धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

ईशावास्योपनिषद् उपदेश

ईशावास्योपनिषद् में कुल 17 मन्त्र हैं। इस लेख में ईशावास्योपनिषद् के मन्त्र क्र्रमांक 12 से 14 पर ऋषि दयानन्द के यजुर्वेद भाष्य से इनके भाषार्थ एवं भावार्थ आदि प्रस्तुत कर रहे हैं। इन मन्त्रों व इनके अर्थों को पढ़ते समय यह ध्यान रखना चाहिये कि वेदों का यह ज्ञान ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में पहली पीढ़ी अर्थात् अमैथुनी सृष्टि के मनुष्यों को उनके जीवन निर्वाहार्थ एवं मार्गदर्शन के लिए दिया था। यह मनुष्यों को उत्पन्न व सृष्टि की रचना करने वाले परमेश्वर का कर्तव्य भी था जिसे उसने पूरा किया था। वेद ज्ञान के होते हुए किसी मत-मतान्तर व उसकी पुस्तकों की आवश्यकता नहीं होती। केवल वेदों के व्याख्या ग्रन्थों की आवश्यकता होती है जिसे जानकर व उसका आचरण कर देश, समाज व विश्व में सुख-शान्ति स्थापित हो सकती है। विश्व में अशान्ति का प्रमुख कारण मत-मतान्तर व उनकी मिथ्या मान्यतायें ही हुआ करती हैं। सृष्टि के आरम्भ में किसी को किसी भी बात का कोई ज्ञान नहीं था। वह अवस्था ऐसी थी जैसी हमारी जन्म वा स्कूल जाने से पूर्व होती है। ऐसे समय इन महत्वपूर्ण बातों का ज्ञान कराये जाने का जो महत्व है उसे पाठक अपनी अपनी बुद्धि व सामर्थ्य के अनुसार अनुमान लगा सकते हैं। आज संसार में जितने मत-मतान्तर हैं उन्हें तभी उत्पन्न होना चाहिये था, परन्तु हो नहीं सकते थे। सत्य मत तो परमात्मा ही दे सकता है और भ्रान्त मत ही मनुष्यों से समय समय पर मिलते रहते हैं जिस प्रकार से आज भी कुछ चतुर लोग ऐसा करके समाज को बांटने का काम कर रहे हैं। मन्त्रों के अर्थ प्रस्तुत हैंः

मन्त्र संख्या 15

ऋषि दीर्घतमाः। देवता आत्मा=स्पष्टम्। छन्द स्वराडुष्णिक्। स्वर ऋषभः।।

अब देहान्त के समय क्या करना चाहिए, यह उपदेश किया है।

            वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्तं शरीरम्।

            ओ३म् क्रतो स्मर क्लिबे स्मर कृतं स्मर।।15।।

अन्वयः-हे क्रतो! त्वं शरीरत्यागसमये (ओ३म्) स्मर, क्लिबे परमात्मनं स्वस्वरूपं च स्मर, कृतं स्मर। अत्रस्थो वायुरनिलमनिलोऽमृतं धरति। अथेदं शरीरं भस्मान्तं भवतीति विजानीत।।15।।

भाषार्थ-हे (क्रतो) कर्म करने वाले जीव! देहान्त के समय (ओ३म्) ओ३म्, यह जिसका निज नाम है उस ईश्वर को (स्मर) चारों तरफ देख, (क्लिबे) अपने सामर्थ्य की प्राप्ति के लिए परमात्मा और अपने स्वरूप को (स्मर) याद कर, (कृतम्) और जो कुछ जीवन में किया है उसको (स्मर) स्मरण कर।

यहां विद्यमान (वायुः) धनंजयादि रूप वायु (अनिलम्) कारण रूप वायु को और अनिल (अमृतम्) नाशरहित कारण को धारण करता है।

(अथ) और (इदम्) यह (शरीरम्) चेष्टादि का आश्रय, विनाशी शरीर (भस्तान्तम्) अन्त में भस्म होने वाला होता है, ऐसा जानो।।40/15।।

