मुक्तक/दोहा

मुक्तक

किसानों से जमीनें छीन उनके प्राण हरना है,

अमीरों के हितों को ध्यान में रख काम करना है,

कोई जीते कोई हारे फरक पड़ना नहीं कुछ भी,

वतन को लूट कर इनको तो अपना कोष भरना है।

 

बड़ा कोई नहीं होता वतन से कौन समझाए,

इरादे देख कर उनके सियासत स्वयं घबराए,

हुए आजाद जब से आज तक इतना न समझे हम,

उन्हें बस कुर्सी पानी है भले ये मुल्क जल जाए।

 

नजर आता नहीं कोई करे जो दूर मुश्किल को,

गमों का है समन्दर जिंदगी पाना है साहिल को,

अँधेरे ही अँधेरे काटने को दौड़ते हैं अब,

मगर उम्मीद है इक दिन मिलेगी रोशनी दिल को।

 

खिला कर फूल नफरत के सदा ही बच निकलता है,

सरलता से समय के साथ अपने स्वर बदलता है,

किया है प्रेम सबसे ही सदा से हिन्द ने फिर क्यों?

कभी गुजरात जलता है कभी बंगाल जलता है।

 

झुकें हर बार घुटनों तक रहा ऐसा नहीं मौसम,

मिटा कर चंद आतंकी हुआ कुछ तो अँधेरा कम,

जो जिंदा हैं छुपे कलुषित इरादे छोड़ दो वरना,

जहन्नुम तक तुम्हारा रास्ता भी नाप देंगे हम।

 

— उत्तम सिंह ‘व्यग्र’

मो. 9414445432