बालोपयोगी लेख

बाल-साहित्य

बच्चों की आवश्यकताएँ  सर्वव्यापी है , जहाँ उन्हें ज्ञान देने की आवश्यकता है , वही उन्हें सम्मान देने की भी आवश्यकता हैं| उन्हें संस्कारी बनाना है तो उसे सुविचारी भी  बनाना है , उन्हें परम्परा और परिपाटी से परिचित   कराना है तो स्वयं करने और सीखने के मौके को  भी  दिये  जाना  हैं|  उनको विवेकशील  बनाना तो है ही, पर वौज्ञानिक और  तर्कशील भी बनाना  है | जहाँ उन्हें अपने  सवालों  का  जवाब पाने में  सहायता देनी हैं ,वही उन्हें अपनी प्रेरणा और विश्लेषण  की  शक्ति  को  बराबर  अपने  जवाबों को  स्वयं  ढूँढ‌ने की  चेतना भी देनी है | अत्यंत दुष्कर कार्य है उस बच्चे को  उचित दिशा देना ,ताकि वह आज   के युग  मे  दुनिया की समस्त सम्सयाओं के बीच अपनी भारतीयता को विद्यमान रखते हुए भी कोहिनूर  की भाँति चमक सके|  चेतना तो हमें हैं और सोचना भी है कि उस गीली मिट्टी को हम कौन सा रूप देना चाहते है ? इस क्रम की सबसे  बडी महत्वपूर्ण व बेजोड‌‌ कड़ी है …..

बाल – साहित्य ……

बालक  का  मन सूरज की  पहली  किरण  सा दिव्य , चाँद की चाँदनी सा मनोहरी, वर्षा  की  बूँद सा अविकारी, झरने की  तरह चंचल- चपल , जल  की तरह  तरल और  सरल, बिजली की कौन्ध सा प्रखर, सागर के गर्जन – नर्तन सा मुखर, पक्षी की तरह उन्मुक्त, सौंधी हवा सा गंध युक्त, संगीत सा सुरयुक्त, हर बंधन से आज़ाद और मुक्त है|

बाल मन कभी कल्पना के पंखों पर  सवार  होकर विशाल  गगन  में इतराता – उड़ता है तो  कभी  मिट्टी मे लोट- पोट हो उसी कल्पना के बीज को अंकुरित कर गई नई रचना की पौधशाला भी निर्मित कर  डालता है |

किसी भी देश  का  बाल-साहित्य उसकी  सांस्कृतिक प्रगति का एक  अंग है अतः  बाल-सहित्य  ऐसा हो , जिसके  माध्यम से  हमारी संस्कृति  की  परम्पराएँ  सुरक्षित रखी  जा सकें|

‘कभी हरलोक’ की चाइल्ड साइकलाँजी पुस्तक इस विषय की विश्व- विख्यात कृति मानी जाती है | बाल  मनोवैज्ञानिकों  का विचार है कि स्वस्थ  बाल सहित्य  पढ़ने से बच्चों का विकास  अधिक  तीव्रता से  होता हैं|

बाल साहित्य बड़ो के साहित्य से भिन्न एक सृजन रूप है| यह बालकों को लक्क्ष करके लिखा जाता है | बच्चों की प्रकृति ऐसी होती है  कि  उनकी  दुनिया  में असम्भव  भी  सम्भव और कल्पना भी सत्य  हो  सकती है|  बालक  बाल- साहित्य  को अकेले  बैठ  कर पढ़   सकता है और  उसे समझने के लिए  अध्यापक या माता- पिता की सहायता की जरूरत  नही पड़ती | बाल – साहित्य बच्चों  में ज्ञान, रूचि और कल्पना को जगाता और निखारता है|