भावार्थ-जैसे मृत्यु के समय चित्त की वृत्ति होती है, और शरीर से आत्मा का पृथक् भाव होता है, वैसी ही चित्त की वृत्ति तथा शरीर-आत्मा के सम्बन्ध को जीवनकाल में भी सब मनुष्य जानें।

इस शरीर की भस्मान्त-क्रिया (अन्त्येष्टि) करनी चाहिए, इस दहन-क्रिया के पश्चात् कोई भी संस्कार नहीं करना चाहिये।

जीवन काल में एक परमेश्वर की ही आज्ञा का पालन, उपासना तथा अपनी शक्ति की वृद्धि करनी चाहिए।

किया हुआ कर्म कभी निष्फल नहीं होता, ऐसा मानकर धर्म में रुचि और अधर्म में अप्रीति रखनी चाहिए।।40/15।।

भाष्यसारदेहान्त के समय क्या करें-कर्म करने वाला जीव देहान्त अर्थात् शरीरत्याग के समय में ओ३म्’ नाम का स्मरण करे। अपने सामर्थ्य की प्राप्ति के लिए परमात्मा को और अपने स्वरूप को स्मरण करे। जो कुछ जीवन में किया है उसको स्मरण करे।

इस शरीर में स्थित धनंजय आदि नामक वायु कारण रूप सूक्ष्म वायु के और सूक्ष्म वायु नाशरहित कारण (प्रकृति) के आश्रित है। शरीर से आत्मा का पृथग्भाव उक्त वायु के आश्रित है। शरीर से आत्मा के पृथग्-भाव अर्थात् मृत्यु के समय में यहां जैसी चित्तवृत्ति बतलाई है, वैसी ही चित्तवृत्ति अब जीवन-काल में भी रखें।

देहान्त के समय इस शरीर की भस्मान्त क्रिया (अन्त्येष्टि कर्म) करें। भस्मान्त क्रिया के उपरान्त इस शरीर का कोई संस्कार-कर्त्तव्य शेष नहीं रहता।

जीवन-काल में एक परमेश्वर की ही आज्ञा का पालन, उसकी उपासना और अपने सामर्थ्य की वृद्धि करें। किया हुआ कर्म विफल नहीं होता, ऐसा समझ कर धर्म में रुचि और अधर्म में अप्रीति रखें।।15।।

अन्यत्र व्याख्यात-‘‘भस्मान्तं शरीरम्” (यजुर्वेद 40/15) इस शरीर का संस्कार (भस्मान्तम्) अर्थात् भस्म करने पर्यन्त है (संस्कारविधि, अन्त्येष्टिकर्म)।।40/15।।

मन्त्र संख्या 16

ऋषि दीर्घतमाः। देवता आत्मा=स्पष्टम्। निचृत्त्रिष्टुप्छन्द्ः। स्वर धैवतः।।

ईश्वर किन मनुष्यों पर कृपा करता है, यह उपदेश किया है।

            अग्ने नय सुपथा रायेऽअस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्।

            युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम।।16।।

अन्वयः-हे देवाग्ने परमेश्वर! यतो वयं ते भूयिष्ठां नमउक्तिं विधेम तस्माद्विद्वांस्त्वमस्मज्जुहुराणमेनो युयोध्यस्मान् राये सुपथा विश्वानि वयुनानि नय प्रापय।।16।।

भाषार्थहे (देव) दिव्यस्वरूप (अग्ने) स्वप्रकाशस्वरूपकरुणामय जगदीश्वर! जिससे हम (ते) तेरे लिए (भूयिष्ठाम्) बहुत अधिक (नम उक्तिम्) सत्कारपूर्वक प्रशंसा (विधेम) करते हैं, इससे (विद्वान्) सर्वज्ञ तू (अस्मत्) हम (जुहुराणम्) कुटिलता और (एनः) पापाचरण को (युयोधि) दूर कर। (अस्मान्) हम जीवों को (राये) विज्ञान, धन और धन से प्राप्त होने वाले सुख की प्राप्ति के लिए (सुपथा) धर्म-पथ से (विश्वानि) सब (वयुनानि) श्रेष्ठ ज्ञान एवं श्रेष्ठ बुद्धि को (नय) प्राप्त करा।।40/16।।

