धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

“ब्रह्म चिन्तन” किसे कहते है ?

पानी का अपना कोई आकार नहीं होता. उसे जिस पात्र में भी डालते हैं, वह उसी का आकार ले लेता है.
इसी तरह चित्त का भी अपना कोई आकार नहीं होता.उसको जिस ख्याल में आप रखेंगे, उसी के मुताबिक हो जाएगा.
चिंतन का अर्थ होता है, मन का किसी एक विचार में बार-बार रमण करना. जब हम ब्रह्म के विषय में बार-बार चिंतन करते
है तो चित्त में ब्रह्मभाव पैदा होता है, जो मुक्ति की ओर ले जाने मददगार है. ब्रह्म चिंतन करना बड़ा कठिन होता है,
क्योंकि मन रोजमर्रा के कामों में उलझकर उन्हीं का रूप बन जाता है और उन्ही के चिन्तन में डूब जाता है और
ब्रह्मभाव से दूरी बन जाती है. इसलिए जरूरी हो जाता है कि मन को खींच कर बार बार ब्रह्म विचार में लगाना पड़ता है
.उसके बाद ही मन स्थीर हो पाता है.
“गीता” भगवत वाणी है जो हर पल मार्गदर्शक बनकर जीवन संवारती है .
गीता का उपदेश अत्यन्त पुरातन योग है. श्री भगवान कहते हैं इसे मैंने सबसे पहले सूर्य से कहा था.
सूर्य (प्रकाश) ज्ञान का प्रतीक है अतः श्री भगवान के वचनों का तात्पर्य है कि पृथ्वी उत्पत्ति से पहले भी अनेक स्वरूप
अनुसंधान करने वाले भक्तों को यह ज्ञान वह दे चुके हैं. यह ईश्वरीय वाणी है जिसमें सम्पूर्ण जीवन का सार है एवं आधार है.
मैं कौन हूँ? यह देह क्या है? इस देह के साथ क्या मेरा आदि और अन्त है? देह त्याग के पश्चात् क्या मेरा अस्तित्व रहेगा? यह अस्तित्व कहाँ और किस रूप में होगा? मेरे संसार में आने का क्या कारण है? मेरे देह त्यागने के बाद क्या होगा, कहाँ जाना होगा? किसी भी जिज्ञासु के हृदय में यह बातें निरन्तर घूमती रहती हैं. हम सदा इन बातों के बारे में सोचते हैं और अपने को, अपने स्वरूप को नहीं जान पाते.गीता शास्त्र में इन सभी के प्रश्नों के उत्तर सहज ढंग से श्री भगवान ने धर्म संवाद के माध्यम से दिये हैं. इस देह को क्षेत्र कहा है और जीवात्मा इस क्षेत्र में निवास करता है, वही इस देह का स्वामी है परन्तु एक तीसरा तत्व भी है, जब वह प्रकट होता है; अधिदैव इस देह (क्षेत्र) को और जीवात्मा (क्षेत्रज्ञ) का नाश कर डालता है. यही उत्तम पुरुष ही परम स्थिति और परम सत् है.
यही नहीं, देह में स्थित और देह त्यागकर जाते हुए जीवात्मा की गति का यथार्थ वैज्ञानिक एंव तर्कसंगत वर्णन गीता शास्त्र में हुआ है. जीवात्मा नित्य है और आत्मा (उत्तम पुरुष) को जीव भाव की प्राप्ति हुई है. शरीर के मर जाने पर जीवात्मा अपने कर्मानुसार विभिन्न योनियों में विचरण करता है. गीता का प्रारम्भ धर्म शब्द से होता है तथा गीता के अठारहवें अध्याय के अन्त में इसे धर्म संवाद कहा है. धर्म का अर्थ है धारण करने वाला अथवा जिसे धारण किया गया है. धारण करने वाला जो है उसे आत्मा कहा गया है और जिसे धारण किया है वह प्रकृति है.
धर्म शब्द का प्रयोग गीता में आत्म स्वभाव एवं जीव स्वभाव के लिए जगह जगह प्रयुक्त हुआ है.
इसी परिपेक्ष में धर्म एवं अधर्म को समझना आवश्यक है.आत्मा का स्वभाव धर्म है अथवा कहा जाय धर्म ही आत्मा है.
आत्मा का स्वभाव है पूर्ण शुद्ध ज्ञान, ज्ञान ही आनन्द और शान्ति का अक्षय धाम है.
इसके विपरीत अज्ञान, अशान्ति, क्लेश और अधर्म का द्योतक है. आत्मा अक्षय ज्ञान का श्रोत है .
ज्ञान शक्ति की विभिन्न मात्रा से क्रिया शक्ति का उदय होता है, प्रकति का जन्म होता है.
प्रकृति के गुण सत्त्व, रज, तम का जन्म होता है.सत्त्व-रज की अधिकता धर्म को जन्म देती है, तम-रज की अधिकता होने
पर आसुरी वृत्तियाँ प्रबल होती और धर्म की स्थापना अर्थात गुणों के स्वभाव को स्थापित करने के लिए,
सतोगुण की वृद्धि के लिए, अविनाशी ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त आत्मा अपने संकल्प से देह धारण कर अवतार गृहण करती है.
सम्पूर्ण गीता शास्त्र का निचोड़ है बुद्धि को हमेशा सूक्ष्म करते हुए महाबुद्धि आत्मा में लगाये रक्खो तथा
संसार के कर्म अपने स्वभाव के अनुसार सरल रूप से करते रहो. स्वभावगत कर्म करना सरल है और
दूसरे के स्वभावगत कर्म को अपनाकर चलना कठिन है क्योंकि प्रत्येक जीव भिन्न भिन्न प्रकृति को लेकर जन्मा है,
जीव जिस प्रकृति को लेकर संसार में आया है उसमें सरलता से उसका निर्वाह हो जाता है.
श्री भगवान ने सम्पूर्ण गीता शास्त्र में बार बार आत्मरत, आत्म स्थित होने के लिए कहा है.
स्वाभाविक कर्म करते हुए बुद्धि का अनासक्त होना सरल है अतः इसे ही निश्चयात्मक मार्ग माना है.
यद्यपि अलग अलग देखा जाय तो ज्ञान योग, बुद्धि योग, कर्म योग, भक्ति योग आदि का गीता में उपदेश दिया है
परन्तु सूक्ष्म दृष्टि से विचार किया जाय तो सभी योग बुद्धि से श्री भगवान को अर्पण करते हुए किये जा सकते हैं
इससे अनासक्त योग निष्काम कर्म योग स्वतः सिद्ध हो जाता है. यही ब्रह्म चिंतन है .

प्रतिभा देशमुख

श्रीमती प्रतिभा देशमुख W / O स्वर्गीय डॉ. पी. आर. देशमुख . (वैज्ञानिक सीरी पिलानी ,राजस्थान.) जन्म दिनांक : 12-07-1953 पेंशनर हूँ. दो बेटे दो बहुए तथा पोती है . अध्यात्म , ज्योतिष तथा वास्तु परामर्श का कार्य घर से ही करती हूँ . वडोदरा गुज. मे स्थायी निवास है .