कहानी

कहानी – टापू वाला गांव

इस साल की बरसात पता नहीं अब क्या-क्या जुल्म ढाएगी। सीत्तू व ठुनिया अपने मचान के बाहर बड़ी मुश्किल से कुछ देर नदी को रोकने के साहस से बनी झील के फैलते प्रचंड रूप को देख कर हैरान थे और परेशानी की लकीरें उनके कसकुट रगों की त्वचा में खिंचती चली जा रही थी। उनकी तीक्ष्ण आंखों के इर्द-गिर्द के गोल घेरों में एक खौफ दिखने लग पड़ा था। सीत्तू और ठुनिया ने अपनी अपनी जिम्मेदारी की गंध को महसूस किया और अपने मचान से दूर दिन पर दिन उनकी जिंदगियों को ग्रहण की तरह लीलती झील के बढ़ते आकार में गोल चांद की रोशनी को बिखरते देखा। सीत्तू आग के अलाव में मोटा लक्कड़ डालते ही बुदबूदाया, ‘ठूनिया भाई, ये झील चोरों की तरह हमारी ओर सरक रही है, देख वो बड़े बांस को अपने गर्भ में छुपा चुकी है, ये भूखी डाइन सब कुछ खा जाएगी, मुझे लगता है कि हमें कुछ ही दिनों में अपना मचान भी उठा कर और पीछे ले जाना पड़ेगा।’
ठुनिया रात के अंधेरे मे दूर धौलाधार की बर्फ की चादर से परिवर्तित चांद के प्रकाश को बड़ी देर से देख रहा था। वह बोला, ‘‘देख भाई सीत्तू, ईश्वर ने जो चाह लिया हो वो करके ही छोड़ता है, जो हो रहा हो उसे न तू रोक सकता है और न मैं, देख तो जरा धौलाधार के विशाल शिखर को, उसे कोई चिंता नहीं है डूबने की, कोई झील कभी उसे न डूबो पाएगी, झीलें तो खुद उसके विशाल पत्थरों में खुद के रास्ते ढूंढती है, नदियां उसे काटने का प्रयास स्वप्न में नहीं सोच सकती। हमारे इन छोटे मैदानों और टीलों का यही दुर्भाग्य होगा कि उन्होंने पहले तो इस नदी को जाने को रास्ता दिखाया होगा, और अभी यही नदी झील बनकार उन रास्तों के निशान मिटाकर अहसान फरामोशी निभाएगी। अब देखते हैं ये अहसान फरामोश बन चुकी जीवन दायिनी नदी और झील का मिलन हमें कौन से लोक की दुनिया में ले जाएगा, यह फिर हमारे लिए यहीं नरक की बस्ती सजा देगा। या फिर ऐसा भी हो सकता है कि यही झील सब कुछ खाकर जब तृप्त हो जाएगी तो फिर शांत और उदार बन जाएगी। वैसे तो यह नदी कभी रूकती नहीं पर उसको नदी से झील बनाने का यह इन्सानी प्रपंच ने उस नदी को जरूर अपराध बोध और आत्मग्लानि से भर दिया होगा। उस नदी के जीवन का यह पतन उसकी अपनी संपूर्णता को अभाव से अंसतोष व अशांति से भर देगा। फिर वह हम पर यह तो अपनी प्रवृति के अनुसरण पर मौत का कहर ढाएगी यह फिर अपने मृदु जल की सतह से हमारे लिए जीवन के कुछ और स्वप्नों को सजाने के लिए कई और रातें उपहार में अपने अहसान के अभिमान में दे जाएगी। आओ चले झील के बढ़ते आकार का निरिक्षण कर और एक निशान लगा आएं।’
दोनों उठे ओर झील के किनारे पर रूककर तट पर कुछ फीट की दूरी पर पत्थर रखने लगे। दो-दो पत्थर कोई पांच छः फुट की दूरी पर तट से अपने मचान की ओर रखने लगे। अंधेरा आसमान व उसमें गोल चांद अपनी रोशनी में मदमस्त उनके इस आंचबित कारनामों को देखकर मुस्करा रहा था। पर उसकी इस मुस्कराहट में और उसके चेहरे की रोशनी से इन दोनों को पत्थर ढूंढने में कोई परेशानी नहीं हुई। कुछ ही पल में फिर वही चांद कुछ काले बादलों में अपना मुंह छिपा बैठा। दूर धौलाधार के बीच से बिजली कड़की, इस आवाज ने रात के साए में भटकते इन दो इन्सानों के दिलों में खौफ की मद्धम लौ जगा दी। वे अपने मचान की ओर भागे। अभी कोई दो कोह का सफर था। फिर से बिजली कड़की, यह जैसे उनके शरीरों को सवाह कर देना चाहती हो। दोनों ने लंबे पग भरे। सीत्तू धड़ाम से किसी पत्थर से टकराकर ज़मीन पर गिर गया। वह चिल्लाया, ‘रहम करो ख्वाजा पीर, क्या तुम मुझे भी अपना नवाला समझ रहे हो, बख्श दो!’ वह तेजी से कराहता हुआ उठा और फिर दोनों मचान पर पहंुच कर अपने तिरपाल को मचान पर ठीक करने लगे। तेज हवा की एक आंधी आई, उनका मचान का बंधा तिरपाल ऐसे फड़फड़या जैसे वह भी पानी की गहराई से डर रहा हो, उसे तो अभी बरसात के थपेड़ों से लड़ना था, वह अभी क्यों अपने अस्तित्व को भूल बैठा था। बरसात ने सीत्तू और ठुनिया की परीक्षा लेनी थी। झील के बढ़ते आकार के ये पहरेदार मचान पर चढ़कर तिरपाल को जकड़े बढ़ती झील की ओर टकटकी लगाकर देखे जा रहे थे। फिर बारिश की बौछारों ने उन दोनों के मनों को अपने गुणगान में लगा दिया था।