अन्य समाजों की तरह भारत में भी साहित्य श्रुति परम्परा से  आया है | वही लोक साहित्य उस दौर के लोगों के मनोंरंजन का साधन बना| लोकगीतों में जो   सरस और सहज थे उन्हें लोरियों के रूप में बाल-मनोंरंजन के लिए अपना लिया गया| बाल-साहित्य का इंद्रधनुषी-रंग और बाल सुलभ  क्रीड़ाओं वाली बच्चों  की दुनिया निराली ही होती है|  बच्चे आन्नद की दुनिया  को बद्धि से नही तौलते| बाल- साहित्य शिक्षा भी दे , साथ ही बालमन के रहस्यों  से भी परिचित होकर  मनोरंजन से भी जुडा रहे जैसे- कागज़ की नाव, बरसात के  पानी  की छप- छप, इंद्रधनुष के रंग, छुक- छुक गाडी के खेल, परियों के जादुई संसार, हौरी पाँटर  की काहाँनियाँ, विरासत में मिली सामग्री पंचतंत्र,सिंहासन बत्तीसी, बेताल पचीसी, जातक कर्थाएँ, कथासरितसर ,रामायण,महाभारत  जिनकी कथाओं ने  आज के  युग तक बच्चों को प्रभावित कर रखा है, जहाँ न तनाव है न घुटन ,न कुंठा और न नैराश्य,  अगर है तो केवल स्वक्छ्ंद भावजगत्‍, निश्छल भावलोक, उन्मुक्त खिलखिलाहट,  मनोहरी  मुस्कान, नटखट चितवन किलकारी की गूँज,  चपल हँसी, भोले भोले तर्क, टुकुर –टुकुर निहारती जिज्ञासा जो बच्चों में अतीत गौरव जागृत करती है ,साथ ही उनके चरित्र विकास में सहायक  होती है|

“ तुम उन्हें अपना प्यार दे  सकते हो , लेकिन विचार नहीं…क्योंकि उनके  पास अपने विचार होते हैं| तुम उनका शरीर बंद कर सकते हो , लेकिन उनकी  आत्मा नहीं, क्योंकि उनकी आत्मा  आने  वाले  कल  में निवास करती है | उसे तुम नहीं देख सकते हो, सपनों में भी नहीं देख सकते हो, तुम उनकी तरह बनने का प्रयास कर सकते हो लेकिन उन्हें अपनी तरह , अपने जैसा बनाने की इच्छा मत रखना क्योंकि जीवन पीछे की ओर नही जाता और न ही बीते हुए कल के साथ रूकता है|”

‘’खलील जिब्रान’’

शैशव अवस्था को  पार  करते  ही बच्चे की  मानसिक अवस्था में स्वतः ही परिवर्तन आने  लगता है | वह  अपने परिवेश  के प्रति जागरूक होने  लगता है | अपनी सिमित सोच- समझ  व अनुभव के  आधार पर वह  अनेक प्रकार  की कल्पनाएँ करने लगता है| कल्पना की यह उडान अनेक प्रकार की जिज्ञासाओं को  जन्म देती है और उसकी यह जिज्ञासा और ज्ञान पिपासा को शांत करता है, वह  साहित्य जो विशेषकर बच्चों के लिए, बच्चों की रुचि के अनुकुल और बच्चों की भाषा में  ही  लिखा गया हो  क्योकि बाल-साहित्य  का लक्क्ष  बच्चों  का बौद्धिक और  आत्मिक विकास है|  यह  विकास वौज्ञानिक ठंग से भी होना चाहिए ताकि वे अपनी  सांस्कृतिक परम्परओं  को  पहचानने के  साथ  ही  आज  के  युग  में  अपनी  सम्स्याओं का समाधान भी कर  सकें| आज के युग में उनकी अपनी आशाएँ आकांक्षाएँ है, अपने सपने-कल्पनाएँ हैं, जिनमे र्ंग भरने का अवसर बाल-साहित्य देता हैं|   जिस जाति अथवा राष्ट्र के पास  समृद्ध बाल-साहित्य नहीं हैं,वह  सुख और समृद्धि संपन्न  नही  हो  सकता, क्योंकि हृदयों में उमंगों, उल्लास , आशा और  विश्वास जगाकर स्वस्थ, सबल, नागत्रिक बनाने में बाल-साहित्य की भूमिका बेजोड है| आज के युग में ज्ञान-विज्ञान की उपलब्धियों ने  चका चौंध उत्पन कर दी है| बालक अपने जन्म के बाद  अपने चारों ओर कंप्यूटर, मोबाइल, लैपाटँप और टेलोविजन की दुनिया को देखता है | समय  के  साथ  परिवार सन्युक्त  से एकल होते जा रहे  है, ऐसे में बच्चे को  दादा-दादी और  नाना-नानी से कहानी- किस्से सुनने का सुख कम  ही नसीब होता है, ऐसी स्थिति  में अकेलेपन  के तनाव और मशीनी जिंदगी  से अलग  होकर अपने मनोरंजन के लिए पुस्तकों और पत्रिकओं से  जुडना बहुत जरुरी हो गया हैं| बाल-साहित्य पत्र- पत्रिकाएँ बालकों के  चहँमुखी विकास में उनके जीवन को  अलोकित करने वली  मशाल है  इसीलिए बाल-साहित्य वही श्रेष्ठ है जो बच्चों मे आत्म विश्वास भर सके, उनका  आत्म विकास करे, बाल- साहित्य ऐसा हो जो उन्हें उज्जवल भविष्य  हेतु तैयार करे ,उनमें स्वाभिमान का संचार  करे  तथा जीवन की परिस्थितियों से  संघर्ष करना सीखा सके क्योंकि बच्चे ही  हमारे देश  के सर्वांगीण विकास की सुदृढ़ आधारशिला और सम्पूर्ण सम्भावना शक्ति  हैं| साहित्य का संवाहक भाषा है| समर्थ भाषा ही अभिव्यक्ति को समर्थ  बनाती हैं| बाल-साहित्य का प्रमुख उद्देश्य बालकों का मनोरंजन है|  बाल-लेखन  अथार्त बच्चों की  भाषा में  लिखा गया, बच्चों के  बारे में  लिखा गया और बच्चों के  लिए  लिखा गया  साहित्य| आयु की विभिन्नता के कारण बाल-साहित्य भी वर्गीकृत हो जाता ह| शिशु-साहित्य, बाल-साहित्य एवँ किशोर-साहित्य|

