कविता

क्यों उपस्थित हर घट रहूँ

क्यों उपस्थित हर घट रहूँ,
क्यों तटस्थित ना तट रहूँ;
क्यों निहारे हर पट रहूँ,
नट बनके क्यों नचता रहूँ !
खट-खटा कर हर द्वार क्यों,
छट-पटा कर हर वार यों;
लुट- पिटा कर लिपटा करूँ,
मिट- मिटा कर माँगा करूँ !
हर लट उसी की है ललक,
हर लता में उसकी झलक;
क्यों ना पकड़ उसके चरण,
देखे रहूँ उसकी पलक !
सब छोड़ कर उर जोड़ कर,
सुर जोड़ कर स्वर भेद कर;
देखा में बस उनको करूँ,
हो सुदीक्षित चित को तरूँ !
शब्दों की गंधों से परे,
आत्मा का छन्द विलोक लूँ;
भृकुटी लखे, त्रिकुटी पढ़े,
‘मधु’ के प्रभु पर वार दूँ !

गोपाल बघेल ‘मधु’