भावार्थ-जो सच्ची भावना से परमात्मा की उपासना करते हैं, उसकी आज्ञा का पालन करते हैं तथा सब के अधिक सत्कार करने योग्य परमात्मा को मानते हैं, उनको दयालु ईश्वर पापाचरण के मार्ग से हटाकर, धर्म-मार्ग में चलाकर, उन्हें विज्ञान देकर, धर्म-अर्थ, काम-मोक्ष की सिद्धि के लिए समर्थ बना देता है। इसलिए सब मनुष्य एक अद्वितीय ईश्वर को छोड़ कर किसी की भी उपासना न करें।।40/16।।

भाष्यसार-ईश्वर किन मनुष्यों पर कृपा करता है-जो मनुष्य दिव्यस्वरूप, स्वप्रकाश-स्वरूप, करुणामय जगदीश्वर की बहुत अधिक सत्कारपूर्वक प्रशंसा करते हैं अर्थात् सच्ची भावना से परमेश्वर की उपासना और उसकी आज्ञा का पालन करते हैं, सब से ऊपर सत्कार के योग्य परमात्मा को ही मानते हैं, उन पर विद्वान्, दयालु परमेश्वर बड़ी कृपा करता है। कुटिलता और पापाचरण के मार्ग से पृथक् करता है। धर्म-युक्त मार्ग में चलाकर उन्हें विज्ञान, धन और धन से प्राप्त होने वाले सुख प्रदान करता है। उन्हें श्रेष्ठ प्रज्ञान एवं श्रेष्ठ बुद्धि प्राप्त कराता है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि के लिए उन्हें समर्थ बनाता है। अतः सब मनुष्य एक, अद्वितीय ईश्वर को छोड़कर किसी अन्य कही उपासना कभी न करें।।40/16।।

अन्यत्र व्याख्यात-(क)-‘‘अग्ने नय सुपथा0’’ (यजुर्वेद 40/16)।। हे सुख के दाता! स्वप्रकाशस्वरूप! सबको जानने हारे परमात्मन्! आप हमको श्रेष्ठ मार्ग से संपूर्ण प्रज्ञानों को प्राप्त कराइये, और जो हम में कुटिल पापाचरण रूप मार्ग हैं उससे पृथक् कीजिए। इसीलिए हम लोग नम्रतापूर्वक आपकी बहुत सी स्तुति करते हैं, कि आप हमको पवित्र करें। (सत्यार्थप्रकाश, सप्तम समुल्लास)

(ख)-हे (अग्ने) स्वप्रकाश, ज्ञानस्वरूप, सब जगत् के प्रकाश करने हारे (देव) सकल सुखदाता परमेश्वर! आप जिससे (विद्वान्) सम्पूर्ण विद्या युक्त हैं, कृपा करके (अस्मान्) हम लोगों को (राये) विज्ञान वा राज्यादि ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए (सुपथा) अच्छे धर्मयुक्त आप्त लोगों के मार्ग से (विश्वानि) संपूर्ण (वयुयानि) प्रज्ञान और उत्तम कर्म (नय) प्राप्त कराइये और (अस्मत्) हमसे (जुहुराणम्) कुटिलतायुक्त (एनः) पापरूप कर्म को (युयोधि) दूर कीजिए। इस कारण हम लोग (ते) आपकी (भूयिष्ठाम्) बहुत प्रकार की स्तुतिरूप (नम उक्तिम्) नम्रतापूर्वक प्रशंसा (विधेम) सदा किया करें और सर्वदा आनन्द में रहें। (संस्कारविधि, ईश्वरस्तुतिप्रार्थनोपासना)