एक वर्ष से पाँच वर्ष तक  का आयु वर्ग जिसे शिशु अवस्था कहा जाएगा , दूसरा आठ वर्ष तक , जिसे आप बचपन कह सकते है और इसके बाद चैदह-पंद्र्हवर्ष की आयु किशोरावस्था  मानी जाती है|

यहाँ प्रश्न ये उठता है कि बच्चों के लेखन की भाषा कैसी होनी चाहिए ? इस सम्बंध में वरिष्ठ बाल- साहित्यकार  डाँ.  रत्नलाल शर्मा ने कहा है- ‘ इसके  शब्द  हल्के-फुल्के, आसान,बच्चों की  बोलचाल के सटीक, सुकोमल और  बाल-जीवन के परिचित संसार से लिए गए हो , जो  बालकों को  लुभाएँ गुदगुदाएँ और महकाएँ| जहाँ तक  इसके  शब्द भंडार  का प्रश्न है तो  हिंदी भाषा का शब्द भंडार विस्तृत  है | प्रकाश मनुजी का कहना है ”हिंदी भाषा  का अपना  मिज़ाज़ है| अगर  हम तकनीकी शब्दों को जरा सा  स्पष्ट करते  हुए  उनका बढिया ढ‌ग  से इस्तेमाल करें तो वह बच्चों  की  समझ  में न आये ,ऐसा हो ही नही सकता, क्योकि विज्ञान और तकनीकी की प्रगति के  कारण विज्ञान और तकनीकी के शब्दों  का प्रयोग भी बाल-साहित्य में प्रचुर  मात्रा  मे दिखाई देता है| भाषा को इस प्रकार अकस्मात करे  कि वह बालकों की आयु  के  अनुसार सरल  से  सरलतम होती  जाए | आज के बाल-साहित्य में हम आसानी से भाषा के  कई  रुप देख सकते है | लोकभाषओं के शब्द , ऊर्दू के शब्द , अंग्रेजी के  शब्द , आज के बाल सहित्य में दुर्लभ  नहीं हैं  तो क्यों  न विचार  करे  उन  बिंदुओं   व पहलुओं  पर  , जो  बाल-साहित्य को  सार्थक ,ग्राह्य और पठनीय  बना  सकते  है |

