लघुकथा

कारगर नुस्खे

स्नेहा के पास स्नेह की कमी नहीं थी. वह स्नेह पाती भी थी और लुटाती थी, फिर भी न जाने क्यों वह सुस्त और उदास-सी दिखती थी. यह तब की बात है. आज स्नेहा का शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य संतुलित है. वह सबको चुस्त-तंदुरुस्त लगती है. उसके स्वास्थ्य-लाभ से डॉक्टर भी हैरान हो गए. हमेशा उलझन में उलझी हुई जिंदगी अचानक कैसे सुलझ गई! 
डॉक्टर- स्नेहा जी, आप अपने स्वास्थ्य-लाभ का राज बताएंगी. 
”अवश्य” स्नेहा ने कहा. ”डॉक्टर साहब, पहले मुझे किसी की जरा-सी आलोचना भी बर्दाश्त नहीं होती थी और मन में बहुत गहरे चुभ जाती थी. फिर मैंने एक सुविचार पढ़ा-

सफल वही होता है,
जो दूसरों की आलोचना से, 
मजबूत आधार तैयार करता है.

बस मैंने आलोचना को अपना मजबूत संबल बना लिया. मेरे स्वास्थ्य में निरंतर सुधार होता गया. उसके बाद मेरे सामने आया महान दार्शनिक अरस्तु का एक कथन-

भावनाओं का काया पर उसी प्रकार आधिपत्य रहता है जैसा मालिक का नौकर पर, स्वामी का गुलाम पर, भाव-चिंतन की स्वच्छता जहां शारीरिक मानसिक स्वास्थ्य को अक्षुण्ण बनाए रखती है, वहीं उसकी विकृति अनेकानेक बीमारियों का कारण बनती है.

मैंने खुश रहने के लिए अपनी इच्छाओं को नियंत्रण में रखना शुरु किया, हर समय सकारात्मक काम में लगी रहती थी, हर समय हंसना-मुस्कुराना-शुकराने करना मेरी आदत बन गई, मैंने हर समय सजग रहकर जागरुकता को बनाए रखना सीख लिया, अब मेरी काया पर सकारात्मक भावनाओं का ही आधिपत्य रहता है.”
स्नेहा से डॉक्टर साहब को इलाज के कारगर नुस्खे मिल गये थे.

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

One thought on “कारगर नुस्खे

  • लीला तिवानी

    जिसने अपनी चाहतों और शिकायतों की परिधि को कम किया और भावनाओं की परिधि को जितना अधिक विस्तृत बना लिया, समझना चाहिए कि वह उतना ही स्वस्थ, समुन्नत और परिष्कृत बनता चला जाएगा। जनसम्मान और दैवी अनुदान घटाटोप बनकर उस पर बरसते रहेंगे। इसके विपरीत विकृत भाव सम्पन्न व्यक्ति से दूसरों का, समाज का हित साधन हो सकना तो दूर अपना भी वह कल्याण नहीं कर पाता। स्वार्थी व्यक्ति क्षणिक प्रसन्नता भले पा ले पर उसकी जीवात्मा अपनाई गई शूद्रता के लिए उसे सदैव कचोटती रहती है। परिचितों की घृणा बरसती और सम्बद्ध जनों की रुष्टता सहनी पड़ती है, सो अलग।

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