राजनीति

चीन की पैंतरेबाज़ी

चीन एक विस्तारवादी देश है। उसकी इस आदत के कारण उसके पड़ोसी सभी देश परेशान हैं। उसके विस्तारवाद के कारण ही विएतनाम, दक्षिण कोरिया, कंबोडिया और जापान परेशान हैं। रुस से भी उसका सीमा-विवाद वर्षों तक चला। दोनों देशों की सीमा पर स्थित ‘चेन माओ’ द्वीप को लेकर रुस और चीन के संबन्ध असामान्य रहे। रुस हर मामले में उससे बीस पड़ रहा था। अतः अन्त में चीन ने समर्पण कर दिया और ‘चेन माओ’ द्वीप पर रुस का आधिपत्य स्वीकार किया, फिर दोनों देशों के संबन्ध सामान्य हुए। अपनी विस्तारवादी नीति के अन्तर्गत ही चीन ने तिब्बत पर कब्जा किया। वरना उससे हमारी सीमाएं कहीं मिलती ही नहीं थीं। तिब्बत एक बफ़र स्टेट था लेकिन चीन द्वारा उसपर कब्जे के बाद ही वह भारत के सीधे संपर्क में आ गया। नेहरू जी की अदूरदर्शिता ने विरासत में भारत को ऐसी समस्या दी जिसका कोई समाधान ही नहीं है। वह तो लद्दाख और अरुणाचल पर भी अपना दावा करता है। पाकिस्तान ने गुलाम कश्मीर का अक्साई चिन वाला कुछ भूभाग उसे नज़राने में देकर उसका मन बढ़ा दिया है। वर्तमान दोकलम में सड़क निर्माण भी चीन की इसी नीति का परिणाम है। उसे मालूम था कि भूटान एक कमजोर देश है। अतः उसकी सीमा में घुसकर कुछ भी किया जा सकता है। भूटान की सुरक्षा का दायित्व एक संधि के अनुसार भारत के पास है। सामरिक रूप से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण दोकलम में चीन द्वारा सड़क निर्माण सीधे भारत की सुरक्षा से जुड़ा है। चीन को शायद यह उम्मीद नहीं थी कि भारत इस मामले में सीधा हस्तक्षेप करेगा। फिलहाल सड़क निर्माण रुका हुआ है और चीन की बौखलाहट बढ़ती जा रही है। चीन ने यह कहकर तिब्बत पर कब्ज़ा किया था कि इतिहास के किसी कालखंड में तिब्बत चीनी साम्राज्य का एक हिस्सा हुआ करता था। यह ठीक वैसा ही है जैसे हिन्दुस्तान यह कहकर अफ़गानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्ला देश और म्यामार पर  कब्ज़ा कर ले कि इतिहास के किसी कालखंड में ये सभी देश उसके अंग थे। तिब्बत सैकड़ों साल तक एक स्वतंत्र देश के रूप में विश्व के मानचित्र पर रहा है। चीन का उसपर कब्ज़ा और तात्कालीन प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू द्वारा चीनी कब्जे को मान्यता देना अवैध है। तिब्बत के शासन-प्रमुख और शीर्ष धार्मिक नेता दलाई लामा हिमाचल के धर्मशाला में आज भी निर्वासन झेल रहे हैं। धर्मशाला में तिब्बत की निर्वासित सरकार आज भी काम करती है। चीन इससे चिढ़ता है और भारत को परेशान करने का कोई भी मौका वह हाथ से नहीं जाने देता। भारत तिब्बत पर चीन के स्वामित्व को दी गई मान्यता वापस लेकर चीन को जवाब दे सकता है। हम यह कह सकते हैं कि हमारी कोई सीमा चीन से नहीं मिलती। किसी तरह के सीमा-विवाद के लिए वह तिब्बत की निर्वासित सरकार से बात करने की पहल करे। तिब्बत के मामले को संयुक्त राष्ट्रसंघ में उठाकर भी चीन की बांह मरोड़ी जा सकती है। अगर तिब्बत पर चीन के कब्जे को भारत ने मान्यता नहीं दी होती तो अमेरिका ने भी तिब्बत का समर्थन किया होता। उस समय चीन इतना मजबूत भी नहीं था। अमेरिका और भारत के संयुक्त प्रयास से तिब्बत ने अबतक आज़ादी भी प्राप्त कर ली होती जो आज महज एक सपना है। लमहों ने खता की थी, सदियों ने सज़ा पाई।

बिपिन किशोर सिन्हा

B. Tech. in Mechanical Engg. from IIT, B.H.U., Varanasi. Presently Chief Engineer (Admn) in Purvanchal Vidyut Vitaran Nigam Ltd, Varanasi under U.P. Power Corpn Ltd, Lucknow, a UP Govt Undertaking and author of following books : 1. Kaho Kauntey (A novel based on Mahabharat) 2. Shesh Kathit Ramkatha (A novel based on Ramayana) 3. Smriti (Social novel) 4. Kya khoya kya paya (social novel) 5. Faisala ( collection of stories) 6. Abhivyakti (collection of poems) 7. Amarai (collection of poems) 8. Sandarbh ( collection of poems), Write articles on current affairs in Nav Bharat Times, Pravakta, Inside story, Shashi Features, Panchajany and several Hindi Portals.