प्रकृति से बच्चों का स्वाभाविक लगाव  होता है| नीला  आसमन, उमड‌ते –घुमड‌ते बादल, सूरज  की  लालिमा, वर्षा की बूँदे, चारों ओर  फैली हरियाली,पेड-पौधे  ,नदियाँ-झरने,पहाड,सुंदर वादियाँ,  खेत -खलियान , जीव-जंतु, पंक्षियों का संसार, वन्य प्राणी सभी  बालक  का  मन  उत्सुकता से भर  देते हैं|  पत्ते पर बिखरती ओस की  बूँदे, आकाश में लहराता इंद्र्धनुष, उडती तितलियाँ कौतुक और  आकर्षण पैदा   करने वाली रोचक कहाँनिया, रात्री में टिमटिमाते तारे , चाँद की चैदह  कलाएँ और ग्रह-नक्षत्रों का झिलमिलाता  संसार,शीतलपवन  मिट्टि के  हर  क्षण  बदलते  रूप, सागर  का गर्जन-  नर्तन  , ज्वार- भाटा सभी  कुछ बाक – मन  को  समोहित  कर  उसे  आत्मविभोर कर देता  है …

आज प्रचुर मात्रा में बाल-साहित्य लिखा जा  रहा हैं और प्रकाशित भी हो रहा  है  पर हिंदी बाल- सहित्य का इतिहास 100 वर्षों से भी ज्यादा पुराना है|  हिंदी बाल-साहित्य के प्रारम्भिक काल में अमीर खुसरों , अयोध्यासिंह उपाद्धाय ’हरिऔध’, श्रीधर पाठक, बाल्मुकुंद गुप्त, लोचन प्रसाद पाण्डेय , लल्लीप्रसाद पाण्डेय, मौथलिशरण गुप्त, रामनरेश त्रिपाठी, देवीदत्त शुक्ल, सुभद्रा कुमारी चौहान, सोहनलाल द्विवेदी,   मुंशी प्रेमचंद्र, रविंद्र्नाथ टैगोर, रमवृक्ष बेनीपुरी , सुमित्रानंदन पंत, विष्णु प्रभाकर, जयप्रकाश भारती ,निरंकार देव सेवक,  महादेवी वर्मा, डाँ राष्ट्रबंधु, डाँ हरिकृष्ण देवसरे, राधेश्याम’प्रगल्भ’ आदि ने बाल –साहित्य पर अपनी लेखनी चलाई हैं | प्रेमचंद्र की “काबुलीवाला” और “ईदगाह” “गुल्लीडंडा”  “बडे भईसाहब”, जैसी  कहानियाँ इस का सर्वश्रेष्ठ  उदाहरण है|

बच्चों के लिए लिखना आमतौर परकाया प्रवेश जैसा चुनौतीपूर्ण  होता है| उसमें  न केवल बाल-मनोविज्ञान को समझने  जैसी चुनौती होती है बल्कि अपने से  अधिक  जिज्ञासु और  उर्जावान  मस्तिस्क की अपेक्षाओं  पर  खरा उतरना होता है | बाल- साहित्य का लेखक वही हो सकता है ,जो बच्चों की भावनाओं ,संवेदनाओं, उनकी रुचियों–अरूचियों  को समझता हो, जिसमें   नया  सोचने और उसे रोचक ढ‌ंग से प्रस्तुत करने की क्षमता हो,साथ  ही बाल- मनोविज्ञान की समझ रखता हो|

आज के संदर्भ में जहाँ बच्चों के विकास में घर परिवेश, विद्धालय, समाज देश, अभिभावक  की दृष्टि के साथ  साथ उन्हें आधुनिक तकनीकों , बाहर की दुनिया में हो रहे प्रयोगों ,शोधों तथा प्रगति से जानकार होना  अति  आवश्यक  है  वही सच तो ये है कि बाल मन ने पाठ्शालाओं की सिमित पुस्तकों, तकनीकी जानकारी, और गूगलतक ही अपने आप को सिमित कर दिया है ……इसलिए सोचना हमें ही है कि इस गीली निट्टि को हम कैसा रूप  देना चाहते है?