सीत्तू बोला, ‘भाई ठुनिया! क्यों भाग चलें टापू की ओर या फिर यहीं भीगते रहें, सारा शरीर जवाब दे चुका है।’ ठुनिया थोड़ा सोचकर बोला, ‘भाई, जिस पहरेदारी के लिए हमारी बारी आई है, वह तो करनी ही पड़ेगी और पूरा गांव हमारे भरोसे चैन की नींद सो रहा होगा।’ सीत्तू ने उदासी को ओढ़कर जैसे प्रहार किया, ‘क्या खाक चैन की नींद! कितनी रातें सो पाएंगे, दिख नहीं रहा वह झील का राक्षस कैसे अपने दांतों को तीखा कर रहा है उसके शिकार ज्यादा रातें चैन की नींद नहीं सो सकते। उनको कह दो कि जल्दी में अपनी चैन की नींद में बचे खुचे सपने ले लो, फिर हमारी तरह हल्के रंगों की रात में उदासी के रहस्मयी सपनों का संसार उनकी परिधि के इर्द-गिर्द फैल जाएगा।’
ठुनिया ने सचमुच ही गहरे रंगों में डूबा स्वप्न का विस्तार कर डाला। वह बोला, ‘सीत्तू! अब जहां हमारे वंश का अस्तित्व पानी की सतह की मोटाई पर निर्भर है कि वह टूट तो नहीं जाएगी और कहां ये सुंदर मैदान ऐसी आवाजों से भरा था, जहां जीवन के सुनहरे स्वप्नों की खुशबु फैली थी, जहां बच्चों की किलकारियां फैल कर दूर धौलाधार की ऊंचाई तक उछलती थी। चीड़ के पेड़, खेरों के पेड़ जंगली धूप से अपने आप को बचाकर हमारे लिए व अन्जान परिंदों के लिए मौसम बदलने का न्योता देते थे। चरागाहों में जानवरों के शरीर उछल कूद मचाते थे। वे अब कहां अपनी रूहों के लिए बसेरा बनाएंगें। ये झील उन सब रूहों को अपनी अथाह गहराई में डूबोकर, मारकर उनके शरीरों को पचा पाएगी।’
सीत्तू ने उसे झटका, ‘अब बस भी करो ठुनिया, छम-छम बारिश की मोटी बूंदों के संग तुम इन मरूथल बने चक्षुओं से भी क्या आंसूओं की बरसात चाहते हो।’ काले आकाश के बीच काले बादलों में अपना सारा जल उठेलने को ज्यादा जल्दबाजी नहीं की। सुबह तक जितना जल था, बरसता रहा, सुबह सुधा की बेला तक फिर दोनों झील के राक्षस के शरीर को नापने दौड़े। सब के सब पत्थरों के निशान पानी की सतह के नीचे दुबक चुके थे। वे जैसे वहीं सुरक्षित महसूस कर रहे हो। ठुनिया और सीत्तू दोनों के मुंह से एक साथ निकला, ‘क्षमा ख्वाजा पीर, ये जुल्म मत करो, अब तो कुछ ही दिनों में तुम्हारे बच्चे डूब जाएंगे। रहम मेरे मालिक!’ फिर दोनों मन की सारी खोखली उम्मीदों को वहीं छोड़कर गांव की ओर लौट चले।
बांध वालों ने बांध का पानी किसी भी शर्त पर न छोड़ने का फैसला किया है, यह खबर जैसे ही टापू वाले गांव वालों को बांध वालों की बोट में आए दो आदमियों ने घर-घर जाकर दे दी वैसे ही शाम होते ही सब के सब गांव के मुखिया सीताराम के घर इक्ट्ठे हो गए। ‘अगर पानी बढ़ता रहा तो फिर गांव तो डूब ही जाएगा। बरसात थम नहीं रही है।’ सीता राम ने एक ही बात बोली, ‘भाईयों, अब फैसला करना बड़ा मुश्किल है, जब बांध वालों ने फैंसला कर लिया है तो अब हमें सिर्फ भगवान ही बचा सकता है, अगर गांव एक बार छोड़ दिया तो फिर सभी हंसेंगे और नहीं छोड़ा और सब डूब गए तो फिर हमारी जिद्द हमारे प्राण ले लेगी। अब आप ही बताओ हमें क्या करना होगा।’
गांव का रुलिया बोल पड़ा, ‘कुछ नहीं होगा हमें, सारी नावें तैयार है, अगर पानी बढ़ता गया तो उसी वक्त बच्चों ओर औरतों को उठाकर चल पड़ेंगे। एक बार परीक्षा तो देनी ही होगी, शायद भगवान भी हमारी जिद्द को परख रहा होगा। मुझे तो यह भी लग रहा हे कि बांध वाले हमें झूठ-मूठ ही डरा रहे हैं।’ सीता रात बीच में बोला, अरे! बांध वालों पर विश्वास नहीं कर सकते, वे भी अपनी जगह पर मज़बूर है अगर वे बांध का पानी छोड़ते है तो भी बाढ़ आ जाएगी पंजाब में और कई जानें जा सकती है और इधर पानी रोककर सिर्फ हमें ही 10-12 परिवारों को जान का खतरा है पर उनके अनुसार तो हमें चेतावनी भी दे दी गई है। ये तो सिर्फ हमारी जिद्द है, कल हम डूब कर मर गए तो उन्हें कोई न पूछेगा। हमें सोच समझ कर फैंसला लेना होगा। हमारी हालत जाल में फंसी मछली की तरह हो गई है अगर ज्यादा देर जाल में फंसी रहेगी तो भी मरेगी और अगर किसी ने छुड़ाकर ज़मीन पर फैंक दिया तो भी मरेगी।’ अभी ये सारी बातें हो ही रही थी कि झील की ओर से भागता हुआ रुलिया का बड़ा बेटा नहलू आ गया। वह बारिश में पूरी तरह से भीगा था। वह आते ही बोल पड़ा, ‘आप चाहे कुछ भी फैंसला करें, मै अपना घर छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगा, चाहे झील मेरेे घर को निगल जाए और साथ में उसको भी निगल जाए।’ उसकी आंखों में गुस्सा, बहादुरी और साथ में एक पक्की जिद्द नजर आ रही थी।
