हास्य व्यंग्य

वेलेण्टाइन-डे से बर्थ-डे तक

कबीर बाबा बड़े दूरदर्शी थे। वे जानते थे कि आनेवाले ज़माने में भारत वर्ष का यौवन कुछ करे या करे, प्रेम अवश्य करेगा। बीसवीं और इक्कीसवीं सदी में ‘प्यार’ का कारोबार खूब फलेगा, फूलेगा, फैलेगा और पसरेगा। वे खुद तो प्यार न कर सके। करते भी क्या? जब प्रेमिका ढूंढने का समय था, तब गुरू ढूंढने में लगे थे। और वैसे भी उनको कोई लड़की प्रेम न करती। कारण? एक नहीं दो-दो हैं। पहला तो कौन बात-बात में उनकी झिड़कियाँ पसंद करती। और दूसरा, भला एक जुलाहे के पास कोमलांगियों को क्या मिलता? न अर्थ! न अलंकार!! ये बात और है कि दादा प्यार तो न कर सके किंतु प्रेमियों की पीड़ा की गहरी समझ उनको थी। वे सच्चे समाजवादी थे, प्यार की फिलाॅसफी को लेकर। क्या ऊँच-क्या नीच, क्या अमीर-क्या गरीब, क्या हिन्दू-क्या मुसलमान? सबको एक फार्मूला दे दिया, जो आज तक चला आ रहा है-‘ढाई आखर प्रेम का पढे़, सो पंडित होय।’ कोई ज़रूरत नहीं पोथी-पुस्तक पढ़ने की। खूब प्रेम करो और पंडित बनो। वे जानते थे, भारत की भविष्यकालीन शिक्षा प्रणाली रोजगारोन्मुखी भले की न हो, प्रेमोन्मुखी अवश्य रहेगी। बच्चे नर्सरी-के.जी में जाकर क,ख,ग,घ भले ही न सीखें पर ‘आय लव यू’ बोलना अवश्य सीख जाएगी। लड़के-लड़कियाँ स्कूल-काॅलेज जाकर, मैट्रिक या स्नातक भले ही न हों पर गुरूकुल से प्रेमशास्त्र में निपुण होकर अवश्य निकलेंगे। वेलेण्टाइन-डे मनाएँगे। बड़े दूरदर्शी थे-कबीर बाबा।
क्या करें? वेलेण्टाइन-डे मनाना हमारे युवाओं का राष्ट्रीय-पर्व है। या यूँ कहें, अंतर्राष्ट्रीय पर्व है। पुरानी कहावत थी कि जब बेटे के पैर में बाप का जूता आने लग जाए तो वह जवान हो जाता है। अब परिभाषा बदल गयी है- जब आपकी औलाद सिगरेट पीने लगे, तंबाकू खाने लगे, मदिरापान करने लगे, बदन उघाड़ू छोटे-छोटे कपड़े पहनने लगे, तो समझिये वह जवान हो गयी। और यदि वह वेलेण्टाइन-डे मनाने में रूचि लेने लगे, समझदार माँ-बाप को उनके हाथ पीले करने की सोचना चाहिए, वरना मुँह काला भी करवा सकता है। आज वेलेण्टाइन-डे मनाना राष्ट्रीय धर्म होता जा रहा है, युवाओं के लिए। मैंने इस धार्मिक पर्व पर अनेक ऐसे लौंडों को अपनी प्रेमिकाओं को फूल देते देखा है जो माँ-बाप के लिए सिरदर्द की दवा तक नहीं ला सकते। जवानी, स्वाधीनता-दिवस, गणतंत्र-दिवस पर झंडा फहराने भले ही न जाएं, शहीद-दिवस पर भले ही मौन न साधे पर, वेलेण्टाइन-डे मनाने की तैयारी जोर-शोर से करती है। वह युवा असभ्य है, अशिष्ट है, अनपढ़़ है, अज्ञानी है, अछूत है, और अनिष्टकारी है, जो वेलेण्टाइन-डे नहीं मनाता। वेलेण्टाइन-डे न मनाना आधुनिकता के गाल पर तमाचा है। यदि वेलेण्टाइन-डे न मनाओगे तो, विश्व के बाकी देशों से पिछड़ जाओगे। ”फिसड्डी कहीं के!“-अमेरिका, फ़्रांस और इटली हमे कहेंगें
