अन्य लेख

शहर में पर्यावरण को लुप्त कर रहा प्लास्टिक कचरा

हम बेहतर और सुगम जीवन की चाह रखते हैं। लेकिन हम भौतिक सुख-सुविधाओं में इतने तल्लीन होते जा रहें, कि ख़ुद के विनाश की लीला तो लिख ही रहें। साथ में प्रकृति और पर्यावरण को भी व्यापक क्षति पहुँचा रहे। मान्यताएं है, कि प्रकृति ईश्वर की दी हुई मानव को अनमोल धरोहर है। तो उसे सहेजने की जिम्मेदारी और फर्ज भी हमारा हुआ। पर हम आज इतना सोच कहाँ रहें। स्वविकास की अंधी-दौड़ में हमनें उन सभी पहलुओं से मुँह मोड़ लिया है। जो एक नागरिक होने के नाते हमारे ख़ुद के वजूद और वन्य-जीव के साथ प्रकृति के संरक्षण के लिए आवश्यक है। जो तत्कालीन दौर की काफ़ी दुःखद स्थिति को बयां करती है। आज के दौर का दुर्भाग्य ही है, कि हम सिर्फ़ अधिकारों के संरक्षक बन कर रह गए है। ऐसे में अगर हम कर्तव्यों और सामाजिक जिम्मेदरियों से दूर भाग रहें। फिर सामाजिक प्राणी कहलाने का औचित्य तो कहीं न कहीं हम खो रहें।

इसके अलावा जिस संविधान की दुहाई देते हुए आज हम और हमारा समाज चिल्ल-पौं करता है अपने अधिकारों की। उसी में तो ज़िक्र ग्यारह कर्तव्यों का भी है। उसे हम दरकिनार क्यों कर देते हैं। अधिकार सम्पन्न होने से हम बेहतर जीवन जी तो सकते हैं, लेकिन अगर हम अपने कर्तव्यों को निष्ठापूर्वक कंठस्थ करके उसका अनुपालन करें। फिर जीवन ओर सुगम और आसान बन सकता है। यहां बात हम प्लास्टिक से होने वाले नुकसान और उससे कैसे मानव-जीवन और प्रकृति को बचाया जाएं। उस विषय पर कर रहें। तो यहां पहले ज़िक्र संविधान में वर्णित उस कर्तव्य की कर लेते हैं, जिसके अनुपालन का ध्यान आज हमारा समाज और देश के लोग नहीं दे रहें। जो है, कि हम प्रकृति, वन्य-जीव आदि के संरक्षण के सहभागी बनेंगे। यहां एक बात का ज़िक्र यह भी होना चाहिए, कि हम और हमारा समाज आज अन्य लोगों पर आश्रित काफ़ी ज़्यादा हो गए है। फिर वह चाहें सरकार पर हो, या अन्य संस्थाओं पर। आज हम बात करते हैं, कि हमारी रहनुमाई व्यवस्था यह नहीं करती। हमारे सियासी नुमाइंदे वह नहीं करते। तो इन सब से इतर कभी हम देश के एक नागरिक होने के नाते यह क्यों नहीं सोचते, कि हम क्यों कुछ नहीं करते। अब प्लास्टिक पर रोक भी लोकतंत्र में चुने नुमाइंदे ही लगाएं। यह कैसी रवायत। जब हम अपनी सोच और आदत में बदलाव नहीं लाएंगे। फिर चीजें निष्पादित कैसे होगी, यह हम और हमारा समाज क्यों नहीं समझता।