बाहर बारिश मूसलाधार रूप में बदल चुकी थी। बिजली घोर गर्जना के साथ चमकी और सबके चेहरे पर एक ही साथ चमकी। दीए की रोशनी में बैठे सब चेहरों को किसी आने वाले संकट का न्यौता देकर चली गई। रुलिया एक दम से उठा ओर चलते हुए बोला, ‘मैं जा रहा हूं गांव छोड़कर। इससे पहले कि झील में ज्वार आ जाए, मैं पूरे परिवार को साथ लेकर जा रहा हूं, तुम लोग भी मान जाओ, कोई नहीं बचेगा यहां। रुलिया अंधेरे में बहुत दूर निकल गया और उसके बाद बड़ी देर तक इस अभागी महफिल में खामोशी छा गई। नहलू ने खामोशी को तोड़ा, ‘देखो जी, चाहे मेरा बाप सबको अपने साथ ले जाए, मैं न जाऊंगा, मेरा वादा है आप सबसे। मेरी लाश अगर कहीं तैरती हुई मिल जाए तो उसे जलाना नहीं, जिन मछलियों को हम पकड़कर पूरे इलाके को खिलाते थे उनकी औलादें ही खाएंगी मुझे। तुम सब देख लेना।’ अभागी महफिल में फिर से खामोशी छा गई। सब अपने-अपने रास्ते निकल गए।
नहलू की बातें सच्ची होतीं हैं। सबसे काबिल बंदा है वह पूरे गांव में। बांध बनने से पहले दरिया में सबसे पहले नाव वही डालता रहा है मछली पकड़ने के लिए। वैसे तो गांव के लोगों का मुख्य काम खेती बाड़ी ही रहा है पर ज़मीनें बहुत कम हैं। पूरे गांव के पास बीच-बीच में मछलियों को पकड़ने का काम भी खूब चलता। मछलियों की मार्किट भी खूब चलती पास के कस्बे में और साथ में चार नए पैसे भी हाथ में आ जाते। इसलिए मछलियों से कमाई का मोह गांव के मर्दाें को नहीं छोड़ पाता। वैसे भी उनके बुजुर्ग भी यही करते आए हैं तो फिर वो क्यों न करें ये काम। दूसरा इस घाटी में दरिया भी सुस्त पड़ जाता है, पानी फैल जाता है और मछलियों को खूब पालता पोसता है।
नहलू की बातों पर किसी को शक नहीं। एक बार उफनते दरिया में कूद गया था वह किसी दूसरे गांव के लड़के को बहने से बचाने के लिए और बचाकर ही लाया था। कोई दो कोस पर लगा था वह किनारे। दूसरे दिन नाव में घर लौटा था। उस वक्त तो रुलिया ने उसे मरा समझ लिया था। पूरा गांव तो उसको कहां-कहां ढूंढ आया था। नहलू की बातें सच होती है एक बार उसकी भैंसें बाढ़ में बहने लगी थी तो भी उसने दरिया में छलांग लगा दी थी। एक भैंस तो मर गई थी डूबकर, पर दूसरी की पूंछ पकड़कर वो किनारे लग गया था। नहलू के युवा रूप के अंदर कई कहानियों के घौंसले टूटते बनते रहे हैं। अगर यही बंदा कहीं फौज में होता तो अभी तक यह तो उसकी बहादुरी उसे कई तमगे दिला जाती और यह तो सीने पर कई गोलियां। थोड़ा क्या पूरी सनकी है, जब मुसीबत सामने हो, तो वह सोचता नहीं बस इसी बात का डर है। अभी जो मुसीबत सिर पर आई है वो सब इन्सानों के घौंसले उजाड़ने आ रही है, जो शायद अपनी आने वाली नस्लों के लिए एक सुरक्षित टापू पर अधिकार जमाना चाहती है या फिर अपने अधिकार को खोना नहीं चाहती है।
बरसात ने इस वर्ष अपने पूरे हिसाब किताब कर डाले हंै। ठुनिया व नहलू अपने घरों में दो-चार रोटियां घटकाकर झील की ओर बढ़ते है आज सिर्फ नहलू और ठुनिया की बारी है झील के बढ़ते राक्षस के मोटे पेट को नापने की। उनकी ये प्रतीक्षा उन्हें धीरे-धीरे सक्रियता में बदल रही है। अपने टापू छोड़ने का दवाब हटने की कोई उत्कंठा किसी के मन में नहीं बची थी। नहलू की एकाग्रता का बिंदु उसे उस आखिरी भयावह दृश्य की ओर केंद्रित कर रहा था, जब सब कुछ इस निर्दोष जल के बीच समा जाएगा। वह सोचते हुए चल रहा था। वह ठुनिया चलते-चलते बोला, ‘दोष झील का नहीं और न ही उस दरिया का है, दोष तो उन मानवीय आकांक्षाओं का है जो दूरदर्शी सोच के आकाश में किसी के हिस्से की जमीन भी अवशोषित कर लेती है। हमारा भी यही हाल है जिस जमीन ने हमें हमारे हिस्से की खुशियां बांटने की उत्कंठा की थी वह खुद अपना अस्तित्व खो रही है। वह जब खुद एकांत निद्रा में चली जा रही है तो फिर अब हमें भी भटकाव की यात्रा शुरू करनी पडे़गी। हमारी विडंबना यही है कि हमसे हमारी जीवनदायिनी जमीन छीनी जा रही है। साथ में उन करोड़ों थलीय जीवों से भी, उन छोटी उड़ने वालेे परिंदो से भी जिनका ध्येय जल की परिधि में उड़ानें भरना नहीं, जो ज़मीन से मांगे छोटे दानों से अपने हिस्से की पोटली भरते हैं। अब उनके साम्राज्य पर जलीय जीवों के साम्राज्य का अधिकार होगा। वे या तो खुद को समेट लेंगे या फिर अपने शरीरों को निष्क्रिय मानकर भूख से दम तोड़ देंगे। उनकी इच्छा शक्ति का विनाश हो जाएगा।’ दोनों झील के किनारे पहुंचे।
ठुनिया ने झील के करीब पहंचते ही नहलू को इशारा किया देखो, ‘नहलू! क्या तुम इसी झील के स्वार्थ के संताप की बात कह रहे हो न? देखो इसने अब जमीन पर आखिरी निशान को निगल लिया है। इस हिसाब से तो आठ-दस दिनों में पानी हमारे टापू को निगल जाएगा। तुम्हें जो सोचना है जो अभिव्यक्त करना है वह जल्दी में कर लो। फिर ये झील हमारे लिए पराए सपनों की रात बन जाएगी।’