(ग)-हे (अग्ने) स्वप्रकाशस्वरूप, सब दुःखों के दाहक (देव) सब सुखों के दाता परमेश्वर! (विद्वान्) आप (राये) योग-विज्ञान रूप धन की प्राप्ति के लिए (सुपथा) वेदोक्त धर्म-मार्ग से (अस्मान्) हमको (विश्वानि) संपूर्ण (वयुनानि) प्रज्ञान और उत्तम कर्मों को (नय) कृपा से प्राप्त कीजिये, और (अस्मत्) हमसे (जुहुराणम्) कुटिल पक्षपात सहित (एनः) अपराध पापकर्म को (युयोधि) दूर रखिये और इस अधर्माचरण से हमको सदा दूर रखिए, इसलिए (ते) आप ही की (भूयिष्ठाम्) बहुत प्रकार (नम उक्तिम्) नमस्कारपूर्वक प्रशंसा को नित्य (विधेम) किया करें। (संस्कारविधि-संन्यासाश्रमप्रकरण)।।40/16।।

मन्त्र संख्या 17

ऋषि दीर्घतमाः। देवता आत्मा=स्पष्टम्। छन्द अनुष्टुप्। स्वर गान्धारः।।

अब अन्त में मनुष्यों को ईश्वर उपदेश करता है।

            हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।

            योऽसावादित्ये पुरुषः सोऽसावहम्। ओ३म् खं ब्रह्म।।

अन्वयः-हे मनुष्या येन हिरण्मयेन पात्रेण मया सत्यस्यापिहितं मुखं विकाश्यते, योऽसावादित्ये पुरुषोऽस्ति सोऽसावहं खम्ब्रह्मास्म्यो३मिति विजानीत।।17।।

भाषार्थहे मनुष्यो! जिस (हिरण्यमयेन) ज्योति से परिपूर्ण (पात्रेण) सब के रक्षक मेरे द्वारा (सत्यस्य) कभी नष्ट न होने वाले सत्रूप कारण (प्रकृति) का (अपिहितम्) ढके हुए (मुखम्) मुख के समान उत्तम अंग का विकास किया जाता है, (यः) जो (असौ) वह (आदित्ये) प्राण वा सूर्यमण्डल में (पुरुषः) पूर्ण परमात्मा है (सः) वह (असौ) परोक्ष (अहम्) मैं-(खम्) आकाश के समान व्यापक, (ब्रह्म) गुण, कर्म, स्वभाव की दृष्टि से सबसे बड़ा हूं, (ओ३म्) मैं सब जगत् का रक्षक ‘ओ३म्’ हूं, ऐसा जानो।।40/17।।

भावार्थ-सब मनुष्यों को ईश्वर उपदेश करता है। हे मनुष्यों! जो मैं यहां हूं, वही अन्यत्र सूर्य आदि में हूं और जो अन्यत्र सूर्यादि में हूं वही यहां हूं। मैं सर्वत्र परिपूर्ण, आकाश के समान व्यापक हूं, मुझ से कोई भी दूसरा बड़ा नहीं है, मैं ही सब से महान्=बड़ा हूं, सुलक्षण पुत्र के तुल्य प्राणों से प्रिय मेरा अपना नाम ‘ओ३म्’ है।

जो मेरी प्रीति और सत्याचरण के भावों से शरण=भक्ति को प्राप्त करता है, तो मैं उसकी अन्तर्यामी रूप से अविद्या को विनष्ट करके, उसकी आत्मा को प्रकाशित कर, उसके शुभ गुण, कर्म, स्वभाव बनाकर, सत्य के स्वरूप का आचरण स्थापित कर योग से उत्पन्न हुए शुद्ध विज्ञान को देकर, सब दुःखों से छुड़ाकर, मोक्ष सुख को प्रदान करता हूं। यजुर्वेद-भाष्य की समाप्ति पर अन्त में (ईश्वर के धन्यवादस्वरूप) ‘ओ३म्’ नाम का स्मरण किया है।