1) प्लास्टिक प्रदूषण और मानवीय चेतना:-

आज के दौर में स्वविकसित होने की सरपट दौड़ में हमारी चेतना देश, समाज और प्रकृति आदि के लिए अवचेतन हो गई है। ऐसा कहना कतई अतिश्योक्ति समझ नहीं आता। आज के दौर में प्लास्टिक प्रदूषण एक गंभीर वैश्विक समस्या बनती जा रही। तो उससे हमारा देश भी अछूता कैसे रह सकता है। हम उस प्रथा के संवाहक भी रहें हैं वर्षों पूर्व। जब हमारे बुजुर्ग घर की चौखट से किसी काम के लिए निकलते ही कपड़े, जूट आदि का थैला लेकर निकलते थे। पर आज के भाग-दौड़ की जिंदगी में हमने अपनी परम्पराओं और रीति-रिवाजों को छिन्न-भिन्न कर रहें हैं। फिर साथ में थैला लेकर चलना तो सामान्य बात थी, उसका कैसे हम निवर्हन कर सकते हैं। बात अगर करें विश्व पटल की तो एक वर्ष के भीतर ही अरबों प्लास्टिक के बैग प्रकृति की गोद में फेंक दिए जाते हैं। जो सिर्फ़ प्रकृति की गोद को बंजर ही नहीं करती। अनगिनत समस्याओं की उपज के कारक भी बनते है। तो ऐसे में ये प्लास्टिक बैग कहीं नालियों के प्रवाह को रोकते हैं, और आगे बढ़ते हुए वे नदियों और महासागरों तक पहुंचते हैं। तो कहीं ये पशुओं के जीवन चक्र में जहर घोलने का काम करते हैं। मतलब एक मानवीय कृत्य के कारण काफ़ी बड़ा नुकसान प्रकृति के साथ बेजुबान जानवरों और ख़ुद मानव को भी उठाना पड़ता है। फिर भी वह इसके विकराल परिणाम को देखने के बाद भी अपनी अवचेतन अवस्था को त्यागने को तैयार नहीं दिख रहा। तो यह काफ़ी सोचनीय विषय हो जाता है। चूंकि प्लास्टिक स्वाभाविक रूप से विघटित नहीं होता है इसलिए यह प्रतिकूल तरीके से नदियों, महासागरों आदि के जीवन और पर्यावरण को प्रभावित करता ही है। साथ में प्लास्टिक के कारण उत्पन्न प्रदूषण लाखों पशु-पक्षियों के मारे जाने का कारण बनता है। जो पर्यावरण संतुलन के मामले में एक अत्यंत चिंताजनक पहलू को बयां करता है।

ऐसे में अगर हम प्लास्टिक की प्रकृति देखें तो यह मृदा प्रदूषण का अहम कारक है। आज हम कहीं भी नज़र उठाकर देखेगें, तो सामान्यतः प्लास्टिक ज़मीन पर पड़ी दिख जाएंगी। जो हमारी धरती माँ की एक हिसाब से गोद सूनी करने का काम करती है, क्योंकि जहां कहीं भी प्लास्टिक पाई जाती है। वहां पृथ्वी की उपजाऊ शक्ति क्षीण हो जाती है, साथ ही साथ ज़मीन के नीचे दबे दाने वाले बीज अंकुरित नहीं हो पाते। जिस कारण उपजाऊ भूमि बंजर में तब्दील हो जाती है। इसके अलावा प्लास्टिक नालियों में गंदे पानी के बहाव को रोकता है और पॉलीथीन का ढेर वातावरण को प्रदूषित करता है। चूंकि हम बचे खाद्य पदार्थों को पॉलीथीन में लपेट कर फेंकते हैं तो पशु उन्हें ऐसे ही खा लेते हैं जिससे जानवरों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, यहां तक ​​इससे उनकी मौत भी हो जाती है। फिर कहीं न कहीं हम पशुओं के हत्यारे जाने-अनजाने में बन रहे। तो हमें समझ नहीं आता, कि हम गौ-संरक्षण आदि का ढोंग क्यों रचते हैं। अगर हम इतने ही कर्तव्यनिष्ठ और अपने फ़र्ज़ के प्रति वफादार हैं, तो प्लास्टिक को न क्यों न कहें, और कपड़े आदि के थैले को आज के दौर में हाँ कहें।

2) जानतें हैं, क्या है प्लास्टिक प्रदूषण:-

यूँ देखा जाएं। तो प्लास्टिक सामान्यतः सभी तरीक़े के प्रदूषण का वाहक बनता है। फिर भी यह मृदा प्रदूषण का संवाहक अधिकांशतः बनता है। जब धरती के किसी हिस्से या नदी आदि में प्लास्टिक उत्पादों के ढेर इकट्ठा हो जाते हैं, उसे प्लास्टिक प्रदूषण की संज्ञा दी जाती है। यह मनुष्य, पक्षी, जानवरों के जीवन पर व्यापक पैमाने पर आघात अमूमन डालती ही है। साथ में प्रकृति को बांझ बनाने का कार्य भी करती है। अब अगर प्लास्टिक की बात करें। इसका निर्माण कैसे होता है। तो यह अमूमन पेट्रोलियम पदार्थों से उत्सर्जित सिंथेटिक रेजिन से बना है। रेजिन में प्लास्टिक मोनोमर्स अमोनिया और बेंजीन का संयोजन करके बनाया जाता है। प्लास्टिक में क्लोरीन, फ्लोरीन, कार्बन, हाइड्रोजन, नाइट्रोजन, ऑक्सीजन और सल्फर के अणु शामिल हैं। ऐसे में अगर हम बात प्लास्टिक से होने वाले नुकसान की करें, तो इसके विनाशकारी प्रभाव दृष्टिगत हो रहें हैं। आज दुनिया में हर देश प्लास्टिक प्रदूषण की विनाशकारी समस्याओं से जूझ रहा है।