नहलू अपने मन के अंदर चल रहे ज्वार को महसूस कर रहा था। उसकी अदम्य इच्छा शक्ति उसे मुखर कर रही थी। उसका क्रियाशील मन का स्वप्न उसे नए दृश्यों से भर रहा था। वह बोला, ‘देख ठुनिया, मैंने गांव में अपनी इच्छाशक्ति के अनुसार यह शाब्दिक ऐलान कर दिया है कि मैं इस टापू वाले गांव के अपने घर को छोड़कर नहीं जाऊंगा, चाहे मुझे झील के तल में नवजीवन के चक्र का हिस्सा बनना पड़े और मेरा निर्णय अब अटलता से जिद्द में तबदील हो चुका है। मेरे इस इरादे से अब मुझे कोई डिगा नहीं सकता। तू मेरा पुराना यार है, मुझे लगता है कि तू मेरे मन की बात समझ चुका होगा।’
ठुनिया बोला, ‘यार तो हूं मैं तेरा, पर तेरी जैसी न तो मुझमें सोच है और न ही किसी निर्णय तक पहंुचने का सामर्थ। तू जो भी करेगा, तेरी दिव्य आत्मा तुझसे गलत नहीं करवा सकती, तू इन पानी की लहरों से अठखेलियां करने वाला अदम्य साहसी है, मैं तो सिर्फ किनारों पर बैठकर खुद को सिमटा-समेटने वाला इंसान हूं। मेरे मन में गतिशीलता का अभाव है और तू कभी न खामोश रहने वाला परिंदा जो हर दिन अपनी सरहदें खुद बनाता है। अब मैं क्या बोलंू।’ नहलू जोर से हंस दिया। उसका उट्हास झील के ऊपर की शांत हवों की एकाग्रता को भंग कर गया। दोनों ने बची हुई ज़मीन पर नए निशान लगाए और अपने मचान के निकट आग जलाकर नींद के इंतजार में अपना वक्त आग की लपटों में डालते रहे।
आखिर वह दिन आ गया। काले बादलों की बारात ने टापू वाले गांव को बाजे गाजों से सुबह उठा दिया। मूसलाधार बारिश ने पिछले तीन दिनों से गांव के घटनाक्रम में जबरदस्त परिवर्तन ला दिया था। झील अपनी बाहों को गांव के घरों की तुच्छ बाड़ों के नजदीक पहुंचा चुकी थी। गांव खाली हो चुका था। अब गांव में सिर्फ नहलू था और साथ में हंसिया और ठुनिया। गांव वालों ने इन मूसलाधार बारिश में अपने घरों के सामान को समेटकर दूर सुरक्षित ऊंचाई वाले कस्बे जहां मात्र कुछ घर थे में अपने डेरे लगा लिए थे। कुछ अपने रिश्तेदारों की संवेदना के साए में पल बिताने लग पड़े थे और कुछ अनजान दूसरे गांव के लोगों को रहमो-करम का मौका प्रदान कर रहे थे। नहलू के ईरादे का अंदेशा पूरे गांव को था पर किसी के पास इतना समय नहीं था कि कोई उसकी बात पर विश्वास करता। सब अपने अपने नए ठिकाने ढूंढ़ने में लगे हुए थे।
नहलू ने अपने बड़े भाई, बूढ़े मां-बाप को दूर अपनी जाति के लोगों के पास गांव में धार तक पहुंचाया और एक पुराने छप्पर जो रूलिया के किसी पुराने यजमान का था उसमें ठिकाना बना लिया। बरसात ने मन में उगते भय व विस्थापन के दौर को अपनी बौछारों में एक जगह टिकने नहीं दिया था। रूलिया भी अपनी जवानी में घराट चलाकर बुढ़ापे तक पहुंचा था। नहलू ने समय रहते अपने बाप को एक चकमा दिया। वह बोला, ‘मैं अब कुछ रूपये-पैसे का इंतजाम करने निकल रहा हूं, जल्दी कुछ ले आऊंगा। कहीं नए घराट का ठिकाना मिलेगा, तो वह भी करूंगा, बस मुझ पर विश्वास रखना, लोगों की कही सुनी बातों पर मत आना। पुराना छप्पर हमें कुछ वर्ष आसरा दे ही देगा।’ बड़े भाई के पास गया तो कुछ ऐसी बातें करता रहा- ‘तुम बड़े हो मेरा तो अब तक इस परिवार के लिए कोई योगदान नहीं रहा, पर मुझसे एक बात का वादा करना, जिंदगी सदा चलायमान है, मेरे न होते हुए भी चलेगी, ये धरती अपनी धुरी व सूर्य के इर्द-गिर्द सदियों तक दौड़ती रहेगी, मैं फिर किसी दिन तुमसे ढेर सारी बातें करूंगा, अभी मुझे बस एक उड़ान उड़ने जाना है, आशा है कि मैं अपने अन्र्तमन में उठे ज्वार को शांत कर पाऊंगा। मैं दुखी हूं पर जिंदगी में हमें इस मुसीबत से निकल कर बहुत आगे निकलना है। दूर प्रदेश में न तो मैं जा पाऊंगा न शायद तुम, इस वक्त बूढ़े मां-बाप और अपने बच्चों को कहां घसीटेगा।’
नहलू अपनी मां के पास गया तो उसके सारे प्रपंच मां के सामने ढेर हो गए, बूढ़ी मां उसकी आखों में पकते ज्वालामुखी को पहचान कर उससे बोली, ‘‘नहलू करोगे तो तुम अपने मन की पर एक बात याद रखना तुम कभी मेरी कोख में आए थे तो साथ में कुछ उम्मीदों की रोशनी मेरे तन मन में फैलकर दूर घाटियों को रोशन करने लगी थी। तुमने हमेशा मुझे भय में रखा, तुम्हारे बेबाक और स्पष्टवादी और सबसे ज्यादा जिद्दी प्रवृति तेरे स्वर्ग सिधार चुके नाना के जीवन अंशों से आई है, पर किसी का जीवन कई मंजिलों का सफर भी हो सकता है और किसी का सिर्फ दो-चार पगडंडियों पर निरंतर आते-जाते रहना, तुमने हमेशा अपने दिल में नई तमन्ना को अंकुरित किया है जो हम जैसे गरीब व अपने अस्तित्व की लड़ाई हार चुकी जाति के लिए शुभ संकेत नहीं है। मैं कहती हूं अपने अन्र्तमन की बात मत सुनो सरलता के हमारे उजड़े जीवन की मसली जा चुकी हमारी घाटी की माटी में नवीनता के जीवन में नए अकंुर लगाने की जिद्द करो, लौट आओ नैहलू! पीछे हट जाओ! तुम्हारी जाति के भीरू रक्त में इतना प्रतिरोध अच्छा नहीं! बूढ़े मां-बाप की जिंदगी के इस उदास जीवन के क्ष्तििज में फैली धुंध को छटकाने के लिए नए सूर्य से कुछ किरणें मांगकर लाओ।’
