गज़ल
सच की राह पर हम चल रहे हैं
जलने वाले तो बस जल रहे हैं
रहे गाफिल तो डस लेंगे ये झट से
सांप आस्तीनों में जो पल रहे हैं
सिखाएँगे वो अब हमको अकीदत
रूसवा जो सरे-महफिल रहे हैं
करें कैसे किसी पे अब भरोसा
साए जब आदमी को छल रहे हैं
ख्वाब जितने भी थे आँखों में मेरी
साथ अश्कों के सारे ढल रहे हैं
हमें ना चैन आया एक पल भी
तेरे माथे पे जब तक बल रहे हैं
सुहानी शाम है, हम और तुम हैं
कि जैसे चाँद-सूरज मिल रहे हैं
— भरत मल्होत्रा