा प्रबंधन कोष या सेना कल्याण कोष, हर प्रकार की कर छूट समाप्त कर देनी चाहिये। करमुक्त संस्थाओं में भी सीमित दान की ही मंजूरी होनी चाहिये। मैं मानता हूँ कि अर्थ व्यवस्था में बचत एक आवश्यक अवयव है पर आज के दौर में बचत के बिना जीवन आसान नहीं है और इसके लिये किसी प्रलोभन की आवश्यकता नहीं रह गयी है। लूट का व्यापार बन चली शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा से निपटने के लिये आज बचत करना, बीमा कराना आदि अति आवश्यक हो गया है, अतः बचत करना अनिवार्यता बन चुकी है। फिर आज समाज का बहुत बड़ा हिस्सा बैंक से जुड़ हुआ है और अपने तमाम आर्थिक लाभ वो बैंक के द्वारा ही पा रहा है जिससे बहुत कुछ बचत तो स्वतः ही हो जाती है। ऐसे में यदि बचत पर मिलने वाली कर छूट को हटा भी लिया जाय तो कुल बचत पर नगण्य अंतर ही पड़ेगा। इस प्रकार करदाता को कर देने के लिये बाध्य किया जा सकता है। यहाँ यह बताता चलूँ की कराधान का एक मंत्र यह भी है की कर की दर ऐसी हो जिसे देने में कर दाता को परेशानी न हो, अन्यथा वह कर चोरी को बाध्य होगा। कर की दर को कम से कम रख कर जहाँ कराधान का दायरा बढ़ेगा, वहीं करदाता को कर चुकाने में असुविधा भी नहीं होगी। इससे कर द्वारा प्राप्तियाँ तो बढ़ेंगी ही कर दाता को अपने एक अहम् दायित्व का बोध भी होगा।

मैंने अपने ‘काला धन्+धा’ लेख में आयकर समाप्त करने की बात कही थी और उसकी जगह व्यय कर या ट्रांज़ैक्शन कर की बात की थी जिसके द्वारा उन लोगों को भी कर क्षेत्र में लाया जा सकता है जो अभी खुद को बचा ले जाते हैं। अब अगर वो संभव नहीं है तो उपरोक्त पर अमल किया जा सकता है। छोटे कामगरों और उद्योगों पर एक मुश्त कर लागू कर के उन्हे भी करक्षेत्र में लाया जा सकता है। 2500/- सालाना जैसी रकम देने में लोगों को परेशानी नहीं होगी और वो लोग भी विकास में भागीदार हो जाएँगे जो अब तक नहीं थे।

मनोज पाण्डेय 'होश'

फैजाबाद में जन्मे । पढ़ाई आदि के लिये कानपुर तक दौड़ लगायी। एक 'ऐं वैं' की डिग्री अर्थ शास्त्र में और एक बचकानी डिग्री विधि में बमुश्किल हासिल की। पहले रक्षा मंत्रालय और फिर पंजाब नैशनल बैंक में अपने उच्चाधिकारियों को दुःखी करने के बाद 'साठा तो पाठा' की कहावत चरितार्थ करते हुए जब जरा चाकरी का सलीका आया तो निकाल बाहर कर दिये गये, अर्थात सेवा से बइज़्ज़त बरी कर दिये गये। अभिव्यक्ति के नित नये प्रयोग करना अपना शौक है जिसके चलते 'अंट-शंट' लेखन में महारत प्राप्त कर सका हूँ।