नहलू ने अपनी बूढ़ी मां के चरणों को छुआ और बोला, ‘बस इस जीवन के लिए मुझे माफ कर दे माई, मैं फिर लौटूंगा, अभी मैंने अपने अस्तित्व को वर्तमान में दूर तक फैलती झील को समर्पित करने की ठान ली है, और तुझे तो पता है कि मैं कभी अपनी निर्णय से टस से मस नहीं हुआ। मैंने भूत वर्तमान और भविष्य के लिए केंद्रित आशा को भी अपने अंदर दफन कर लिया है, मैं अब विचार शून्य हो गया हूं, मुझे सिर्फ एक ही केंद्र आकर्षित कर रहा है, एक ही हठ मेरी प्रतीक्षा में मुझे पुकार रहा है। मैं इंतजार नहीं कर सकता। मैं समय की परिधि में नही बंध सकता मैं आने वाले समय का स्वप्न भी नहीं ले सकता।
मैं उम्मीद की खिड़की से झांकने की इच्छा भी नहीं कर सकता। मैं झील के फैलाव से टूटे घौंसलों से उजड़े पंखेरूओं का रूदन-क्रंदन नहीं सुन सकता। मैं असंतोष ऊहापोह, असुरक्षा, ना उम्मीदी के हालात में उम्मीद की मशाल लेकर डूबते सितारों को रोशनी को ढूंढ नहीं सकता। बस मुझे स्याह धुंए के उस पार में फैले क्षितिज की ओर जाना है। मुझे माफ करना मेरी बूढ़ी मां, मैंने तुम्हें बहु का चेहरा भी नहीं दिखाया, मैंने तेरी हर उम्मीद को उजाड़ा है बस आखिरी बार मुझसे अब कोई उम्मीद न रखना बस मुझे माफ कर देना।
अनिश्चिताओं के साथ जो घटित होने वाला हो शायद वही आजीवन नहलू के भाग्य पुरूषार्थ और मनः स्थिरता के बीच के संतुलन की परीक्षा लेने वाला था। छम-छम बौछारों के बीच क्षितिज पर झुके काले बादलों के आसमान के नीचे से उसकी धुंधला साया बहुत आगे अपनी मंजिल की और निकल गया। धुंधले ने उसके साए को पल में ही निगल लिया। बूढ़ी मां की आंखों से निकली बूदों को भी गीली ज़मीन ने भी अवशोषित करने को मना कर दिया, वह पहले से ही मीठे जल से तृप्त थी।
डैम वालों की बोट ने गांव का आखिरी निरिक्षण किया। गांव में पहुंचकर जोर-जोर से आवाजें लगाई। बोट से दो आदमी उतरे। खाली घरों में कोई नज़र नहीं आया। नहलू, सीत्तू और ठुनिया उनकी आंखों में धूल झौंककर कभी एक खाली घर में, तो कभी दूसरे खाली घर में छिप-छिपाते रहे, पर वे किसी की नज़र में नहीं आए। तीनों ने खाली घरों की छत्तों के नीचे रात बिताने का फैंसला किया। तीनों बालपन के लंगोटिए यार हैं। तीनों ने इधर-उधर गांव वालों द्वारा छोड़ी लकड़ियों को समेटा और आग जलाकर बैठ गए। ठुनिया ने सबसे पहले बात शुरू की, ‘मैं कहता हूं, नहलू तू एक बार फिर सोच ले, हमारे पास वक्त नहीं है मुझे लगता है कि आज रात पानी गांव को निगल जाएगा। हमारे बच्चे इंतजार कर रहे हैं, मैं और हंसिया तेरी जिद्द के आगे नतमस्तक होने नहीं, बल्कि तुम्हें वक्त की नजाकत को समझाने आए हैं, जब हमारी जिंदगी में भटकाव लिखा है तो फिर हमें भटकना ही है, पूरे टापू गांव के लोग टूटे तिनकों की तरह बिखर गए है। कोई ढूंढने से भी नहीं मिल रहा है सब भविष्य की चिंता में दूसरों के रहमे कर्म पर जिंदा हैं। हमें जब सरकार ने दूर प्रदेश में ज़मीन के टुकडे़ बांट दिए है, तो फिर हम यहां क्यों रहें। पंछी भी अपने नए घौंसले हर साल बनाते हैं, हम भी बना लेंगे।’
नहलू की आंखों में आग की चमक में फिर एक रोशनी कौंदी। वह बोला, ‘तुम लोग जिसे मेरी जिद्द समझ रहे हो, बस वही अब मेरा ध्येय बन गया है। अगर मैं आखिरी वक्त तक डटा रहा तो इस दुनिया को सिर्फ यह बता पाऊंगा कि कभी किसी परिंदे से उसका चमन न छीनो, चाहे वर्तमान में मनुष्य नित नए प्रयोगों के साथ मानवता को बेहतर बनाने, जीवन को सुविधाओं से भर देने में जुटा है और सब बदलते समाज को और बदलने की नायाब तरकीबें बांट रहे हैं। बस अब समाज ने इन विचारों का उत्पादन और प्रयार करना शुरू कर दिया है और हम लोग मछली के लालच की तरह कांटों में फंसते जा रहे हैं। अब यही विचार समाज के जीवन स्वप्नों से जुड़े विचार हैं। जीवन की यही सबसे बड़ी सच्चाई अब हम जैसे कई घौंसलों को उजड़ जाने का निमन्त्रण बांटेगी, मैं सब समझता हूं मेरे भाईयो, पर मेरी जिद्द मेरी आत्मा की जिद्द है, मेरी सांस्कृतिक व पारम्परिक आत्मा की जिद्द है ये हठ नहीं, अपने हिस्से के परम्परा की जिद्द है सुविधाओं का यह जीवन पराए सपनों की रात में जी उठेगा, अब कुछ भी अकल्पनीय और असंभव नहीं रहेगा। सिर्फ हम लोग दूसरे के बांटे सपनों में अपनी रात को स्वप्निल यादगार बनाएंगे। इसके अलावा हम झीर जाति के लोग और क्या सोच पाएंगे। ये हमारे बुर्जुगों का दुःस्वप्न ही होगा कि उन्होंने इस जीवनदायनी नदी के किनारे अपने गांव बसाए होंगे। तब तो उन्हे आभास क्या उनके कल्पनाशील विचारों में भी न होगा कि उनके वंश के बरगद को सींचने वाले इस तरह नदी से दूर भगा दिए जाऐंगे। पहले तो हमने अपनी मजबूरी में अपनी परम्पराओं, पेशों को इसी झील में डूबोया और अब हमारे अस्तित्व का गांव समय की गर्द में दबकर अपने निशान खो रहा है।