भाष्यसारअन्त में मनुष्यों को ईश्वर का उपदेश-मैं ज्योतिर्मय, रक्षक ईश्वर-सत्य अर्थात् अविनाशी, यथार्थ, कारण (प्रकृति) के आच्छादित मुख को खोलता हूं। जो मैं यहां हूं, सो ही सूर्यादि में हूं। और जो अन्यत्र सूर्यादि में हूं, सो ही यहां हूं। मैं सर्वत्र परिपूर्ण, आकाश के तुल्य व्यापक हूं। मुझ से कोई और बड़ा नहीं है। मैं ही गुण, कर्म, स्वभाव से सब से बड़ा हूं। जैसे उत्तम लक्षणों से युक्त पुत्र प्राणों के तुल्य प्रिय होता है, वैसे सब से प्यारा निज नाम ‘ओ३म्’ है। प्रेमभाव और सत्याचरण से जो मेरी शरण में आता है मैं अन्तर्यामी रूप से उसकी अविद्या का विनाश करता हूं। उसकी आत्मा को प्रकाशित करता हूं। उसके शुभ गुण, कर्म, स्वभाव बनाता हूं। उसमें सत्यस्वरूप आचरण को स्थापित करता हूं। शुद्ध योगज विज्ञान का दान करता हूं। सब दुःखों से पृथक करके मोक्ष-सुख प्राप्त कराता हूं। इति ओ३म्।।40/17।।

अन्यत्र व्याख्यात-(क) ‘‘ओं खम्ब्रह्म”।।1।। (यजुर्वेद 40/17)।। देखिये वेदों में ऐसे-ऐसे प्रकरणों में ओ३म् आदि परमेश्वर के नाम हैं। (सत्यार्थप्रकाश, प्रथम समुल्लास)

(ख) ओ३म् खं ब्रह्म’ (यजुर्वेद 40)।। ओमिति ब्रह्म। तैत्तिरीयारण्यके।प्र02अनु08।। ओं और खं ये दोनों ब्रह्म के नाम हैं। (ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, वेदविषयविचार)

इसी के साथ के साथ ईशावास्योपनिषद् का ऋषि दयानन्द जी का भाष्य समाप्त होता है। हम देहरादून के प्रमुख ऋषि दयानन्द भक्त श्री चण्डीप्रसाद शर्मा जी की प्रेरणा से इस उपनिषद् को पाठकों तक पहुंचाने के कार्य में प्रवृत्त हुए थे। पहले सोचा था कि प्रतिदिन एक मन्त्र की व्याख्या फेसबुक पर पोस्ट करेंगे, परन्तु हमें लगा कि इस कार्य को शीघ्रातिशीघ्र सम्पन्न करना उचित है। अतः शर्मा जी से भेंट के मात्र 5 दिनों में ही यह कार्य पूरा कर दिया। इस कार्य के सम्पन्न कराने के लिए ईश्वर का बहुत बहुत धन्यवाद है। अब हम इस पूरी उपनषिद् की संकलित पीडीएफ प्रति तैयार करेंगे और इच्छुक पाठकों को इमेल से उपलब्ध करायेंगे। आध्यात्मिक ज्ञान में उपनिषदों का अध्ययन सर्वोपरि महत्वपूर्ण हैं। एक विदेशी दार्शनिक ने तो यहां तक कहा है कि उपनिषदों के अध्ययन ने मुझे इस जीवन में सुख व शान्ति प्रदान की है और मुझे उम्मीद है कि मरने के बाद भी इस उपनिषद् ज्ञान से मुझे सुख वा शान्ति मिली है। यह बात वही व्यक्ति कह सकता है जो आत्मा की अमरता को मानता व जानता हो। उपनिषद् के अध्ययन से मनुष्य को आत्मा की अमरता का बोध होने के साथ पूर्वजन्म-पुर्नजन्म-परजन्म पर विश्वास जम जाता है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष के सिद्धान्त पर भी आत्मा को विश्वास हो जाता है। यह उपनिषदों में निहित सद्ज्ञान से ही सम्भव होता है। हम आशा करते हैं कि अध्यात्म के जिज्ञासु पाठकों को एकादशोपनिषद् का अध्ययन करना चाहिये। आजकल महात्मा नारायण स्वामी जी की टीका से अलंकृत एकादशोपनिषद्’ ग्रन्थ विजयकुमारगोविन्दरामहासानन्द, दिल्ली’ सहित श्रीघूड़मलप्रह्लादकुमारआर्यधर्मार्थ न्यास, हिण्डोनसिटी’ से उपलब्ध है। इसी के साथ इस चर्चा को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य