जो जैसा दिखाई पड रहा है, जो अनुभव हो रहा है, हमें उससे ऊपर ऊठकर बच्चों को एक नई दृष्टि प्रदान करनी होगी जिसमे बाल- साहित्य की सर्थकता के  साथ- साथ मौलिक सोच, तार्तिक पृष्ट्भूमि और यथार्थ  का घरातल भी हो |

 

अध्यक्षा; वादीज़  हिंदी शिक्षा समिति

नसरीन अली निधि”

श्रीनगर , जम्मू और कश्मीर

9906591662,7006692361

wadieshindi@gmail.com

 

 

 

नसरीन अली 'निधि'

1. पिता : बृजपाल दास पारिख 2. जन्म: 10 नवम्बर 1969 3. जन्म स्थान: कलकत्ता 4. शिक्षा: स्नातक ( कला ) कलकत्ता विश्वविद्धालय 5. भाषा ज्ञान: हिंदी, अंग्रजी, उर्दू, पंजाबी, बंगाली, गुजराती एवं कश्मीरी 6. नागरीकता: भारतीय परिचय: कलकत्ता विश्वविद्धालय से शिक्षित, संस्कृति से गुजराती , जड़ से गुजरात एवं बनारस से जुड़ी , पिछले 22 सालों से अपनी कर्मभूमि कश्मीर श्रीनगर में समाज सेविका का जीवन बिता रही सुश्री नसरीन अली “निधि” ( कवियत्री एवं लेखिका ) का जीवन हिंदी भाषा एवं हस्त कला को समर्पित हैं| अनुभव;-  22 सालों से रेडियो कश्मीर श्रीनगर में हिंदी एवं उर्दू भाषाओं में कार्यकम करने का अनुभव...  पिछले 10 सालों से रेडियो कश्मीर श्रीनगर के हिंदी विभाग में कम्प्युटर आँपरेटर के पद पर आसीन..  पिछले 5 सालों से इसी कार्यालय के पंजाबी विभाग के कार्यक्रमों की साउंड इनजीनियर के रुप में कार्यरत...  दो सालों का कश्मीर घाटी के एक निजी टेलिविजन “ वादी टेलिविजन “ में हस्त कला एवं पाक कला में कार्यक्रम देने का अनुभव हस्त कला के क्षेत्र में एक सफल प्रशिक्षिका के रुप में कार्य करने का अनुभव  मातृ मेहरबान वोमेंस एंड चाइल्ड डेवलपमेंट वेलफेयर इनस्टीयूट , मिसकीन बाग, श्रीनगर  आनगंवाडी ट्रेनिग सेंटर , मिसकीन बाग...श्रीनगर  गवर्मेंट पाँलिटैक्निक फाँर वोमेंस , बीमना श्रीनगर  SKAUST-K Division of Floriculture , Medicine and Aromatic plants Srinagar …  Jammu & Kashmir Entrepreneurship Development Institute ( J&K EDI) विशेष :  “वादीज़ हिंदी शिक्षा समिति” श्रीनगर ( रजि.) की अध्यक्ष महोदया एक स्वैछिक संस्था (N G O ) जो हिंदी के विकास, प्रचार- प्रसार , उन्नति के लिए कार्यरत......  नसरीना क्लासिक्स प्राइवेट लि. (रजि.) (को ओपरेटिव सोसायटि) की अध्यक्ष महोदया एक ऐसा यूनिट जहाँ हस्त एवं पाक कला की शिक्षा के साथ साथ हस्त शिल्प कलाओं का उत्पादन कर, बेरोजगार एवं अनपढ़ महिलाओं को रोजगार देने का अभियान चालाया जाता हैं.......  मातृ भाषा उन्नयन परिषद इंदौर ( रजि.) संस्था की श्रीनगर क्षेत्र की प्रदेश अध्यक्ष महोदया सम्मान : रेडीयो कश्मीर श्रीनगर द्वारा एक सफल कवियत्री ,श्रीनगर दूरदर्शन केंद्र द्वारा एक सफल हिंदी उद्घोषक के रुप मे , कई स्वैछिक संस्थानों द्वारा सम्मानित पर विशेष सम्मान हिंदी के प्रचार –प्रसार एवं उन्नति के कार्य के लिए जम्मू और काश्मीर के महाराजा डाँ करण सिहं द्वारा दिया गया “साहित्य भूषण सम्मान “ भ्रमण भाष: + 91- 9906591662, 7006692361, 9419624129, अणुडाक: wadieshindishikshasamiti@gmail.com अणुडाक : http//www.wadieshindi.com/wp-admin/ पता:- नसरीन अली ,चिंक्राल मोहल्ला, हब्बा कदल , श्रीनगर जम्मू और काश्मीर,