अब मेरा आखिरी फैसला भी सुन लो। चाहे तुमने मेरे अघोषित विरोध की आग में अपने विचारों में गर्माहट महसूस की हो या नहीं, मैं इसी टापू पर अपनी जान देने वाला हूं। झील की गहराई में अपने सब उफनते व अपरिवर्तशील परम्परावादी विचारधारा की जल समाधि लूंगा और चाहता हूं कि कोई मेरी इस इच्छा को रोक न पाए। इसलिए भाईयो यहां से चले जाओ। सुबह तक यह गांव डूब जाएगा, और जब पूरा गांव डूब चुका होगा तब भी तुम किसी इंसान से मेरा जिकर मत करना। मैं इससे आगे न कुछ सोच पाउंगा और न सोच पा रहा हूं।’ गांव में सन्नाटे व झील के उभरते स्वरों का एक अजीब सा शोर मचा हुआ था। सीत्तू और ठुनिया ने एक दूसरे की आंखों में उस रोशनी को ढूंढना चाहा जो नहलू की आंखों में निशब्द प्रकट हो रही थी। लेकिन वो रोशनी उपर कड़कड़ाती बिजली के शोर और भस्म कर देने वाली रोशनी व गड़गड़ाहट के सामने वो फीकी सी लकीर थी। अंधेरे के रथ पर ऊपर काले बादलों का एक नया डरावना आकाश बनता जा रहा था। जिन लोगों की ज़मीन पैरों को दुतकार देती है उन्हें आकाश भी निगलना चाह रहा था। उनके साधारण मस्तिष्कों में हड़कम्प मचा था और वे बार-बार अपनी गोल-गोल आंखों को मिचाकाकर आकाश की नीयत से भयभीत हो रहे थे।
दूसरी ओर नहलू के मन ने इसी डरावने आकाश को प्रेम पूर्ण चादर मानकर और ओढ़ कर घुप अंधेरे में अपने मन में फैल रही रोशनी को सुलाने की कोशिश शुरू कर दी थी। वह बाहें फैलाकर झील के बढ़ते राक्षस को प्रेम पूर्ण आगोश में लेने का निमंत्रण बारम्बार भेज रहा था। ठुनिया और सीत्तू अपने भीरू शरीरों में उपजे छोटे सैनिकों को इस नई सत्ता के महाराज के आगे नतमस्तक करते हुए एक आखिरी किश्ती में सवार होकर अपनी मन की शक्ति को अंधा समझकर डूबते टापू वाले गांव से दूर निकल गए। थोड़ी देर में सब कुछ काले बादलों के साम्राज्य के अधीन हो चुका था। नहलू का मन उन दोनों के चले जाने के बाद ऐसा महसूस करने लगा जैसे उसे हजारों पिंजरों से निकालकर दूर सिंधूरी आसमानों में उड़ने की लालसा को उड़ाने की आजादी मिल गई हो। वह यथास्थिति का आंनद महसूस करने लगा। वह जांबाजी के नशे में पारलौकिक आभा का आभास महसूस करने लगा। अगर कोई रात का राहगीर इस इकलौते गांव की खोह में चुपचाप बैठे नहलू को एक नज़र देख लेता या उससे इस वक्त बात कर लेता तो शायद उसे जिंदगी भर किसी देवता को ढूंढने की कोशिश की लालसा न रहती।
मूसलाधार बरसात ने नहलू के इंतजार को भांप लिया था। यह रेत के धुंधलके में भटकते नहलू के मन रूपी मरूस्थल का टूटकर बरसते बादलों के लिए इंतजार था। ये शरद की ठडंक भरी रातों का खिले हुए पूरे गोले मुस्कराते चांद के इंतजार जैसा था। ये बीयाबान जंगलों में सदियों पहले बनी पगडंडियों के लिए किसी अन्जाने राहगीर के लिए तड़फ जैसा इंतजार था। ये कृष्ण की मीठी बासुंरी और उसके गोपियों के कानों के बीच का इंतजार था। बरसात ने अपना पूरा दम निकाल दिया पर अभी पानी घास व सलेटों से छाए छप्परों के आंगन तक ही पहुंचने की हिम्मत कर पाया था।
नहलू ने सुबह जब दूर धौलाधार के बीच उगते रोशनियों में लिपटे सूर्य को अपनी ओर ताकते देखा तो उसे उस सूरज से नफरत सी हो गई। वह मन ही मन बुदबुदाया, ‘क्यों आए हो तुम फिर से, तुम अब मेरे सखा नहीं बन सकते और न ही मैं तुम्हारा मुंह देखना चाहता हूं मुझे अब अंधेरे ख्यालों की यात्रा पर निकलना है और तुम मेरे रास्ते में बाधा उत्पन्न कर रहे हो। मुझे क्षितिजों के उस पार आकाशगंगाओं की यात्रा के लिए तैयार होना है। मुझे अब इस पुराने आकाश, तुमसे और रात के मेरी ओर घूरते चांद से कुछ नहीं लेना-देना है। मेरा मन अब सब बंधनों से मुक्त होने के लिए छटपटा रहा है और तुम अपनी उन्हीं पुरानी रश्मियों को इस धरातल पर बिखेरते जा रहे हो। इन्हें वापिस ले लो या फिर अपना पथ बदल लो मुझे तुम्हारी रोशनी से अब कोई प्रेम नहीं रहा है। मैं किसी अन्जाने प्रेम बंधन में बंध चुका हूं बस मुझे यही पता नहीं चल पा रहा है कि मेरी प्रेयसी किस ग्रह की मल्लिका है।’
