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गीता सार

श्रीमद् भगवद् गीता एक महान् ग्रंथ है, जिसमें कृष्ण-अर्जुन संवाद के रूप में आध्यात्मिक ज्ञान की विलक्षण बातें बतायी गयी हैं। यद्यपि यह महाभारत नामक वृहद् महाकाव्य का एक अंश मात्र है, फिर भी अपनी विलक्षणता के कारण इसे एक स्वतंत्र ग्रंथ की मान्यता दी गयी है। हजारों वर्षों से लाखों विद्वानों ने इससे प्रेरणा प्राप्त की है और हजारों ने इस पर पुस्तकें और टीकाएँ लिखी हैं। यह ग्रंथ आकार में लघु होते हुए भी ज्ञान में इतना विस्तृत है कि इसे सार रूप में समझाना यदि असम्भव नहीं तो बहुत कठिन अवश्य है। फिर भी विद्वानों ने अपनी-अपनी दृष्टि से इसका सारांश प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।

आजकल गीता सार के रूप में कुछ वाक्य समाज में प्रचलित हैं, जो डायरियों, कैलेंडरों, पैम्फलेटों आदि पर छापे और प्रसारित किये जाते हैं। इस तथाकथित गीता सार को पढ़कर सामान्यजन समझते हैं कि गीता में सब कुछ केवल भाग्य और भगवान के भरोसे छोड़ देने का उपदेश दिया गया है। साधारणजन गीता को पूरा नहीं पढ़ते, इसलिए इस ‘गीता सार’ को ही सत्य मान लेते हैं। परन्तु जिन्होंने पूरी गीता पढ़ी है, वे तुरन्त समझ जाते हैं कि इस तथाकथित गीता सार में जो कुछ कहा गया है, वह गीता के उपदेशों से मेल नहीं खाता। इतना ही नहीं, इसकी बहुत सी बातें तो गीता में कहीं हैं ही नहीं। इसको अच्छी तरह समझने के लिए इस ‘गीता सार’ पर बिन्दु-वार विचार करना उचित होगा।

1. क्यों व्यर्थ चिन्ता करते हो? किससे व्यर्थ डरते हो? कौन तुम्हें मार सकता है? आत्मा न पैदा होती है, न मरती है।

गीता में ऐसा कहीं नहीं कहा गया है कि ‘क्यों व्यर्थ चिन्ता करते हो? किससे व्यर्थ डरते हो?’ इसके निकटतम जो बात गीता के श्लोक 2/11 में कही गयी है, वह यह है- ‘तू शोक न करने योग्य मनुष्यों के लिए शोक करता है।’ परन्तु इससे वह अर्थ बिल्कुल नहीं निकलता, जो इस सार-बिन्दु में कहा गया है। इसका केवल एक वाक्य गीता से मिलता है- ‘आत्मा न पैदा होती है, न मरती है।’

2. जो हुआ, वह अच्छा हुआ। जो हो रहा है, वह अच्छा हो रहा है। जो होगा, वह भी अच्छा ही होगा। तुम भूत का पश्चाताप न करो। भविष्य की चिन्ता न करो। वर्तमान चल रहा है।

इस सार-बिन्दु का एक भी वाक्य या इससे मिलती-जुलती बात गीता में कहीं नहीं है। इससे तो यह ध्वनि निकलती है कि जो हो रहा है सब ठीक है, जैसा चल रहा है वैसा चलने दो। इस प्रकार के भाग्यवाद और पलायनवाद का गीता में कोई स्थान नहीं है।

3. तुम्हारा क्या गया, जो तुम रोते हो? तुम क्या लाये थे, जो तुमने खो दिया? तुमने क्या पैदा किया था, जो नाश हो गया? न तुम कुछ लेकर आये, जो लिया, यहीं से लिया। जो दिया, यहीं पर दिया। जो लिया, इसी (भगवान) से लिया। जो दिया, इसी को दिया। खाली हाथ आये, खाली हाथ चले। जो आज तुम्हारा है, कल किसी और का था, परसों किसी और का होगा। तुम इसे अपना समझकर मग्न हो रहे हो। बस, यही प्रसन्नता तुम्हारे दुखों का कारण है।

ये बातें भी गीता में कहीं नहीं हैं। ये इस ‘गीता सार’ के लेखक के अपने विचार हैं। भले ही ये बातें सही हों, परन्तु गीता के ज्ञान और उपदेशों से इसका कोई लेना-देना नहीं है।

4. परिवर्तन संसार का नियम है। जिसे तुम मृत्यु समझते हो, वही तो जीवन है। एक क्षण में तुम करोड़ों के स्वामी बन जाते हो, दूसरे ही क्षण तुम दरिद्र हो जाते हो। मेरा-तेरा, छोटा-बड़ा, अपना-पराया मन से मिटा दो, विचार से हटा दो। फिर सब तुम्हारा है, तुम सबके हो।

ये सब बातें भी गीता में नहीं हैं। सार-बिन्दु 3 के सम्बंध में की गई टिप्पणी इस सार-बिन्दु पर भी लागू होती है।

5. न यह शरीर तुम्हारा है, न तुम इस शरीर के हो। यह अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी, आकाश से बना है और इसी में मिल जाएगा। परन्तु आत्मा स्थिर है, फिर तुम क्या हो?

