राजनीति

बन्दूक-बन्दूक का खेल

नक्सलवाद और मजहबी आतंकवाद में सबसे बड़ा बुनियादी फ़र्क उनकी मंशा और कार्यकलाप में है। आतंकवादी संगठन हिंसा के द्वारा आतंक फैला कर सभी देशों की सरकार पर अपना वर्चस्व बनाये रखना चाहते हैं। इनकी मांग न तो सत्ता के लिए है न बुनियादी जरूरतों के लिए है।नौजवानों को गुमराह कर विश्व में एक ही मज़हब का वर्चस्व स्थापित करना इनका उद्देश्य है। मजहबी आतंकवाद ने धीरे-धीरे पूरी दुनिया को अपने कब्जे में ले लिया है। नक्सलवाद इन आतंकी संगठनों से बिल्कुल विपरीत बुनियादी मांगों के लिए अस्तित्व में आया। लेकिन आज नक्सलवाद का रूप क्रूरता के सभी हदों को पार कर चुका है। इनकी मांग निःसंदेह जायज़ है पर तरीका अत्यंत क्रूरतम। साम्यवादी सोच का ज़रा भी अंश नहीं इनमें। लाल झंडा उठा लेने से या लाल सलाम और कॉमरेड कह देने से इन्हें साम्यवादी नहीं कह सकते।

दाँव पेंच हो या सत्ता की मज़बूरी, आज देश के हालात पर नियंत्रण सरकार के बूते से बाहर होती जा रही है। आम मध्यमवर्गीय जनता किसी तरह जीवन जी रही है। लेकिन खास आदमी डरा रहता है, उसे सरकारी तंत्र के साथ भी चलना है और हिंसक गतिविधियों से भी ख़ुद को बचाना है। निम्न वर्ग की जनता के पास कोई चारा नहीं है।मुख्य धारा से अलग कटे हुए आदिवासी प्रदेश के लोग अब इंसान नहीं रहे, एक ऐसे यांत्रिक मानव बन चुके हैं जिनके शरीर से चेतना निकाल कर बन्दूक जकड़ दी गई है, जिसका नियंत्रण उन कुछ गिने हुए लोगों के हाथ में है जो किसी नक्सलवादी सरगना या नेताओं के हाथ में है, जब जहाँ चाहे इस्तेमाल में ले आते हैं। सच्चाई यह है कि ये बेजुबान पेट की भूख़ के लिए ज़िन्दगी दाँव पर लगा बैठे हैं।

बन्दूक लेकर बन्दूक से लड़ाई हो तो सिर्फ बन्दूक नहीं ख़त्म होता, दोनों में से कोई एक मरता है, और जो मरता है वह भी हमारा ही कोई अपना है, चाहे वो सैनिक हो या नक्सलवादी। आज जब सैनिक मारे जाते हैं तो पूरा देश सुरक्षा-तंत्र की खामियाँ ढूँढता है। परन्तु हर दिन हजारों आदिवासी कभी भूख़ से मरते हैं, कभी नक्सली कह कर फ़र्जी मुठभेड़ में मार दिए जाते हैं, संदिग्ध नक्सली कह कर कितने असहाय और निरपराध जेल में बंद कर दिए जाते हैं।
हत्या करना, सरकारी संपत्ति को नष्ट करना, आतंक फैलाना, बस जैसे इतना ही मुद्दा रह गया है इन नक्सलियों का। आखिर क्यों ये मुख्य मुद्दा से दूर होकर सिर्फ हिंसा पर उतर आये हैं। आदिवासी क्षेत्रों से फैलते हुए सभी राज्यों में नक्सली अपना विस्तार कर रहे हैं। सरकारी शास्त्र को लूट कर अपनी शक्ति मज़बूत कर रहे हैं। आख़िर ये जंग किसके खिलाफ़ है? देश भी अपना सैनिक भी अपने, नक्सली भी इसी देश के वासी।   क्या सरकार ग्रीन हंट के द्वारा नक्सली आन्दोलन ख़त्म कर पाएगी? सैनिकों को युद्ध का प्रशिक्षण दिया जाएगा, ताकि नक्सलियों से लड़ें। क्या आदिवासियों की बुनियादी ज़रूरत नक्सलियों की मृत्यु का पर्याय है?

नक्सलियों की क्रूरता और हिंसा को कोई भी देशवासी उचित नहीं कह रहा है। परन्तु सोच कई खेमों में बँट चुकी है। नक्सली के दिशा परिवर्तन या आदिवासी के उत्थान की बात जो कहता है उसे लाल झंडे के अन्दर मान लिया जाता है। लाल झंडा क्रान्ति की बात कहता है, न कि ख़ूनी-क्रान्ति का पक्षधर है या रहा है।

नक्सलवाद कोई एक दिन की उपज नहीं है, वर्षों की असंतुष्टि का प्रतिफल है जो हिंसा का क्रूरतम और आत्मघाती रूप ले चूका है। नक्सलबाड़ी में जब यह शुरू हुआ, उस समय हथियार और हिंसा की लड़ाई नहीं थी, बल्कि अधिकार की लड़ाई थी। धीरे-धीरे स्थिति और भी बदतर होती गई। किसी भी नक्सली क्षेत्र की बात करें तो वहाँ बुनियादी ज़रूरत भी पूरी नहीं होती है। सहनशक्ति तब तक रहती है जब इंसान ख़ुद भूखा रह जाए लेकिन उसका बच्चा कम से कम भर पेट खाना खा ले। और जब बच्चा भूख़ से दम तोड़ता है तो हथियार के अलावा उन्हें कुछ नहीं सूझता। क्रूरतम अपराध भले है लेकिन दो वक़्त की रोटी का जुगाड़ तो हो जाता है। अब भी वक़्त है, उनकी ज़रूरत पूरी की जाए और उन्हें मुख्यधारा से जोड़ा जाए तथा हर तरह का विकास हो। फिर कोई क्यों किसी की जान लेगा या देगा।
आख़िर क्या वजह है कि ये नक्सलवादी आदिवासी इलाकों में ही पनपते और जड़ जमाते हैं? आज़ादी के इतने सालों के बाद भी और राज्य के बँटवारे के बाद भी आख़िरकर छत्तीसगढ़, ओड़िसा और झारखंड में विकास क्यों नहीं हुआ? विकास गर हुआ भी तो आदिवासी इससे वंचित क्यों हैं? नक्सलवाद को जायज़ कोई नहीं कहता है। जैसे अन्य अपराध है वैसे ही यह भी अपराध है। गरीब आदिवासियों के लिए नक्सली बनना भी एक मज़बूरी है। नक्सली न बनें तो नक्सली मार देंगे, बन गए तो पुलिस से मारे जाएँगे। ज़िन्दगी तो दोनों हाल में दाँव पर लगी हुई है। आम आदमी कभी सरकार को या कभी नक्सली को दोषी कह कर पल्ला झाड़ लेता है, क्योंकि इस हिंसक लड़ाई में न तो नेता मरता है न कोई ख़ास आदमी। यह तय है कि नक्सलियों की बुनियादी ज़रूरत जब पूरी होगी तब ही उनमें प्रजातंत्र में विश्वास जागेगा और तभी इस ख़ूनी क्रान्ति का खात्मा संभव है।
– जेन्नी शबनम (1. 7. 2017)
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