वे क्षण नहलू के अंधेरे होते आसमान और ज़मीन के बीच एक धागे जैसी पतली पगडण्डी बनाना शुरू कर चुके थे जिन पर नहलू को संतुलन बना कर चलना था। किसी और सुंदर ग्रह की ओर क्योंकि इस पृथ्वी ग्रह ने तो उसके हिस्से की ज़मीन डूबो दी थी अब वे भूखे राक्षस के समान उसके हौंसलो को निवाला बनाने की मंशा से दूर झील के उपर फैले अंधेरों में अपनी योजना बना रहे थे। अंधेरे में नहलू के मन ने ऐसी शांति तलाश कर ली थी कि झील की सतह के ऊपर बने सपाट समतल मैदान के ऊपर निशब्द हवा की लहरों में भी कोई प्रतिध्वनि की गुंज नहीं थी जो उसका अंतिम श्रणों में सहारा बनने का अहसान कर जाती।
दो रातें नहलू ने कमर तक चढ़ आए पानी की सतह के ऊपर उड़ती हवा के दम पर बिता डाली थी। सब कुछ पानी में तैरता जा रहा था। दिन के उजाले में नहलू ने स्लेटों के छप्पर पर बैठे बिता लिए थे। बदरंग झील का पानी कभी नीला बनने का अभिनय भी नहीं कर रहा था जिसमें वह अपने अस्तित्व का आईना देख सके। देख सके कि उस नीले आईने में उसकी आंखों में कहीं मृत्यु के डर के छोटे-छोटे बिंदु उभरने तो नहीं लग पड़े हैं पर अब किसी के पास वक्त नहीं था। अगर नीली लहरें आईना बना पाती तो नहलू को उसकी प्रचंडमयी और जिद्दी सोच की शायद मिथ्या प्रशंसा जरूर करती, और शायद ऐसा भी हो सकता था कि ये लहरों नेपथ्य में बने आईने व उसकी दूरदर्शी उत्कंठा को जल की असीमित बूंदों में पिघलाने की कोशिश भी करती। झील की उभती और पल पल बढ़ती सतह अपने अभिमान के नशे में चूर थी। वे सफलता के मद में मानवीय घौंसलों या फिर मानवीय सहानुभूति से कोसों दूर थी।
नहलू का मन कर रहा था कि कमर तक चढ़ चुके पानी में नाक बंद करके वह डुबकी लगा दे और जब आत्मा शरीर से निकल जाए तो फिर वह जल्दी से अपना फर्ज निभा दे, पर कभी प्रंचड लहरों के बीच से भी अपने हिस्से की सांसें छीनने वाला योद्धा इस बौने से शांत मगर मक्कार जल की तुच्छ गहराई में कैसे खुद को डूबो ले। यहां एक ओर तो उसकी जिद्द पूरी हो सकती है वहीं दूसरी ओर अभी भूखे प्यासे और इंतजार करना होगा और कहीं डैम वालों की बोट फिर से गांव की डूबती तस्वीर देखने को आ जाए तो वह अपने हठ की बलि चढ़ जाएगा। हिम्मत का शायद दूसरा नाम जिद्द, हठ या फिर पागलपन होगा, यहां ये हिम्मत तो एक शरीर को ख्बाजा पीर के चरणों में न्योछावर करने की थी। वह ज्यादा नहीं सोच पा रहा था। उसने सिर्फ वही सोचा-बचपन से लेकर जवानी और अपने जिंदगी के उन सुनहरी पलों को तलाशा जो वह इस जमीन पर बिता पाया है।
उसने अपने मन को एक प्रक्षेपण करने वाले यंत्र की तरह चलाया और दूर धौलाधार की उंचाई से भी ऊंचे आकाश की घाटियों में प्रकाशित शिखरों पर बैठे अपने देवता को तलाशा। उसने मन को पानी के बुलबुले की तरह हलका करके मृत्यु का असामान्य सानंद स्वीकार कर लिया और जो वह कर चुका है उसे एक स्वप्न की तरह महसूस किया। नींद तो पानी में डूबने के बाद खुलेगी, जब उसकी आत्मा शरीर से निकलकर उस बुलबुले में समाकर फिर से पानी की सतह पर तैरने लगेगी तो वह परम शांति की ओर रूख करेगी, वह कुछ पल बुलबुले का अस्तित्व बनाने का प्रपंच करेगी और फिर पल में ही हवा के एक निम्न स्तर से वायु में समा जाएगी। उसकी सारी मानसिकता के गहरे सागर में उठी लहरों का जड़ से मिलन हो जाएगा, वे फिर शांत हो जाएगी चेतना, गतिशीलता जल में प्रवाहित होकर नई अनुभूतियों के गहन संसार की रचना का निर्माण शुरू कर देगी। पूरा ब्रहमांड उसकी आत्मा को अवशोषित कर लेगा।
अब उसके पास ज्यादा समय नहीं था और अपने जीवन के अंत के विषय में आत्मचिंतन का तो कतई भी नहीं, तो फिर वह इस उजाड़ बीयाबान में मौत के राक्षस के सामने किसी बात का चिंतन तो करना चाहता था। संतुलित जीवन की नदी की धारा के प्रवाह को तो अन्जान लोगों ने उनसे पूछे बिना ही पहले से मोड़ दिया था। मृत्यु की शाश्वतता को तो उसने पहले ही स्वीकार कर लिया। इस ब्रहमांड में जो कुछ हुआ है वह नष्ट तो होगा ही और फिर से अणुओं परमाणुओं का रूप बनकर फिर से किसी सुंदर जगह पर अकुंरित हो जाएगा। तो फिर वह किस चीज़ का चिंतन करे। एक बात और है जब ये प्रकृति हर पल गतिशील है, अकुंर पेड़ बनने के जुनून में धरा से खनिजों को अवशोषित कर रहें हैं, हर टहनी अपने आप को गर्मित करके नए बीजों से भरे गुच्छे पैदा करने में लगी है। पानी की बूदें वाष्पित बनकर बादलों में एक-एक करके जुड़ रही है। फिर से धरा पर गिर रही है। किसी के पास रूकने का वक्त नहीं है, सूर्य, चांद, सितारे सब गतिशील हैं तो फिर वह क्यों रूके। उसके लिए भी ईश्वर एक नया कार्य सौंप देगा, रूह बिना किसी उत्कंठा के चुप नहीं बैठ सकती, तो फिर यह शरीर कब तक अप्रसन्नता का दामन थामेगा।