गीता में ऐसा कहीं नहीं कहा गया है कि ये शरीर 5 तत्वों से मिलकर बना है। यह बात रामचरित मानस में तो है, परन्तु गीता में नहीं है। गीता में यह भी नहीं कहा गया है कि आत्मा स्थिर है। उसमें तो आत्मा को अजर-अमर बताया गया है, जो शरीर बदलती रहती है। ‘फिर तुम क्या हो?,’ यह प्रश्न यहाँ पूरी तरह असंगत और निरर्थक है।

6. तुम अपने आप को भगवान को अर्पित करो। यही सबसे उत्तम सहारा है। जो इसके सहारे को जानता है, वह भय, चिन्ता, शोक से सर्वदा मुक्त है।

यह सार-बिन्दु गीता के उपदेश को तोड़-मरोड़कर और मिलावट करके बनाया गया है। इससे मिलती-जुलती बात गीता के श्लोक 18/62 में इस प्रकार कही गई है- ‘तुम सभी प्रकार से उसी परमेश्वर की शरण में जाओ। उसी की कृपा से तुम परम शान्ति और परम धाम को प्राप्त करोगे।’

7. जो कुछ भी तुम करते हो, उसे भगवान को अर्पण करते चलो। ऐसा करने से तुम सदा जीवन-मुक्ति का आनन्द अनुभव करोगे।

यह सार-बिन्दु भी गीता के उपदेश को तोड़-मरोड़कर बनाया गया है। गीता के श्लोक 5/10 में कहा गया है- ‘जो पुरुष सभी कर्मों को परमात्मा को अर्पण करके और आसक्ति को त्यागकर कार्य करता है, वह पुरुष जल से कमल के पत्ते की भाँति पाप से लिप्त नहीं होता।’ गीता का यह श्लोक जहाँ स्पष्ट और अपने आप में पूर्ण है, वहीं यह सार-बिन्दु आधा-अधूरा और भ्रम पैदा करने वाला है।

इन टिप्पणियों से स्पष्ट है कि इस तथाकथित गीता सार में गीता की मूल भावना कहीं नहीं है। इसको पूरा पढ़ जाइए तो ऐसा प्रतीत होता है कि भगवद्गीता पूरी तरह अकर्मण्यता, भाग्यवाद और पलायनवाद का उपदेश देने वाली पुस्तक है। वास्तव में तो गीता के उपदेश इसके ठीक विपरीत हैं। इस तथाकथित ‘गीता सार’ में गीता के निष्काम कर्मयोग की छाया मात्र भी नहीं है।

इसलिए वास्तविक गीता सार निम्न प्रकार कहा जा सकता है-

  • आत्मा न तो कभी जन्म लेता है और न मरता है। यह अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है। शरीर के नष्ट होने पर भी यह नष्ट नहीं होताऽ जिस प्रकार मनुष्य अपने पुराने वस्त्रों को त्यागकर नये वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार जीवात्मा भी पुराने शरीरों को छोड़कर नये शरीरों को प्राप्त कर लेता है।
  • जो जन्म लेता है, उसकी मृत्यु निश्चित है और जो मरता है, उसका जन्म लेना निश्चित है। इसमें मनुष्य का कोई वश नहीं चलता। इसलिए मृत व्यक्तियों के लिए शोक करना उचित नहीं है।
  • कर्म करने में ही हमारा अधिकार है, उसके फल पर कभी नहीं। इसलिए हमें फल की इच्छा छोड़कर कर्म करना चाहिए और कर्म करने से बचना भी नहीं चाहिए।
  • सभी प्रकार की आसक्ति को छोड़कर और सफलता-असफलता को समान समझकर अपना कर्तव्य करना चाहिए। यही कर्मयोग है।ऽ अपने धर्म में भले ही कुछ कमियाँ हों, फिर भी वह दूसरों के धर्म से उत्तम है। अपने धर्म का पालन करते हुए मर जाना भी कल्याणकारी है।
  • अपने सभी करने योग्य कर्म ईश्वर को अर्पित करके अर्थात् उसी के लिए किया हुआ मानकर और निरासक्त होकर करने चाहिए। इससे कर्ता को उन कर्मों के दोष नहीं लगते।
  • मोह रहित, अहंकार रहित, धैर्य और उत्साह से पूर्ण तथा सफलता एवं असफलता में समान रहने वाला कर्ता ही श्रेष्ठ है।
  • काम, क्रोध और लोभ – ये तीनों नरक के द्वार तथा आत्मा का पतन करने वाले हैं। इसलिए इन्हें पूरी तरह त्याग देना चाहिए। 
  • ईश्वर प्रत्येक प्राणी के शरीर में स्थित हैं, जो उसे अपनी माया से चलाता है, हमें उसी परमात्मा की शरण में जाना चाहिए।

सुधी जनों को चाहिए कि वे प्रचलित निरर्थक ‘गीता सार’ को छोड़कर इस वास्तविक गीता सार को हृदयंगम करके अपनायें और इसी को अपने कैलेंडरों, डायरियों, पत्रिकाओं, पैम्फलेटों आदि में छपवाकर प्रसारित करें।

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: jayvijaymail@gmail.com, प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- vijayks@rediffmail.com, vijaysinghal27@gmail.com