कविता

जिसे हक़ नहीं

मैं गर्भ से हूँ
जल्द ही बियाऊँगी
अपनी जैसी…
एक हाड़-मांस की पुतली

जिसे तपाकर, गलाकर
बेड़ियों के सांचे में ढालकर …
परम्पराओं की थाती लाद कर
परोस दिया जायेगा
एक बार फिर …
किसी गुलाब की पंखुड़ियों
से सजे बिस्तर पर

जहाँ काँटों को गूँथकर
गहरे तक चुभो दिया जायेगा
उसकी छाती में…

लहूलुहान चादरों पर
फिर लिखी जायेगी
उजले इतिहास की गाथा
जिसे हक़ नहीं अग्नि देने का
पिंडदान करने का…

पूनम विश्वकर्मा वासम

पूनम विश्वकर्मा

अध्यापिका, बीजापुर, छत्तीसगढ़