“मुखपोथी पर लोग”
मुखपोथी के झाड़ में, कच्चे-पक्के बेर।
जिन्हें न आती शायरी, वो भी कहते शेर।।
सिद्ध हो रही साधना, सफल हुआ उद्योग।
अपनी बातें लिख रहे, मुखपोथी पर लोग।।
भाई-भाई में नहीं, पहले जैसा प्यार।
उजड़ रहा है इसलिए, हरा-भरा परिवार।।
आँगन में जब हो खड़ी, नफरत की दीवार।
फिर कैसे परिवार का, बन पाये आधार।।
आजादी के बाद तो, बिगड़े हैं हालात।
बचपन कचरा बीनता, लज्जा की है बात।।
सड़कछाप था समझता, कल तक जिन्हें समाज।
उल्लू सीधा हो गया, उन लोगों का आज।।
अपने प्यारे देश में, निर्धन हुए विपन्न।
राजनीति करके हुए, जनसेवक सम्पन्न।।
मक्कारी पामाल है, खुद्दारी बेहाल।
कल तक जो बेकार थे, अब हैं मालामाल।।
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(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)