इन सब बातों से उसे एक आनंद का अहसास होने लग पड़ा था। उसका मन कह रहा था कि जो हम पहले से नहीं जानते, जिन स्थितियों की पहले कभी कल्पना नहीं की वही परिस्थितियां उसके सामने बनी है। अगर इस स्थिति को बनाने वाले वह खुद सृजनकार है, वह अब पीछे नहीं मुड़ सकता वैसे उसने आज तक जो भी किया है, उसे वह पहले से नहीं जानता था। वैसे ऐसी चीजं़े या काम करने का क्या फायदा जो आपके वश में हो या फिर उसके परिणामों को आप पहले से जानते हों। वह सफलता नहीं हो सकती वह तो निरी कार्यकुशलता है। या फिर यूं कहे कि हमारा प्रंबधन है। विपरीत परिस्थितियां से निकले सफलता के मोती ही कुछ अगल सी चमक के होते हैं।
वह भूख का चिंतन भी नहीं कर सकता क्योंकि भूख तो जीवन दायनी प्रंपचों का निर्माण करती है और वह तो मृत्यु को अपनी ओर आकर्षित कर रहा है। जीवन और मृत्यु के बीच की छोटी रेखा के बीच समाए समस्त उतार चढ़ाव, भाग्य, पुरूषार्थ व अनिश्चितता के साथ जो भी आज तक घटित हुआ, उस रेखा के वह अब अंतिम बिंदु पर पहुंच चुका है तो फिर उसका चिंतन तो समय की बर्बादी है, और उसके पास समय कम है तो फिर वह किस बात का चिंतन करे। गांव के वृद्व धीरे-धीरे अपने जराग्रस्त शरीरों को खाट की शैया पर अंतिम सांसों तक अपने रिश्ते नातियों से मिलकर प्राण पखेरूओं को अनंत में विलीन करते थे। उसने तो न अपनी प्रेयसी और न ही किसी पत्नी के संग शांति और सुकून का वातावरण बनाने का स्वप्न लिया सिर्फ एक घराट और उसके अंदर के घूमते पाटों के शोर में ही उसके जीवन के कई रंग भाग गए थे। पर किसी औरत के शरीर का स्पंदन उसके जड़ बनने वाले शरीर के हर हिस्से में महसूस होने लग पड़ा था। उसने इसी विषय पर मन के चिंतन को लगा दिया। उसने फिर सोचा कि अब अगर वह अपनी प्रियतमा के साथ हर वह सपना लेता है जो एक स्त्री-पुरूष शादी के बाद लेता है तो इसमे भी उस प्रियतमा के साथ अन्याय होगा क्योंकि वह तो अब मृत्यु के असामान्य सानंद को स्वीकार कर चुका है, तो फिर एक अप्राकृतिक जराग्रस्त व्यक्ति के लिए ऐसा चिंतन सही न होगा, वैसे देखा जाए तो उसने किसी रूपसी के हिस्से का प्रेम अपनी जिद्व पर कुर्बान कर दिया है, यह फिर ऐसा कहें कि अपनी सफलता के नशे में उसने उस द्वार के करीब पहुंची नवयौवना को भी ठुकरा दिया।
उसने इस चिंतन को भी नीचे फैंक दिया। बस उसके फैंकने से उठी लहरों के प्रवाह से जिस छप्पर पर बैठा था उसकी कच्ची ईटों की दीवारों को एक धक्का दिया और फिर उसे लगा कि उसके जैसे उसके नीचे एक तेज हलचल शुरू हो गई है, दीवरों की कच्ची इंटों ने अपने अब तक जकड़े कणों को स्वतंत्र करके पानी के साथ-साथ भाग निकलने का फरमान सुना दिया है। आखिर में आखिरी घर भी ढह गया जिस पर अब तक उसका अस्तित्व टिका था। अब उसके बाजुओं की परीक्षा और मौत का फासला ही बचा था। वह अंधेरे को सहारा बनाकर बस तैरता रहा, तबतक जबतक उसके शरीर और मस्तिष्क का सामंजस्य नसों का संदेश भेजकर उसकी हिम्मत को जिंदा रख सकता था।
वह तैरता रहा और फिर अंधेरा ही उसका गवाह था, चांद तब तक दूर किसी कोने से यह सब देख रहा होगा, पर वह मदद नहीं कर सकता था, उसकी ज़मीन इस जिद्दी के किसी काम की नहीं थी। जब सूर्य की पहली रश्मि ने उस सपाट झील के उपर अपनी शतरंज की बिसात बिछाई थी तबतक वह फूलकर किसी कोने की ओर बहना शुरू हो चुका था। उसको अब आत्मचिंतन से भी छुटकारा मिल चुका था।
डैम वालों ने खतरे के निशान का इतंजार करके फिर कुछ समय के बाद पानी छोड़ दिया था। टापू वाले गांव के कुछ पिघले हुए अवशेष अब कुछ दिनों के बाद दिखाई देने लग पड़े थे। अगले वर्ष डैम वालों ने खतरे के निशान को कुछ फुट नीचे कर दिया था। टापू वाले गांव के कुछ अवशेष अब कुछ दिनों के बाद दिखाई देने लग पडे़ थे। टापू वाले गांव के कुछ और जिद्दी लोग इधर-उधर की पहाड़ियों से उतरकर टापू वाले गांव की और लौट रहे थे। नहलू इस बार अपना फिर से टापू पर बस चुका गांव देखने नहीं लौटा था। गांव वालों को बस अबतक इतना ही पता है।

*डॉ. संदीप शर्मा

शिक्षा: पी. एच. डी., बिजनिस मैनेजमैंट व्यवसायः शिक्षक, डी. ए. वी. पब्लिक स्कूल, हमीरपुर (हि.प्र.) में कार्यरत। प्रकाशन: कहानी संग्रह ‘अपने हिस्से का आसमान’ ‘अस्तित्व की तलाश’ व ‘माटी तुझे पुकारेगी’ प्रकाशित। देश, प्रदेश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कविताएँ व कहानियाँ प्रकाशित। निवासः हाउस न. 618, वार्ड न. 1, कृष्णा नगर, हमीरपुर, हिमाचल प्रदेश 177001 फोन 094181-78176, 8219417857