इसके अलावा शहरी वातावरण को तो प्लास्टिक से होने वाले प्रदूषण ने पूरी तरह से अपने आगोश में समेट लिया है। शहरी जीवन इसलिए ग्रामीण अंचलों से ज़्यादा प्लास्टिक प्रदूषण से प्रभावित है, क्योंकि सुदूर गाँवों में आज भी लोग कुछ हद तक कपड़े आदि के थैले का उपयोग कर लेते हैं। पर शहरी जीवन में बाहर से कुछ भी लाना है, तो प्लास्टिक की थैली ही जीवन का अपरिहार्य अंग बन गया है। ऐसे में लगता है, कि ज़्यादा शिक्षित हो जाना भी परम्पराओं और अपनी पुरातन सभ्य आदतों के लिए ख़तरनाक स्थिति पैदा करती है। शहरों में गाय और अन्य जानवरों के साथ बड़ी संख्या में पक्षी प्लास्टिक की थैलियों का उपभोग करने की वजह से मारे जा रहे हैं।

3) प्लास्टिक प्रदूषण धरा के अस्तित्व को कैसे दे रहा चुनौती:-

एक तरफ़ हम बेहतर और स्वस्थ जीवन की होड़ में लगे हुए हैं। तो दूसरी तरफ़ हमारी ज़रा सी भौतिकवादी सुख-सुविधा की सोच के कारण अपने समाज और प्रकृति के अस्तित्व को चुनौती देने का कार्य कर रहें हैं। आज ग्रामीण अंचलों में तो कम पर शहरी जीवन में पॉलीथिन का महत्व सर्वव्यापी हो चला है। छोटी सी खाने की वस्तु से लेकर बड़ी पैकिंग की वस्तुओं तक का कारोबार प्लास्टिक की थैलियों पर ही निर्भर हो गया है। जब समय-समय पर होने वाले अनुसंधान यह अनुशंसा करते हैं, कि प्लास्टिक की बोतलों और कंटेनरों का उपयोग बेहद खतरनाक है। एक प्लास्टिक के गिलास में गर्म पानी या चाय पीने से कैंसर तक हो सकता है। फिर समझ नहीं आता क्यों हम प्लास्टिक से मोह छुड़ा नहीं पा रहे। वैसे भी हम उस सभ्यता और संस्कृति से जुड़े रहें हैं। जहां पर केले आदि के पत्ते पर सामूहिक भोज कराया जाता रहा है। साथ में कुल्हड़ आदि में चाय आदि पी जाती रही है। पर हमने आधुनिकता की चमक के आगे सब बातों को तो बिसार दिया है। जो बेहद चिंताजनक स्थिति है। अनुसंधान कहता है, कि जब सूर्य के तापमान से प्लास्टिक गर्म होता है, तब उससे हानिकारक रासायनिक डाई-ऑक्सीजन का रिसाव होता है। जो किसी भी जीव-जंतु और प्राणी के लिए बेहद हानिकारक है। फिर हम इन बुराइयों को नजर- अंदाज कैसे कर देते हैं। जीवन के प्रति संजीदा और सचेत होने के बाद भी। यह पल्ले नहीं पड़ता।

हम प्लास्टिक के अन्य नुकसान पर चर्चा करें, तो इसके अलग-अलग तरीके के नुकसान हैं। जैसे पाइपों, खिड़कियों और दरवाजों के निर्माण में इस्तेमाल पीवीसी विनाइल क्लोराइड के पोली-मराइजेशन द्वारा बनाई गई है। इसकी बनावट में प्रयोग होने वाला रसायन मस्तिष्क और यकृत का कैंसर पैदा कर सकता है। इसके अलावा कई तरह के प्लास्टिक के निर्माण में फार्मलाडेहाइड का उपयोग किया जाता है। जो रसायन त्वचा पर चकत्ते पैदा कर सकता है। इसके इतर इसके साथ कई दिनों तक संपर्क में रहने से अस्थमा और श्वसन रोग भी हो जाते हैं। इसके अलावा जब प्लास्टिक की थैली आदि घर आदि से बाहर निकलकर वातावरण में पहुँचती है, तो वह जीव-जंतु और मृदा के साथ प्रकृति के लिए महाभिशाप बनती है। ऐसे में अगर प्लास्टिक को जला दिया जाएं, तो वह प्रकृति पर जीवन के लिए ओर भी हानिकारक है। प्लास्टिक को जलाने से अमूमन कार्बन डाइऑक्साइड और कार्बन मोनोऑक्साइड गैसों का उत्सर्जन होता है। जो मानवीय जीवन के लिए काफ़ी हानिकारक है।
इसके अलावा पॉलीस्टाइन प्लास्टिक के जलने से क्लोरो-फ्लोरो कार्बन का उत्पादन होता है जो वायुमंडल के ओजोन परत को क्षति पहुँचाता है। कुल-मिलाकर प्लास्टिक हर मायने में प्रकृति और प्राणियों के लिए शत्रु से कम नहीं।

