सामाजिक

लेख– नक्सलियों से निपटने के लिए नए सिरे से नीतियां क्यों नहीं बनती?

सुकमा में बीते दिनों जो हुआ, वह लोकतांत्रिक परिवेश के सत्तर वर्षों में कोई पहली दफ़ा नहीं हुआ हैं। जब निर्दोष जान और हमारे प्रहरी के जान की बाजी लोकतंत्र में एक बार पुनः लगी। जिस तरीके से नक्सलवादियों ने सुकमा में सेना पर कहर गिराया, वह बीते वर्ष सुकमा में हुई दुस्साहसी, और मानवीयता को चकनाचूर कर देने वाली घटना को पुनः स्मरण करवाता है। जब समय- समय पर ऐसी नक्सली घटनाएं राज्य में होती रहती है। तो क्या इस घटना से पूर्व हमारे सियासतदां कुम्भकर्णी नींद में थे। जो नक्सलवाद से निपटने की विस्तृत औऱ सटीक योजना आज़तक न बना सके। ऐसे में कभी कभी लोकतांत्रिक रहनुमाई पर विश्वास नहीं होता, कि वह आवाम की सुरक्षा और सलामति के लिए कार्यरत हैं?  या नहीं।

छत्तीसगढ़ में सुरक्षा बलों पर हुआ बड़ा हमला यह बता रहा, की नक्सलियों का वजूद अभी ख़त्म नहीं हुआ है। जिसका दावा केंद्र के साथ छत्तीसगढ़ सरकार ठोकती रहती है। इस हमले ने छत्तीसगढ़ राज्य रहनुमाई तंत्र के उस दावे के परखच्चे उड़ा दिए हैं, जिसमें हवाला दिया जाता रहा है, कि नक्सलवादी दस्ते अब खात्मे की ओर हैं और सीमित इलाके में घिर चुके हैं। नक्सलियों ने जिस हिसाब की कुटिल चाल बीते दिनों चली। उससे तो यही लगता है, कि उनका खुफिया तंत्र अभी भी इस हालत में है। जो देश की सुरक्षा व्यवस्था की बारीकियों औऱ गतिविधियों के बारे में उन्हें पल-पल की जानकारी उपलब्ध कराता है। हमलावरों को अगर यह पता रहता है, कि सुरक्षा बल किस वाहन में सवार हैं, और कहां से गुजरेंगे। तो यह साफ करता है कि चूक और लापरवाही हमारे सुरक्षा तंत्र और नीतियों में ही है, क्योंकि जो नक्सलवाद डेढ़ दशक पहले तक सिर्फ़ बस्तर के इलाके तक सीमित था, उसका दायरा आज के वक्त विस्तृत हो चला है। जिससे निपटने में राज्य सरकारें औऱ केंद्र की सत्ता नाकामयाब हो रहीं।

नक्सलवाद औऱ आतंकवाद पर सत्ता में आने के पूर्व राजग सरकार का कड़ा रुख़ था। वह शायद कमज़ोर पड़ रहा, तभी तो रहनुमाई व्यवस्था विदेशी कूटनीति पर ध्यान तो केंद्रित कर रहीं है। पर घर के अंदर की समाज औऱ देश विरोधी गतिविधियां उससे संभल नहीं पा रही, औऱ न ही पड़ोसी देशों से रिश्ते मजबूत कर पा रही। अगर बात देश के आंतरिक हिस्सों की जाए, तो देश में नक्सलवाद की समस्याएं बढ़ती जा रही हैं। छत्तीसगढ़ आए दिन नक्सल घटना की चपेट आता है, और हमारे जवान अपनी जान गंवाते है। औऱ व्यवस्था सिर्फ़ दुःख और संवेदना प्रकट कर अपनी जिम्मेदारियों औऱ कर्तव्यों से पल्ला छाड़ लेती है। जो काफ़ी दुःखद उस परिवेश में हो जाता है, कि जो रहनुमाई व्यवस्था सत्ता में आने से पूर्व नक्सलवाद औऱ आतंकवाद को समूल नष्ट करने की बात करती थी, उसके राज में सिर्फ़ सैनिकों की शहादत की संख्या बढ़ गई है, औऱ न आतंकवाद कम हुआ न ही नक्सलवाद। आज मोदी सरकार अपनी पीठ थपथपाती है, कि उसकी विदेश नीति का विश्व क़ायल बन रहा है, लेकिन पड़ोसी देश हमसे दूर जा रहे, या उन्हें हम अपने पाले में नहीं कर पा रहें। फ़िर कैसे मान लिया जाए, हम मजबूत विदेश नीति की तरफ़ अग्रसर हो रहें। बात सिर्फ़ नक्सलवाद की जाए, तो छतीसगढ़ के सुकमा से एकबार पुनः बुरी ख़बर अखबारों की सुर्खियां बनी है। गत दिवस नक्सलवादियों ने आईईडी से धमाका कर सेना के एंटी लैंडमाइन वाहन के परखच्चे उड़ा दिए।

