कविता

थरथराहट

जब भी गुजरता हूँ पुल पर से

थरथराहट सी होती है

देखा है मैंने

जितना मैं थरथराता हूँ

उतना ही थर्रा जाता है

पुल भी

उसे भी भरोसा नहीं है

अपने रचनाकार पर

मुझे भी अब नहीं रहा

क्योंकि

उस ऊपर वाले

रचनाकार का कोई पता भी नहीं है

न ही किसी ने उसे देखा है

पुल की और मेरी

थरथराहट एक जैसी ही है

भरोसे पर ही पुल भी खड़ा है

और हम भी अपनी आस्था पर

जब भी मैं या कोई और

गुजरता है पुल पर से

गुजर जाने पर

राहत की साँस लेते हैं

शुक्रगुज़ार होकर

दोनों ही

क्योंकि

दोनों ही भरोसेमंद होकर भी

डरते हैं अपने रचनाकार से।

*डॉ. प्रदीप उपाध्याय

जन्म दिनांक-21:07:1957 जन्म स्थान-झाबुआ,म.प्र. संप्रति-म.प्र.वित्त सेवा में अतिरिक्त संचालक तथा उपसचिव,वित्त विभाग,म.प्र.शासन में रहकर विगत वर्ष स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ग्रहण की। वर्ष 1975 से सतत रूप से विविध विधाओं में लेखन। वर्तमान में मुख्य रुप से व्यंग्य विधा तथा सामाजिक, राजनीतिक विषयों पर लेखन कार्य। देश के प्रमुख समाचार पत्र-पत्रिकाओं में सतत रूप से प्रकाशन। वर्ष 2009 में एक व्यंग्य संकलन ”मौसमी भावनाऐं” प्रकाशित तथा दूसरा प्रकाशनाधीन।वर्ष 2011-2012 में कला मन्दिर, भोपाल द्वारा गद्य लेखन के क्षेत्र में पवैया सम्मान से सम्मानित। पता- 16, अम्बिका भवन, बाबुजी की कोठी, उपाध्याय नगर, मेंढ़की रोड़, देवास,म.प्र. मो 9425030009