4) बड़े शहरों का प्लास्टिक कचरें में योगदान औऱ हमारी रहनुमाई व्यवस्था:-

आज हमारे महानगरों और शहरों की क्या स्थिति हो चली है। उससे सभी वाकिफ़ हैं। दिल्ली जैसे शहर स्वस्थ की दृष्टि से रहने योग्य नहीं बचें हैं। अन्य शहर भी लगभग कुछ यूँही समस्याओं से दो-चार हो रहें। महानगरों में हरियाली और बेहतर जीवनशैली बिताने के लिए कोई माहौल न बचकर सिर्फ़ और सिर्फ कूड़े के पहाड़ निर्मित हुए दिखते हैं। इन कूड़े के पहाड़ों का समुचित निपटान करने की व्यवस्था आज हमारे लोकशाही व्यवस्था के पास भी दृष्टिगत नहीं हो रही। शहरों में जीवन जीने की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति की वस्तुएं जैसे पानी आदि की व्यापक पैमाने पर कमी दिखने लगी है। तो इसके लिए जिम्मेदार भी कहीं न कहीं हम और हमारा शहरी समाज है। जब प्लास्टिक कचरा जमा होगा, तो वह वर्षा जल संचय होने नहीं देगा। फ़िर स्वाभाविक बात है हमारे शहरी समाज को पानी आदि की क़िल्लत झेलनी पड़ेगी। इसके अलावा जब रिपोर्ट्स हमें आगाह कर रहीं पेड़ जो वर्षा कराने में काफ़ी महती भूमिका अदा करते हैं, उनकी हिस्सेदारी हमारे देश में लगभग 24 पेड़ प्रति व्यक्ति रह गया है।

फिर यह अनुपात शहरों और महानगरीय जीवन मे कितना होगा, इसको पता करना कोई मुश्किल भरा काम समझ नहीं आता। तो इसके बाद भी अगर शहरों में पॉलीथिन का बेइंतहा उपयोग हो रहा। फिर उसके दुष्प्रभाव हम देख रहे, साथ में इससे भी भयानक परिणाम के लिए हमें तैयार रहना चाहिए। प्लास्टिक के थैलों के निर्माण में कैडमियम और जस्ता जैसे बेहद विषैले पदार्थों का उपयोग होता है, जो प्राणियों के लिए खतरनाक तो है ही, साथ में प्लास्टिक कचरा पर्यावरणीय चक्र को भी रोक देता है। ऐसे में सहूलियत का सौदा जिस पॉलीथिन को हमारा समाज समझ रहा। वह पॉलीथिन हमारी क़ुदरत और हमारे लिए यमराज से कमतर कतई नहीं। देश का दुर्भाग्य देखिए जिस पॉलीथिन को बनाने, रखने और इस्तेमाल करने पर हमारी दिल्ली की तख़्त ने 2002 से ही प्रतिबंध लगा रखा है। इसके अलावा अब धीरे-धीरे राज्य सरकारें भी प्रतिबंध लगा रही। उन पर अमल न सरकारें करा पा रहीं है, न अवाम करने को तैयार दिख रही है। इतना ही नहीं जिस दिल वाली दिल्ली को कचरे का पहाड़ आज के दौर में घोषित किया जा सकता है।