अब ऐसे में अगर देश की आंतरिक सीमा में ही दावानल छिपा हैं, तो लोकतांत्रिक रहनुमाओं को इन दानव रूपी नक्सलियों से निपटने का रास्ता पहले ढूढ़ना चाहिए। देश के बाहर अपनी चमक बाद में स्थापित करनी होगी। कश्मीर में पाक प्रायोजित आतंकवाद भले देश के सामने बड़ा खतरा हैं, लेकिन देश के भीतर समाज तोड़ने की जो कवायद इन माओवादियों औऱ नक्सलियों द्वारा चल रही हैं। वह देश की आंतरिक सुरक्षा के लिहाज से ज्यादा बड़ा संकट हैं, क्योंकि घर का भेदी लंका ढहने का काम करता हैं। अगर नक्सली सुरक्षा तंत्र में लगे नौ जवानों पर काल बनकर बीते दिन टूट पड़े, औऱ समय-समय पर नक्सलवाद की आवाज़ सुनाई पड़ती है। तो इसका निहितार्थ यही हैं, कि जिस दौर में हमारी रहनुमाई व्यवस्था नोटबन्दी के पश्चात अपनी पीठ ठोक रहीं थी, कि सरकार ने नक्सलियों की रीढ़ तोड़ दी हैं। तो नोटबन्दी के बाद हुई नक्सली घटनाएं बताती हैं, ये बातें सिर्फ़ सियासी फ़ायदे की हैं। नक्सलवाद पर नोटबन्दी का दीर्घकालिक असर नहीं पड़ा है। हमारे सियासतदां को नक्सलियों से निजात के लिए व्यापक और स्थायी रणनीति बनानी होगी, क्योंकि आज़ादी के पश्चात से नक्सलवाद देश के लिए खतरा बना हुआ हैं। और हाँ एक बात यह भी हमारी व्यवस्था आतंकवाद का मुद्दा तो विश्व पटल पर उठा सकता हैं, लेकिन अपना अंदुरुनी मसला तो खुद हल करना होगा। यह उसे समझना होगा।

        जिस और अब सरकारों को निश्चित रूप से कार्य करने होंगे, नहीं तो देश कब तक इन नक्सलियों की गोली खाता रहेगा। इन समाज विरोधी तत्वों का आखिरी लक्ष्य कुछ भी हो, लेकिन सरकार को इस पर लगाम लगाने के लिए व्यापक स्तर पर नीति ही नहीं कूटनीतिक चाल चलनी होगी। 74वीं बटालियन पर जो कहर बनकर माओवादी दल टुटा, उसने गहरे जख्म दिए हैं। अगर हम कुछ बड़ी नक्सलवादी घटनाओं का उल्लेख करें, तो पहली घटना 2005 की है। जब सितंबर 2005 में बीजापुर स्थिति गंगालूर रोड पर एंटी लैंडमाइन पर हमला हुआ, और 23 जवान शहीद हुए। उसके बाद नियमित अंतराल पर नक्सलवाद की शिकार हमारी सेना होनी शुरू हुई। वह चाहे 2007 हो, या 2009। 2010 के अप्रैल महीने महीने में तो नक्सलवाद सेना के लिए बड़ी त्रासदी लाया, औऱ दंतेवाड़ा ताड़मेटला में 76 सीआरपीएफ के जवान उस घटना में शहीद हुए। जो कभी भी उद्गगार लेती रहती है, औऱ सेना औऱ आम जिंदगी के लिए काल बनकर सामने आती है।