इस धरती पर प्यार करने और उपहार देने का इतिहास सर्वाधिक पुराना है। संसार का सबसे पहले प्रेमी आदम ने, सबसे पहली प्रेमिका हौव्वा को, सबसे पहला गिफ्ट ‘सेब’ तोड़कर दिया था। आदम था, एक नंबर का माँसखोर। जानवरों को मारता, कच्चा खा जाता था, डकार जाता। उसे फल-फ्रूट से कोई लेना-देना न था। उसको इंटरेस्ट था-हौव्वा को सेब खाता देखने में। उधर हौव्वा ने फरमाइश की, कि-‘डाॅर्लिंग, आय वांट देट एपल।’ और आदम मियाँ झाँसे में आ गये। पिट गये बेचारे। दे दिया सेब तोड़़कर हौव्वा को-ले खा। आगे जो हुआ, वह ज़माना जानता है। उसके बाद से जो गिफ्ट देने की पंरपरा आरंभ हुई तो, प्रेमी आज तक उसे निभा रहे हैं। कालान्तर में प्रेमी उस धराधाम पर अवतरित हुए और प्रेमग्रंथ में अपने नाम का अंगूठा लगाते रहे। सोहनी-महिवाल, हीर-रांझा, लैला-मजनू, रोमियो-जूलियट, नल-दमयंती को दुनिया के महानतम प्रेमी मानते हैं। पर वे हमारे मोहल्ले के पप्पू और पिंकी से बीस नहीं हो सकते, साहब! क्यों? अरे! पप्पू और पिंकी वेलेण्टाइन-डे मनाते हैं। इनमें से किसी ने मनाया, वेलेण्टाइन-डे, बताइए?
पिछली बारिश में नौजवानों का प्रकृति के प्रति बढ़ता प्रेम देखकर बड़ी खुशी हुई। सब मिलकर वृक्षारोपण कर रहे थे। मैंने उन्हें बधाई दी तो उनमें से एक बोला-“श्रीमान जी ज्यादा खुश न होइए। हमें न फल खाने हैं और न पर्यावरण बचाने की ठेकेदारी हमने ले रखी है, समझे? वो तो अपनी गर्लफ्रेंड को लेकर बगीचे में जाओ ना, तो पुलिसवाले फालतू परेशान करते हैं। कितनी भी घनी झाड़ियों में घुसकर बैठो, ये कमबख्त वहाँ भी आकर उँगली करते हैं। हमलोग अपने फ्यूचर के लिए ये सब कर रहे हैं।” सच बात है, बेचारे क्या करे? आजकल प्यार करने का प्रचलन इतना बढ़ गया है और जहाँ-तहाँ बिल्डर्स, बगीचे कम बिल्डिंगे बनाने में ज्यादा लगे हैं। और जहाँ थोड़े बाग-बगीचे बचे हैं, वहाँ तोता-मैना झाड़ के ऊपर कम, नीचे ज्यादा दीखते हैं-चोंच मिलाए। अब प्यार आँखें देखकर नहीं होता-‘मेरे मेहबूब तुझे मेरी मोहब्बत की कसम।’ नाऽऽ। अब तो प्यार पलक झपकते ही, आँखें बंद कर हो जाता हैं। और जब आँखें खुलती हैं तो आँखें मिलाने की हालत भी नहीं रह जाती क्योंकि तब तक प्यार, बहुत-सी सीमाएँ लाँघ चुका होता है। तब वेलेण्टाइन-डे मनाने की नहीं, बर्थ-डे मनाने की तैयारी करनी होती है।
कई बार सोचता हूँ, आधुनिक बनते-बनते कहीं हम सच में असभ्य, अशिष्ट, अनपढ़, अज्ञानी, अभद्र, अश्लील और हाँ देश के लिए अनिष्टकारी तो नहीं होते जा रहे……..?

शरद सुनेरी