वहां पर सितंबर 2012 से ही पॉलीथिन के उत्पादन, संग्रह और इस्तेमाल को संज्ञेय अपराध की श्रेणी में रखा गया है, लेकिन धड़ल्ले से उपयोग हो रहा पॉलीथिन का। न नियम का डर है, न लोग अपनी आदतों में सुधार लाना चाहते हैं। एक हालिया अध्ययन अगर यह कहता है, कि 60 बड़े शहरों से प्रतिदिन लगभग 4,059 टन प्लास्टिक कचरा निकलता है। फिर यह भयावह स्थिति निर्मित कर रहा। वहीं अगर इस कचरे का अनुमान पूरे देश में लगाया जाएं, तो इसकी मात्रा 25,940 टन प्रतिदिन है। जिसमें से अगर रहनुमाई तंत्र यह कहती है, कि वह लगभग 60 फ़ीसद प्लास्टिक कचरे को एकत्रित और पुनर्चक्रण कर लेती है। तो उसकी सराहना की जानी चाहिए। मगर शेष 40 फ़ीसद तो हमारे प्रकृति और पर्यावरण को हानि पहुँचा रहा। उससे निपटने का उपाय हमें जल्द ढूढ़ना होगा।

5) पुनश्चः:-

ऐसे में अगर एक अध्ययन रिपोर्ट यह कहती है, कि देश के भीतर उत्पन्न प्लास्टिक कचरें का शत- प्रतिशत निस्तारण, पुनर्चक्रण और शोधन नहीं हो पाया। तो भविष्य में देश ‘‘विषैला टाइम बम’’ बन जाएगा। तो यह कोई ग़लत पूर्वानुमान नहीं लग रहा, क्योंकि बड़े शहर तेज़ी से उस तरफ क़दम बढ़ा रहे। तो ऐसे में अब देश की अवाम को ही आगे आना होगा। अपने बेहतर कल और प्रकृति की बेहतरी के लिए। सरकारें तो अपने स्तर पर कार्य कर ही रहीं। अब अगर विषैले टाइम बम से देश और समाज को बचाना है, तो प्लास्टिक कचरे के खिलाफ जनांदोलन खड़ा करना होगा। तभी कुछ सकारात्मक परिणाम दिख सकते हैं, क्योंकि प्लास्टिक कचरा प्रबंधन नियम 2016 के तहत तो 50 माइक्रोन से कम आकार के प्लास्टिक बैग और अन्य उत्पादों पर प्रतिबंध लागू हैं। साथ में अब तक लगभग 21 राज्य और संघ शासित क्षेत्र भी इस नियम को अपना चुके हैं। तो सरकारें तो नियम बना सकती हैं। कड़ाई से उसको लागू कर सकती हैं, लेकिन किसी की आदत को तो नहीं बदल सकती। तो आज जो समाज के लोग अपने-आप को सच्चें अर्थों में गऊ भक्त आदि साबित कर रहें। वे क्यों नहीं पॉलीथिन की बंदी के लिए जनांदोलन छेड़ते, क्योंकि आँकड़े कहते हैं कि लगभग 20 से अधिक गाएं प्रतिदिन पॉलीथिन खाने की वज़ह से मर जाती हैं।

इसके अलावा जलीय जीव-जंतु और मानवीय समाज भी पॉलीथिन के दुष्प्रभाव से प्रभावित होता है। तो अब उसे पॉलीथिन को न कहना होगा। इसके अलावा यहां जिक्र सरकार के उस दोहरे रवैये का भी हो। जिसके अनुसार वह लोगों से पॉलीथिन के न उपयोग करने की बात तो कहती है, और नियम बनाती है। पर आज भी तो लगभग सभी कम्पनियां अपने छोटे से छोटे उत्पाद को पॉलीथिन में पैक कर ही बेचती हैं। साथ में पॉलीथिन बनाने वाली कम्पनियों पर भी कोई चाबुक नहीं चलता। तो ऐसे में एकांकी होकर तो देश को विषैले टाइम बम से मुक्ति मिल नहीं सकती। तो बात यहीं आकर रुकती है, सरकार और समाज दोनों अपनी जिम्मेदरियों को समझें। पॉलीथिन का उपयोग न के बराबर करने का प्रण देश, समाज और प्रकृति की बेहतरी के लिए समाज ले। इसके अलावा सड़क निर्माण, सीमेंट भट्टियों और भवन निर्माण में प्लास्टिक कचरे के इस्तेमाल की नयी तकनीकों को शत-फ़ीसद बढ़ावा दिया जाएं।

इन सब के इतर हमारा पुरातन समाज जिस जूट, कपड़े आदि के थैले का इस्तेमाल करता था, साथ में पत्तल और कुल्हड़ आदि को बढ़ावा दिया जाएं। तो इससे दो फ़ायदे होंगे। एक गांव और सुदूर क्षेत्र के लोगों को क्षेत्रीय स्तर पर काम उपलब्ध होगा, साथ में पर्यावरण और मानवीय जीवन के साथ जीव-जंतु भी पॉलीथिन के प्रभाव में आकर अकाल काल का शिकार होने से बच जाएंगे।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896