गत दिनों सुकमा हमले में जहां सीआरपीएफ 212 बटालियन के शहीद हो गए, तो वहीं चार गम्भीर रूप से घायल हो गए। अब प्रश्न यहीं आख़िर देश में आतंकवाद औऱ नक्सलवाद से देश को सुरक्षित करने के लिए कब तक जवान अपने ख़ून कि होली खेलते रहेंगे? औऱ लालफीताशाही सिर्फ़ उनकी शहादत पर दो शब्द बोलकर चुप्पी साधती रहेगी? नक्सलवाद औऱ आतंकवाद से निपटने की कोई स्पष्ट नीति रहनुमाई तंत्र क्यों नहीं ढूढ़ रहा। यह देश के जवानों का दुर्भाग्य ही है, जो सरकार सत्ता से पूर्व आतंकवाद और नक्सलवाद मुक्त भारत बनाने की पैरवी करती थी। उसके चार वर्ष के कार्यकाल में सैनिकों की शहादत देश के लिए ज़्यादा हो गई है, लेकिन रहनुमाई तंत्र तो सिर्फ़ विपक्ष मुक्त भारत का सपना पालकर बैठ चुका है। गत दिनों हुआ हमला घात लगाकर किया गया समझ आता है, क्योंकि जब सैनिक पेट्रोलिंग के दौरान निकले, तो उनका वाहन लैंडमाइन के चपेट में आ गया। धमाके के बाद सौ से अधिक अगर नक्सली गोलीबारी करते हैं, तो यह पूर्णरूपेण स्पष्ट है। हमले की पहले से तैयारी थी। जो सूचित करता है, नक्सलवाद की जड़ें दूर-दूर तक अभी कमज़ोर नहीं दिखती।

अगर हम नक्सलवाद की जड़ कहाँ से शुरू होकर आज के पुष्पित औऱ पल्लवित अवस्था में आने पर गौर करें, तो पता चलता है, कि नक्सलवाद कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों के उस आंदोलन का अनौपचारिक नाम है। जो भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के फलस्वरूप उत्पन्न हुआ। नक्सल शब्द की उत्पत्ति पश्चिम बंगाल के छोटे से गाँव नक्सलबाड़ी से हुई है। जहाँ भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के नेता चारू मजूमदार और कानू सान्याल ने 1967 में सत्ता के खिलाफ़ एक सशस्त्र आंदोलन की शुरुआत की। आज नक्सलवाद का जिन्न आतंकवाद से कम नहीं मामूल पड़ता। जिसका विघटन समाज औऱ सेना दोनों के लिए आवश्यक है। हालांकि ऐसा पहली मर्तबा नही हुआ हैं, जब देश ने सामाजिक सौहार्द बिगाड़ने वाला और सुरक्षा प्रहरी पर हमला झेला हैं, लेकिन हमारी राजनीतिक प्रणाली इन घटनाओं से कोई सबक लेती नहीं प्रतीत होती हैं । निहितार्थ रूप में नक्सलियों के इस हमले ने सत्ता तंत्र की नींद खोलने के लिए चोट की हैं, कि अगर लाल आतंकवाद कुछ समय के लिए शांत था, इसका अर्थ कतई नहीं कि देश से नक्सलियों का खतरा खत्म हो गया। ऐसे में नक्सलियों से निपटने की विस्तृत योजना अब वक्त की गुहार हैं, जिस और सरकार को कार्य करना होगा।

यहां पर एक बात का ज़िक्र होना जरूरी इसलिए कि हर मुद्दे को शांत सिर्फ़ बंदूक की नोंक पर नहीं किया जा सकता। ऐसे में नक्सली गतिविधियों के बढने के कारकों पर प्रकाश डालना होगा, जिस पर रोक लगाकर ही इन समाज विरोधी औऱ देश विरोधी घटनाओं कम किया जा सकता है। जो युवा नक्सलवाद के जद में सिमट रहें, उन्हें यह बताना होगा, कि अब कल वाली स्थिति नहीं। अब विकास के अवसर है, उसे प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। अगर एक तरफ़ सेना देश की धरोहर है, तो अवाम भी संपत्ति जिसे सुरक्षा करने की व्यापक पहल होनी चाहिए। न कि सिर्फ़ संवेदनशीलता। साथ में हालिया हमले के बाद अगर केंद्रीय गृह राज्यमंत्री हंसराज अहीर ने भी माना कि नक्सलियों से निपटने के लिए हमारे जवानों को अत्याधुनिक हथियारों की जरूरत है। तो यह जाहिर करता है, कहीं न कहीं सुरक्षा बलों के पास जरूरी हथियार और प्रशिक्षण की कमी है। जिसकी वजह से नक्सलियों का हौसला घटने के बजाय बढ़ रहा। नक्सल प्रभावित इलाकों में सुरक्षा बलों के जवानों के समक्ष सबसे बड़ा खतरा बारूदी सुरंगों का है। तो उससे निपटने के लिए बेहतर नीति औऱ प्रबंधन की भी आवश्यकता है।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896